पल में कोला, पल में तमाशा - सी.एस.ई की गड़बड़ाईं प्राथमिकतायें

अर्जुन स्वरूप

सन् 2003 और 2006 में भारत में कोला पेय पदार्थों में कीटनाशकों की उपस्थिति द्वारा कंटैमिनेशन यानि संदूषण पर खासा बवाल मचा है। दोनों ही मामलों में अभियोक्ता एक ही है, सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायरमेंट (सी.एस.ई) नामक एक गैर सरकारी संस्थान। गौरतलब है कि सी.एस.ई देश की एकमात्र ऐसी संस्था है जिसने यह मुद्दा उठाया (या जैसा की कईयों का मत है, निर्मित किया)।

इस विषय पर जैसे जैसे बहस बढ़ी है विभिन्न बिंदु उभर कर सामने आये हैं। आखिर कोला पेय में संदूषण क्यों है? क्या भारतीयों को इनसे खतरा है? हम जो भी खाते या पीते हैं उसमें संदूषण होता है तो फिर केवल कोला पर ही ऊंगली क्यों उठाई जाये? पेप्सीको तथा कोक को तो उच्च मापदंडों का पालन करना चाहिये तो क्या वे जानबूझकर भारत जैसे विकासशील देश में निम्नतर स्वास्थ्य मानकों का अनुपालन चलने दे रहे हैं? क्या भारत की सरकार हमारे स्वास्थ्य की सुरक्षा हेतु कड़े नियमन लागू करने में अक्षम है? और इस मामले में गैर सरकारी संस्थायें यानी एन.जी.ओ इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं?

आईये इन मुद्दों की बिंदुवार चर्चा करें।

पहला और सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है कोला तथा खानपान और पेय पदार्थों में संदूषण का स्तर। सी.एस.ई की जाँच के नतीजों के अनुसार कोला में यह मान्य स्तर से २४ गुना अधिक है। चलो माना! पर क्या सी.एस.ई को यह ज़िक्र नहीं करना चाहिये कि यह "मान्य स्तर" कितना है और किसके लिये लागू होता है? कोला एक कॉम्पलेक्स यानि मिश्रित उत्पाद है जिसमें तीन संश्लिष्ट होते हैं, 90 फीसदी पानी, तकरीबन 8 फीसदी चीनी और शेष कोला कांसेंट्रेट। गौर करने की बात यह है कि पानी के लिये तो जाँच प्रोटोकॉल और मानक मौजूद हैं पर कोला के लिये नहीं। जिन मानकों का सी.एस.ई प्रयोग करती है वे भूगर्भिय जल के लिये लागू होते हैं और यह मानक, जिसमें संदूषण की मान्य मात्रा दशमलव एक पार्ट प्रति बिलियन (पी.पी.बी) है, भारत तथा युरोपिय संघ दोनों ही मानते हैं। अगर हम सी.एस.ई के दावे, यानि कोला पेय में 11.85 पी.पी.बी के संदूषण, को मान भी लें तो यह जानना ज़रूरी होगा कि इंफेट फूड या शिशु आहार, जिसमें ज़ाहिर तौर पर सर्वाधिक सुरक्षा की ज़रूरत होगी, में कीटनाशक रेसीड्यू या अवशेषों का विश्वव्यापी मान्य मानक 10 पी.पी.बी है। चीनी के लिये विश्वव्यापी मानक 400 पी.पी.बी है। इसी से स्पष्ट है कि कोला पूर्णतः सुरक्षित है तथा इनमें कीटनाशक अवशेषों की मात्रा उचित सीमाओं से कहीं कम हैं।

इससे एक बात और ज़ाहिर होती है वह यह कि कोला कंपनियाँ काफी कठोर सफाई प्रक्रिया का पालन करती हैं। पर हम उनकी तारीफ करने के बजाय उनकी निंदा कर रहे हैं!

यह एक और चौंकाने वाले तथ्य की ओर इशारा करता है कि भारतीय फूड चेंस यानी खाद्य श्रंखलाओं में संदूषण का स्तर दुनिया में विद्यमान सबसे कम स्तरों में से एक है। भले ही यह किसी योजना या सोची समझी नीति का परिणाम न हो पर है यह सच। यहाँ तक की भारत में उपलब्ध सेब, चीनी और चाय जैसे खाद्य पदार्थ, जिनमें कीटनाशक संदूषण का स्तर कोला से कई गुना अधिक होता है, युरोप और उत्तरी अमेरिका की तुलना में सुरक्षित हैं। इसकी विश्व खाद्य रपट से पुष्टि हुई है। निश्चित ही यह भारत के लिये अत्यंत गर्व का विषय है।

