जिसे तुम सपना कहती हो और मैं भविष्य

प्रियंकर की एक कविता

नहीं होगी पुरखों के
पसीने से नम
यह भूमि
उर्वरा माटी
की सोंधी गंध
बढ़ती ही जाएगी सागर की बेचैनी
छटपटाहट के ज्वार में
हो जाएगा निर्बंध

न कहीं कोई घाट होगा न तट
न कोई कुंज गली न वंशीवट
नदियां हो जाएंगी
खारे पानी की झील
दूर-दूर तक नहीं होगी
आश्वस्ति की किरण
एक छोटी-सी कंदील

ग्राम वधुओं के आर्त स्वर
टेर रहे होंगे
मीठे पानी की स्मृतियों
में ऊभचूभ होते करुण गीत
थमने-थमने को होगा
जीवन का संगीत

नहीं रहेंगे ये सदाबहार वन
दहाड़ते शेर चहचहाते पखेरू
मगन मन नाचते मोर
औचक चले जाएंगे
थम जाएगा यह स्पंदनकारी शोर

मिट जाएंगे अनगिन
सुंदर जीवन-रूप
पृथ्वी हो जाएगी और विपन्न
पहले से ज्यादा अकेली
पहले से ज्यादा कुरूप

जो जान नहीं जाए
सार्वभौम तापन की प्रक्रिया

जिन्होंने नहीं समझा
ग्रीनहाउस गैसों का प्रभाव
नहीं करेगी रियायत
उनके साथ भी
ओजोन की छीजती परत
लगातार क्रूर होता
मौसम का स्वभाव

सबसे पहले जाएंगे वे ही
सबसे कम देखी है जिन्होंने दुनिया
अभी-अभी ही खोली हैं आंखें
नहीं झेली हैं समय की
कड़वी सच्चाइयां
उड़ान के लिए
आकुल हैं जिनकी पांखें

फॉसिल ईंधन की ही तरह
जल जाएंगे जीवन मूल्य
पलक झपकते राख
हो जाएगी सारी ऊर्जा
ग्लेशियर हो जाएगा मनुष्य
भविष्य के माथे पर लिखी होगी तेजाबी वर्षा

मृत्यु के खिलाफ कोई
स्थगन आदेश नहीं है अज्ञान
कोई बहाना नहीं स्वीकारेंगे
मृत्यु के लंबे सर्द हाथ
ज्ञानी और मूढ़ जाएंगे


एक ही रास्ते एक ही साथ

मैं कैसे कहूं
सुलगते ज्वालामुखी के
दांतों में फंसी है
हमारी यह दु्निया

जिसमें तुम हो मैं हूं
वह नन्हा बिरवा है
जिसे तुम सपना कहती हो
और मैं भविष्य ।

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