‘कोका जैसे तीन दर्जन साम्राज्यों का नाम ही अमेरिकी साम्राज्य है

जब-जब स्वदेशी अस्मिता के विरुद्ध निर्णय हुए, दीनानाथ जी का बहुचर्चित व्यंग्य स्तंभ-‘आरपार’ जमकर लोहा लेता रहा। इसके अनेक उदाहरण मुझे विगत एक दशक के इन व्यंग्य लेखों में देखने को मिले। उन्हीं का संग्रह ‘घर की मुरगी...’ के नाम से आप पाठकों के सामने प्रस्तुत हुआ है। ये व्यंग्य जनजीवन के सभी पक्षों की रक्षा के लिए विदेशी अर्थतंत्र के जहरीले साँपों पर करारी चोट करते हैं। मेरी दृष्टि में ये स्वदेशी व्यंग्य है। इनकी भूमिका वर्तमान परिस्थितियों में बड़े महत्व की है।

विदेशी कंपनियाँ अपने उत्पादों को बेचने के लिए किस्म-किस्म के तरीके उपयोग करती हैं, जिनसे बेखबर लोग उनके उपभोक्ता बनते जाते हैं। कैसे-कैसे होते हैं ये तरीके ? कैसे इनके आघातों से बदल जाता है जनमानस ? पत्रकारिता की पैनी नजर इसे आसानी से पकड़ लेती है। साहित्य के नए व्यंग्य विषयों का परिचय इन व्यंग्यों से अवश्य मिल सकता है। इनकी बानगी देखिए ‘किसी दिन किसी मेडिकल शोध के जरिए यह साबित किया जाएगा कि जलजीरा पीने से एक्जीमा होता है। लस्सी पीनेवालों को कैंसर होने का खतरा ज्यादा रहता है।..ऐसे दो सौ शोधों से यही पूरी तरह सिद्ध हो जाएगा कि कोका को छोड़कर कोई भी पेय सुरक्षित नहीं है (एकमेव कोला)।’

यूरोप के पारंपरिक त्योहारों में पेप्सी के प्रवेश का उदाहरण देते हुए व्यंग्यकार ने भारतीय जनमानस को जागरूक करने के लिए लिखा है-‘यह भी हो सकता है कि पंडित शादी कराने के बाद वरमाला के नेग पूरे कर नव विवाहित जोडे़ को पेप्सी की बोतलें आदान-प्रदान करने का कोई नया मंत्र पढ़े...या फिर गर्भाधान संस्कार और दाह संस्कार के बीच चौदह अन्य संस्कारों में किसी तरह कोका कोला संस्कार जुड़ जाए (कोका संस्कार)।’ व्यंग्यकार की चिंता है कि हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी क्या, जब विदेशी कंपनियाँ हमारी बीमा व्यवस्था सँभालेगी ?...विदेशी बैंक दनादन अपना जाल फैला रहे हैं। ये तो शेयर घोटाले में भी सबसे बड़े अपराधी पाए गए। इन्हीं के खातों से धन बाहर जाकर आसानी से लापता होता रहा।...मेरा ख्याल है, देश की अपनी बीमा कंपनियाँ पापड़ बेलने का काम करेंगी। यही फायदे का काम बचा रहेगा।’

‘कोका जैसे तीन दर्जन साम्राज्यों का नाम ही अमेरिकी साम्राज्य है। भारत में भी कोला युद्ध आरंभ हो गया।’
लोक-रुचि और सांस्कृतिक पक्षों पर विदेशी कंपनियों के हमले से उत्पन्न दुष्परिणामों को व्यंग्यकार ने इन स्वदेशी व्यंग्य में आड़े हाथों लिया है-‘मनमोहन सिंह की नीतियों का जैक्सन-लाभ और मैडोना-लाभ तो है ही, अब हॉलीवुड की मारधाड़ और हिंसाचार-यौनाचार से भरी फिल्में हिंदी में डब करके दिखाई जाएँगी। अनुबंध हो गया है। सचमुच सारे देश को इस दौर का स्वागत करना चाहिए।’ (आदाब जैक्सन-सलाम मैडोना)। सोए हुए जनमानस और दिग्भ्रिमित सरकारी नीति से घायल हुई स्वदेशी अस्मिता को देख मर्माहत व्यंग्यकार कथ्य उलटकर कहता है-‘इतना तो हम जानते ही हैं कि देशी देशी होती है-वह घटिया होती है, विदेशी की बात और है। कुछ लोग कहते हैं कि यह महज इन कंपनियों की लूट का जरिया होगा। सो, ये कंपनियाँ पानी पर उतर आई हैं। मगर हमारा पानी पहले ही भर चुका है (पानी का आयात)।’

हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को कुचलती फोटो पत्रकारिता के एक हमले को व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्य का विषय बनाया है। उसका शीर्षक है ‘मेजर का जूता।’ मैं इसे पढ़कर उस फोटो की याद में लौट गया था। मुझे याद आया-जॉन मेजर के जूते को खोलते या पहनाते उक्त कर्मचारी के सिर पर गांधी टोपी थी। यह व्यंग्य विषय की मजबूती और नए पन के कारण मुझे रोमांचित कर गया था। पता नहीं, इस विषय पर कितनी प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। पाठक इस व्यंग्य से लेखकीय दायित्व का अनुभव करेंगे और उस चोट का भी, जिसे भारतीय मन को झकझोरने के लिए लिखा गया। इस प्रकार अनेक लेख इस संग्रह में है, जो स्वदेशी मन पर हुए हमलों को निरस्त करते हैं।

इन व्यंग्य लेखों का संचयन इस आत्मविश्वास से किया गया है कि ये स्वदेशी आंदोलन के लिए निश्चय ही घृत-समिधा सिद्ध होंगे।
-प्रमोद कुमार दुबे

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