पर्यावरणीय त्रासदी को न्योता देते मरुस्थल - अभिषेक कुमार सिंह

इस बार विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) के लिए संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण इकाई, यूनाइटेड नेशंस एनवायर्नमेंटल प्रोग्राम (यूनेप) द्वारा तय की गई थीम ‘डेजर्ट एंड डेजर्टिफिकेशन’ का नारा है डोंट डेजर्ट ड्रायलैंड्स। इसका मकसद पृथ्वी के 40 फीसदी हिस्से को ढकने वाले ड्रायलैंड्स की सुरक्षा के प्रति जागरूकता लाना और बढ़ते मरुस्थलीकरण पर रोक लगाना है। यानी आशय यह है कि ड्रायलैंड्स को रेगिस्तान में बदलने से रोका जाए, ताकि दुनिया में बढ़ते मरुस्थल एक पर्यावरणीय त्रासदी न बन सके।
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मूलतः यह समस्या मरुस्थलीकरण की है। समस्या सिर्फ इतनी नहीं है कि धरती पर पसरती रेतीली जमीन खेती योग्य जमीन के विलोपन की अहम वजह बन रही है, बल्कि यह भी है कि इस कारण लाखों लोगों को बेघऱबार होना पड़ रहा है और अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक विशेषज्ञ जफर आदिल ने चेतावनी दी है कि मरुस्थलीकरण अब एक वैश्विक समस्या बन चुका है और यह प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित कर रहा है। उनके अनुसार, शुष्क भूमि कही जाने वाली जमीन पर दुनिया के दो अरब लोग रहते हैं। इनमें ज्यादातर मरुस्थल सहारा (अफ्रीका) से लेकर मध्यपूर्व व मध्य एशिया में चीन तक फैले हुए हैं। इसके अलावा पूरे आस्ट्रेलिया को ड्रायलैंड कहा जाता है और पश्चिमी व दक्षिण अमेरिका तथा दक्षिण अफ्रीका में भी मरुस्थल अपने पांव पसारे हुए है। संयुक्त राष्ट्र अपनी एक रिपोर्ट में साफ कर चुका है कि इन इलाकों के 20 फीसदी हिस्से से पादप प्रजातियों का विलोपन हो चुका है और इस कारण इन जमीनों का कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं है, यानी इन पर खेती करना संभव नहीं है।
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ड्रायलैंड और डेजर्ट में एक फर्क है। ड्रायलैंड वह भूमि है, जिस पर खेती तो होती है, पर उसकी सिंचाई संभव नहीं है और वह पूरी तरह बारिश के पानी पर निर्भर है, जबकि डेजर्ट पूरी तरह रेतीले स्थल को कहते है, जहां खेती मुमकिन ही नहीं। दुनिया के 5.2 अरब हेक्टेयर ड्रायलैंड्स का उपयोग खेती के लिए हो रहा है, पर यूरेन के मुताबिक, इसका 69 फीसदी हिस्सा मरुस्थलीकरण की जद में है। यूनेप के आंकड़ों के अनुसार, अफ्रीका में खेती के लिए प्रयुक्त होने वाले 73 प्रतिशत ड्रायलैंड मरुस्थल में बदल चुके हैं, जबकि अमेरिका में यह 74 प्रतिशत है। उधर, संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाजेशन (एफ.ए.ओ) के मत में अगले तीस वर्षों में दुनिया में विश्व खाद्य उत्पादन में 75 फीसदी इजाफा जरूरी है, अन्यथा बड़ी आबादी के सामने भुखमरी का संकट उत्पन्न हो जाएगा। पर मरुस्थलों के फैलाव के चलते यह इजाफा संभव नहीं है। यूनेप के अनुसार, मरुस्थलीकरण के कारण हो रही आर्थिक नुकसान के कारण हर साल दुनिया भर को कुल 42 अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
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मरुस्थलीकरण बढ़ने का मुख्य कारण निर्विवाद रूप से ग्लोबल वार्मिंग को बताया जाता है, पर रेत के नए समंदर बनाने में मानव-गतिविधियों की भूमिका भी है। जैसे मवेशियों द्वारा अत्यधिक चराई कराना, सिंचाई के पानी का दुरुपयोग और बढ़ती आबादी के साथ जमीनों से ज्यादा उपज की मांग, जो उनकी सहनशक्ति से बाहर है। मरुस्थलीकरण के कारण पैदा होने वाले धूल के तूफानों (बवंडरों) का प्रहार और उनकी बारंबारता भी हाल के वर्षों में बढ़ गई है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा हो रही है। फैलते मरुस्थल महज पर्यावरणीय समस्याएं पैदा करके नहीं रह जाते, बल्कि इनके दूरगामी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं, जैसे विकासशील देशों में गरीबी का बढ़ता और शरणार्थियों की बड़ी संख्या का किसी अपेक्षाकृत संपन्न देश में बढ़ जाना। मानव पलायन की समस्या को मरुस्थलीकरण और गहरा कर रहा है। हालांकि यह कोई नहीं जानता कि एक स्थान से कुछ लोगों या समूहों का दूसरे स्थानों की ओर विस्थापन किस मूल वजह से हो रहा है, पर रेगिस्तानों का फैलाव लाखों लोगों को उनके मूल स्थानों से उजाड़ रहा है, इससे प्रायः हर कोई सहमत है। एक ठोस उदाहरण माली और बुर्किना फासो का है। मरुस्थलीकरण की वजह से वहां की कुल आबादी का छठा हिस्सा पलायन करके दूसरे देशों में चला गया है। मैक्सिको निवासियों के अमेरिका पलायन की असल वजह भी रेतीली जमीनों का प्रसार बताया जाता है। अनुपजाऊ हो गई जमीनें गरीबी बढ़ाती हैं, जिससे निजात पाने का इकलौता हल है पलायन। कुछ विचारकों के मत में मरुस्थलीकरण राजनीतिक अस्थिरता, भुखमरी और सोशल ब्रेकडाउन तक के लिए जिम्मेदार है।
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ऐसा नहीं है कि मरुस्थलीकरण को लेकर पहली बार विश्वव्यापी चिंता जताई जा रही हो। 17 जून, 1994 को पेरिस में संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में ‘कंवेंशन टू काम्बेट डेजर्टिफिकेशन’ नामक संधि की जा चुकी है, जो 1997 से प्रभावी हुई थी और जिसका मकसद मरुस्थलीकरण पर लगाम लगाना और सूखे के प्रभावों पर अंकुश लगाना है। हालांकि यह कंवेंशन अब भी वजूद में है, लेकिन जिस तरह से एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र ने विश्व पर्यावरण दिवस पर मरुस्थलीकरण से बचाव का नारा बुलंद किया है, उससे स्पष्ट है कि समस्या कम होने के बजाय और गहरी हो गई है।
अमर उजाला (देहरादून), 05 June 2006

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