आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-1

राकेश दीवान

छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख शहर है राजनांदगांव, जो देश की शुरुआती कपड़ा मिलों में से एक 'बंगाल-नागपुर काटन मिल्स' (बीएनसी मिल्स) और उसी जमाने के संघर्षशील मजदूर यूनियन के कारण जाना जाता है। लेकिन वहां के चिमटा बजाकर भजन गाने वाले बैरागी राजाओं द्वारा बनवाया गया विशाल रानीसागर तालाब और शिवनाथ नदी से भाप के इंजन लगाकर लाए गए पानी और उसके वितरण के लिए बना इलाके का पहला 'वाटर वर्क्स' उतने प्रसिद्ध नहीं हैं।

इसी राजनांदगांव में वर्षों पहले बनी इलाके की पहली नगर पालिका ने ऐसे तीन फैसले लिए थे जिनका संबंध पानी या पानी के स्त्रोतों से था। 22 दिसंबर 1889 को हुई पहली, 2 फरवरी 1890 को हुई दूसरी और 2 जुलाई 1892 को हुई अपनी तीसरी बैठक के दौरान बनी एक समिति ने एक तो गंज के कुएं पर 153 रुपए आठ आने, अस्पताल के कुएं पर 405 रुपए और बाजार के कुएं पर 293 रुपए छह आने यानी कुल 851 रुपए 14 आने खर्च की रकम मंजूर की थी। दूसरे फैसले में गंज के तालाब में नहाने धोने की पाबंदी को हटा दिया गया था ताकि लोगों को इससे होने वाली परेशानियों से बचाया जाए। तीसरे फैसले में पुलिस महकमें को हर घर के सामने पानी से भरे दो घड़े रखवाने का आदेश दिया गया था ताकि आग लगने पर बुझाया जा सके। उन दिनों फायर ब्रिगेड जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी।

स्थानीय निकाय की इस जनहित की कार्यवाही के 64 साल बाद समाज ने भी पानी के प्रति ऐसा ही एक और सरोकार दिखाया था। 1954-55 में शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी बजरंग महाराज ने भरकापारा के तालाब की गंदगी से दुखी होकर आमरण अनशन की घोषणा की थी। सरकार या किसी स्थानीय निकाय की बजाय समाज को चेताने के लिए किया गया यह अनशन कुल तीन दिन चला था कि समाज ने तालाब की सफञई का काम उठा लिया।

पत्रकार और तब के युवा रमेश याज्ञिक बताते हैं कि पूरे शहर के गरीब-अमीर, जातियों के बंधन तोड़कर दो-दो घंटे तालाब पर स्वेच्छा से काम करते थे। कुछ ही दिनों में आज के बस स्टैंड के पास मौजूद भरकापारा तालाब अपने निर्माण के सौ सवा सौ साल बाद साफ कर दिया गया। पानी या प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सरोकार के ऐसे उदाहरणा दरअसल संपन्न समाजों के लक्षण हैं और संपन्नता सिर्फ पैसे धेले से नहीं नापी जाती।

इतिहास पर धूल को जरा सा झाड़कर देखें तो छत्तीसगढ़ में 'पर्वतदान' सरीखी परंपराएं आसानी से देखी जा सकती हैं। पर्वतदान यानी अच्छी फसल पकने पर धान के बड़े-बड़े पहाड़नुमा ढेर बनाकर उसके बीच सोना, चांदी पैसा आदि गुप्त रूप से रखकर दान करने की परंपराएं अभी कुछ साल पहले तक कई गांवों में आम बात थी। गतौरी, रतनपुरा, खैरा-
डगनिया, मुंगेली, ब्रम्हदा, मल्हार आदि कई गांवों में 'पर्वतदान' होते थे।

रतनपुर में तो अभी 1950-51 के साल तक 'पर्वतदान' किए गए थे। आज के कृपण मन को यह जानकारी चौंका सकता है। पर्वतदान करने वाले गांव आज भी विपन्न तो नहीं कहे जा सकते।

छत्तीस गढ़ों वाले छत्तीसगढ़ की इस संपन्नता का कारण जाहिर है घने, हरे भरे जंगल और धान पैदा कर पाने के लिए उत्तम जलवायु वाली धरती। असल में छत्तीसगढ़ भौगोलिक रूप से एक कटोरे के आकार का इलाका है। आसपास के पहाड़ों से घिरी और बीच में मैदान की तलहटी एक कटोरे का आकार बनाती है। छत्तीसगढ़ को, उत्तर में सतपुड़ा की ऊंची-नीची जमीनों के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियों का 80 से 100 मील लंबा मैदान और दक्षिण में बस्तर का पठार, इन तीनों भागों में बांटा जा सकता है। मैकल, रायगढ़ और सिहावा पहाडियों से घिरे तथा महानदी और उसकी सहायक शिवनाथ, मांड़, खारून, जोंक, हसदो आदि नदियों से सिंचित इस इलाके में औसतन साठ इंच वर्षा होती है। लगभग 51888 वर्गमील में फैला और दो करोड़ से अधिक आबादी वाला छत्तीसगढ़, रायगढ़, कोरबा, कवर्धा, जांजगीर, जशपुर, कोरिया, बिलासपुर, सरगुजा, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, धमतरी, महासमुंद, कांकेर, दंतेवाड़ा और बस्तर जिले में समाया है। पानी की व्यवस्था भी भूगोल की इसी बनावट के आधार पर हुई है।

पहाड़ों और उनके घने जंगलों के कारण बारहमासी नदियां-सोते भरे पड़े हैं। वहीं मैदानी क्षेत्रों में असंख्य तालाबों, डबरों का ताना-बाना रचा गया है। पहाड़ी इलाकों में हर कहीं पानी की इफरात है और लोग भी कम रहते हैं इसलिए आमतौर पर कोई पक्का ढांचा बनाकर उसे साल भर रखने का पुख्ता इंतजाम नहीं किया गया है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों को बरसात का पानी पूरे साल वापरना होता है और कभी-कभी मौसम की नाराजगी से ना गिरने वाले पानी की भरपाई भी करनी होती है। इसलिए यहां छोटे-बड़े कई तरह के तालाबों, डबरियों, बंधिया-बंधानों आदि की कारगर व्यवस्था की गई है।

क्रमश:
साभार- http://www.cgnet.in/W/Rakesh/rakeshdiwan1

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