अमीर पानी और गरीब पानी - प्रो. विष्णु प्रकाश श्रीवास्तव

भारतीय बाजार में उतरने के बाद एक कोल्ड ड्रिंक कम्पनी की उच्च स्तरीय प्रबंध समिति ने अपने मूल मंत्र की घोषणा की–“हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है, पानी”। बात सीधी थी–गर्म देश में राह चलने वाले को पानी न मिले तो झक मारकर आदमी प्यास बुझाने के लिए कुछ भी लेगा, किसी भी कीमत पर लेगा। रणनीति बनी, योजनाएँ बनाई गई कि सार्वजनिक स्थानों पर पानी कम से कम मिले। सार्वजनिक स्थानों–बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों पर लगे नल सूखने लगे। जब गाड़ियों का समय होता तब विशेष रूप से नल बन्द रहने लगे। रेलों में, बसों में, विशेष रूप से नल बन्द रहने लगे। रेलों में, बसों में बोतलों की टनटनाहट और फेरीवालों की आवाज “कोल्ड ड्रिंक….कोल्ड ड्रिंक” तेज होती गई।
पेप्सी-कोक की प्रेत छाया के निशान देश के चप्पे-चप्पे पर छा गए। इन कंपनियों ने विज्ञापनबाजी, तरह तरह के इनामों तथा उत्सवों की स्पांसरशिप से नई संस्कृति को जन्म दिया, जिसमें पेप्सी-कोक निर्बाध मौज-मस्ती की जीवन शैली के प्रतीक बने। इस नए युग में पानी का ही नहीं, लस्सी, ठंडई, तरह तरह के शरबत और स्वास्थ्यवर्धक फलों के रस का स्थान मोटापा बढ़ाने वाले, दाँत और हड्डी गलाने वाले अल्कोहल युक्त पेप्सी और कोक ने ले लिया।फिर पानी की बदनामी होने लगी। जी हाँ, सार्वजनिक स्थानों पर उपलब्ध पानी की, नगर निगमों द्वारा वितरित पानी की, रेल प्रशासन द्वारा स्टेशनों पर उपलब्ध कराए गए पानी को गन्दा और पीने लायक न होने की बात फैलाई गई। रंगमंच पर पदार्पण हो रहा था पानी की बोतल का। जो कंपनियाँ कोल्ड ड्रिंक बेचने में सबसे मशहूर थीं–पानी बेचने की होड़ में लग गईं। पानी बेचने के लिए विज्ञापन में पानी की उपयोगिता बताने की जरूरत नहीं थी। बस इतनी जरूरत थी कि सरकारी पानी की शुद्धता पर संदेह का प्रचार-प्रसार किया जाए। जो लोग सामान्य से अलग, विशिष्ट दिखने की लालसा रखते हैं, स्टैण्डर्ड दिखाने के लिए मँहगे वस्त्राभूषण पहनते हैं, उन्हें पानी की बोतल थमा दी गई। उच्च-स्तरीय अधिकारियों की मीटिंग में मेज पर पानी की बोतलों की उपस्थिति आवश्यक बनाई गई। उच्च वर्ग में शादी आदि के आयोजन के अवसरों पर पानी बड़ी बोतलों में दिखने लगा। इन स्टैंडर्ड वाले लोगों में ज्यादातर लोग घरेलू जिन्दगी में सरकारी पानी ही पीते हैं, किन्तु अनजाने में जिस अंधेर नगरी की नींव पक्की हो रही है, उसमें –
कम्पनियों का है राज, विज्ञापन है ज्ञान।
दूध, कोक, पानी सबै, बिकै एक ही दाम।।
इस बात को साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि इस बोतलबन्द पानी के पीछे भारत की पेयजल की समस्या को हल करने की कोई मंशा नहीं है। इससे पानी को शुद्ध करके पीने का सामाजिक वातावरण बना हो, ऐसा भी नहीं है। उल्टे सार्वजनिक पानी की व्यवस्था में शुद्धता लाने के प्रयासों को घूस और कमीशन देकर रुकवाया जाता है, जिससे सार्वजनिक पानी की शुद्धता पर संदेह बढ़े और बोतल का पानी अधिक बिके।
एक बार आजादी बचाओ आन्दोलन की ओर से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गर्मियों के दिनों में यात्रियों को पानी पिलाने के काम में हिस्सा लेने का सुअवसर मिला और इसी बहाने रेल प्रशासन द्वारा यात्रियों के लिए पानी के इंतजाम को भी समझने का अवसर मिला। रेलवे के कई वरिष्ठ अधिकारियों से इस कार्य में सहयोग भी मिला और रेलवे के फिटर-प्लम्बर आदि कर्मचारियों ने तो पानी पिलाने के इस पुण्य कार्य में आगे बढ़कर हाथ बँटाया। यहाँ तक कि बहुत सारे स्कूली बच्चों ने भी उत्साह से इस अभियान में भाग लिया। कार्य के दौरान पता चला कि प्लेटफॉर्म नंबर एक को छोड़कर सारा पानी रेल प्रशासन द्वारा मंडावली के निकट स्थित रैनी बेल्स से लाया जा रहा है। जबकि प्लेटफॉर्म नंबर एक का पानी दिल्ली जल बोर्ड द्वारा दिया जाता है, जिसकी शुद्धता की नियमित जाँच कराई जाती है। इस अभियान के कारण बोतलबंद पानी और कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली कंपनियों के इशारे पर उस वर्ष नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पानी के नल बन्द नहीं कराए जा सके।