इस पृष्ठभूमि के साथ मानकों पर हो रही बहस पर नज़र डालनी चाहिये। क्या भारत में सी.एस.ई द्वारा चाहे जा रहे उच्चतर मानकों की वाकई ज़रूरत है? क्या यह सामान्य नागरिक के जीवन में किसी तरह की बेहतरी लायेगा? विश्व स्तर पर यह मानक ALARA या ALOP में से किसी एक पर आधारित होते हैं। ALARA का मतलब है "एज़ लो एज़ कैन बी रीजनेब्ली अचीव्ड" यानि की तर्कसंगत रूप से जितना संभव हो उतना न्यूनतम माप। ALOP का अर्थ है "एक्सैपटेबल लेवल्स आफ प्रॉटेक्शन" यानि सुरक्षा के स्वीकार्य स्तर। पहला मानक युरोपीय संघ द्वारा परिकल्पित है जबकी दूसरा, जिसका अनुपालन संप्रति भारत में होता है, स्वास्थ्य के लिये जोखिम के मुल्यांकन पर आधारित तकनीक है। सी.एस.ई युरोपीय मानकों के अनुपालन पर जोर देता है।

लेखक सी.एस.ई से इस सवाल का जवाब चाहेगाः भारत तो पहले से ही ALOP आधारित मानक का पालन करता है, जिसका अपनुपालन कर रहे उत्पादों से उपभोक्ताओं को सेहत का कोई जोखिम नहीं होता, फिर युरोपीय मानकों को मानने पर बल क्यों दिया जा रहा है? इससे तो कोई ठोस फायदे भी नहीं हैं।

हाँ इसका यह जवाबी तर्क दिया जा सकता है कि भले ही कोई ठोस फायदा न हो पर अगर इनका कार्यावन्यन सीधा सादा है तो इसको अपनाने में हर्ज़ की क्या है। दरअसल इसमें हमारा काफी नुकसान है। उच्चतर मानकों को अपनाने से ये मानक सारे कृषि आधारित उत्पादों पर भी लागू होंगे और जब भारत से निर्यातित सामग्री भी इसी मानक की कसौटी पर परखी जायेगी तो सारे निर्यात, खास तौर पर युरोपीय संघ को किये जा रहे निर्यात, पर अंकुश लग जायेगा। यह मानक लागू करने से युरोपीय संघ के राष्ट्रों का कुछ खास नहीं बिगड़ने वाला, पर भारत के कृषिक्षेत्र पर इसके परिणाम प्रलयंकारी होंगे।

अंत में लेखक की राय है कि हमें सी.एस.ई की भुमिका की भी पड़ताल करनी चाहिये। सी.एस.ई प्रेस काँफ्रेंस के द्वारा "जनता का स्वास्थ्य खतरे में है" और "सार्वजनिक नीतियाँ उपहास का पात्र बन गई हैं" जैसे व्यक्तव्य देने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाती। तथापि भारत स्थित अनेक अन्य प्रयोगशालाओं, जिनमें खाद्य विज्ञान और टॉक्सिकोलॉजी के श्रेष्ठ वैज्ञानिक कार्यरत हैं, ने सी.एस.ई की जाँच पद्धतियों और प्रणालियों पर आक्षेप किये हैं। भारत की किसी और प्रयोगशाला ने सी.एस.ई के निष्कर्षों और जाँच तकनीक की पुष्टि नहीं की है। यह एक महत्वपूर्ण बात है।
सी.एस.ई के सार्वजनिक बयान सनसीखेज़ और भ्रामक रहे हैं, इनका विज्ञान त्रुटिपूर्ण और धूर्ततापूर्ण और इनकी मंशा संदिग्ध रही है।
दरअसल जब कभी सी.एस.ई को अपनी जाँच प्रणाली या तकनीकी योग्यता को प्रमाणित करने को कहा गया तो वे ऐसा नहीं कर पाये। सी.एस.ई के पास NABL प्रमाणन नहीं है जो को भारत की १५ अन्य प्रयोगशालाओं के पास है। एक टीवी कार्यक्रम में, जिसमें खाद्य विज्ञानी डॉ खंडल और सी.एस.ई प्रमुख सुनीता नारायण आमंत्रित थे, डॉ खंडल ने सी.एस.ई के परीक्षणों में कई विसंगतियों को ज़ाहिर किया और वे कोई भी जवाब देने में असमर्थ रहीं। पंजाब की राज्य सरकार, जिसने कोला पेयपदार्थों की जाँच अपनी प्रयोगशाला में करवाई है, ने सार्वजनिक बयान दिया है, "सी.एस.ई का संभवतः कोई व्यक्तिगत अजेंडा है"। अगर वाकई यह सच है तो यह जानकारी निःसंदेह बड़ी रोचक होगी।

सी.एस.ई 25 वर्ष पुराना संस्थान है, 1982 में अनिल अग्रवाल ने इसकी स्थापना की। नई दिल्ली में, जहाँ लेखक रहते हैं, प्रदूषण कम करवाने में संस्थान की भूमिका को काफी प्रशंसा मिली और वे इस तारीफ के हकदार भी हैं। पर लगता है कि इनकी प्राथमिकतायें गड़बड़ा गई हैं। सी.एस.ई के सार्वजनिक बयान सनसीखेज़ और भ्रामक रहे हैं, इनका विज्ञान त्रुटिपूर्ण और धूर्ततापूर्ण और इनकी मंशा संदिग्ध रही है। उम्मीद है कि एक समय उत्कृष्ट रहा यह संस्थान पुनः अपना स्थान प्राप्त करेगा जिससे हम सब लाभान्वित हों।
साभार- http://www.nirantar.org

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