गाँधीजी ने एक बार ही पानी पीकर कुल्हड़ को तोड़ देने को मनुष्य के श्रम का अपमान बताया था। सन्त तिरुवल्लुवर ने साड़ी को नष्ट करके, पैसा देकर उसकी भरपाई करने वाले की मूर्खता की कथा सुनाई थी। पानी पीकर बोतल तोड़ते हुए जब लोगों को देखता हूँ तो लगता है कि गाँधी-तिरुवल्लुवर की गर्दन मरोड़ी जा रही है। एक लीटर पानी पीकर तीन रुपये की प्लास्टिक की बोतल तोड़ना यूज एंड थ्रो संस्कृति में ढालने का बेजोड़ उदाहरण है। रेलवे लाइन पर सभी जगह टूटी हुई प्लास्टिक की बोतलों की सजावट देखी जा सकती है। फटेहाल बच्चे इन बोतलों को उठाकर बेचने न ले जाते तो सुप्रीम कोर्ट को इस अम्बार की सफाई करने का आदेश रेलवे प्रशासन को देने के लिए मजबूर होना पड़ता। वैसे, वैष्णो देवी की यात्रा के रास्ते में टूटी प्लास्टिक की बोतलों का भक्तों द्वारा चढ़ाया जा रहा अम्बार यदि ऐसे ही बढ़ता रहा तो कुछ वर्षों बाद वैष्णो देवी यात्रा को भी बन्द करना पड़ेगा, जैसा कि फूलों की घाटी को बंद करना पडा था। ग्रीन पीस नामक संस्था की ओर से प्रकाशित एक पत्र “पेप्सी पल्युट्स द प्लैनेट” में बीसियों पोतों में भरकर अमेरिका की सड़कों का प्लास्टिक का कूड़ा भारत लाने का समाचार और तमिलनाडु में उससे बने पहाड़ों का चित्र देखने को मिला था। क्या हम उसी इंपोर्टेड प्लास्टिक से बनी बोतलों से पानी पीकर धन्य तो नहीं हो रहे?
“अरे, सारा पानी तो भाई पिए जा रहे हैं,…मेरे लिए कितना कम छोड़ा?” चीखते, शिकायत करते, लड़ते भाई-बहन देखे जा सकते हैं। खरीदी हुई बोतल की संस्कृति में साथी मुसाफिर या बच्चे को पानी के लिए पूछने की गुंजाइश कहाँ? घर में खरीदकर पानी पीने वाले नौकरों और सामान्य अतिथियों के लिए सरकारी पानी ही प्रयोग करते हैं। खरीदे हुए पानी को नौकर-चाकरों से बचाकर रखने की रणनीति अपनाई जाती है। यह उस देश का नजारा है, जहाँ पानी पिलाना, कुआँ, तालाब खुदवाना पुण्य कार्य समझा जाता था। यह धारणा फैलाई जा रही है कि शुद्ध पानी वह पिए जिसकी जेब में उसका दाम चुकाने की क्षमता हो। पहले सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के साथ भी यही किया गया। फलस्वरूप, अमीरों के स्कूल अलग और गरीबों के अलग, अमीरों के अस्पताल अलग और गरीबों के अस्पताल अलग हो गए। अब बँटवारा हो रहा है, अमीर का पानी और गरीब का पानी। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का बेड़ा गर्क कर दिया गया। पानी की उपलब्धता और शुद्धता के सामूहिक दायित्व से जो समाज हाथ खींच रहा है, वह यह जान ले कि पानी के धंधे से बढ़कर भ्रष्टाचार और कहीं नहीं है।
जिसकी जेब में दाम हो वह पानी पिए–इस दर्शन के पीछे विश्व बैंक की प्रस्तावित जल योजना है। पानी के निजीकरण से 40 करोड़ डॉलर के बाजार पर गिद्धों की निगाह है। भारतीय जीवन दर्शन पानी जैसी जीवन की अनिवार्य वस्तु को समाज की साझा संपत्ति मानता आया है, न कि निजी मुनाफे की वस्तु। पानी की बिक्री तथा नगर में पानी व्यवस्था के प्रबंध के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पानी जैसी अनिवार्य और दुर्लभ वस्तु पर अपना कब्जा जमा रही हैं। पानी की मिल्कियत को लेकर देश-देश में झगड़े शुरु हो गए हैं। कनाडा की प्रांतीय सरकार ने जन आक्रोश के दबाव में ब्रिटिश कोलम्बिया से पानी का निर्यात रोक दिया तो निर्यात करने वाली अमेरिका की सन बेल्ट वाटर कारपोरेशन ने कनाडा सरकार पर हर्जाने का मुकदमा ठोंक दिया। बोलिविया में पानी के बढ़ते दाम के खिलाफ जनता ने रास्ते जाम कर दिए। विशाल जनांदोलन के बाद उन्हें बैक्टेल कंपनी से मुक्ति मिल सकी। दक्षिण अफ्रीका में जल प्रबंधन तथा जल निकास सेवाओं को फ्रांसीसी कंपनी को दिए जाने के विरुद्ध संघर्ष जारी है। भारत में भी कई शहरों की जलापूर्ति व्यवस्था पर विदेशी कंपनियों ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया है।
(प्रो. श्रीवास्तव दिल्ली विश्वविद्यालय में गणित के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और आजादी बचाओ आंदोलन के दिल्ली संयोजक हैं।)
(साभार: नई आजादी उदघोष, अक्तूबर, 2001)

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