पानी के बारे में समझ बढ़ाने वाली किताब

जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पानी आज आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। निजीकरण के नाम पर पानी को कैसे व्यापार की वस्तु बनाया जा रहा है, यह उद्धाटित करती है पुस्तक ''लेके रहेंगे अपना पानी''। इस पर सुरेश नौटियाल की टिप्पणी

दुनिया भर में सार्वजनिक जल और स्वच्छता की स्थिति को सुधारने और उसका विस्तार करने के लिए स्थानीय स्तर से लेकर विश्व स्तर तक क्या किए जाने की जरूरत है यह बताती है- ''लेके रहेंगे अपना पानी'' नामक पुस्तक।

नब्बे के दशक की विनाशकारी निजीकरण की लहर से यह स्पष्ट हो गया है कि गरीब जनता की पानी की जरूरतों को मुनाफाखोर, बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों में नहीं छोड़ा जाना चाहिए। दुनिया भर के नगरों में वैश्विक जल निगम स्थितियों को बेहतर बनाने के अपने वादे पूरे करने में नाकाम रहे हैं और इसकी जगह उन्होंने पानी पर शुल्क इतना ज्यादा बढ़ा दिया है कि उनकी अदायगी कर पाना गरीब परिवारों की सामर्थ्य से बाहर है। लेके रहेंगे अपना पानी दिखाती है कि पानी के निजीकरण और प्राय: अफसरशाही के शिकंजे में फंसी और प्रभावहीन राज्य संचालित जल सुविधाओं (जो जरूरतमंद होगों को साफ पानी दे पाने में विफल हैं) के आकर्षक और व्यावहारिक विकल्प मौजूद हैं।

सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के नवउदारवादी पूर्वग्रहों को चुनौती देते हुए यह पुस्तक इस संदर्भ में पूरी दुनिया से लिए गए ठोस उदाहरणों की व्यापक शृंखला प्रस्तुत करती है कि नागरिकों की भागीदारी के सुसमन्वित रूपों को अमल में लाकर जनतांत्रिक सेवा सुधारों के जरिए शहरी सार्वजनिक जलापूर्ति को कैसे सुधारा जा सकता है। यह निजीकरण विरोधी गठबंधनों के समृध्द अनुभवों और सार्वजनिक पानी की सक्रिय व्यवस्था के बारे में उनके नजरियों को भी सामने लाती है। लगभग 20 देशों के सार्वजनिक जल सुविधा प्रबंधकों, ट्रेड यूनियनों के लोगों और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं द्वारा लिखी गई यह पुस्तक ''लेके रहेंगे अपना पानी'' साझे अनुभवों के जरिये परस्पर सीखने की लगातार जारी वैश्विक प्रक्रिया का ही हिस्सा है।
पुस्तक का उद्देश्य वैश्विक जल विमर्श में इस तर्क को स्थान दिलाना है कि पानी का निजीकरण किसी समस्या का समाधान नहीं है। बेलेन बलान्या, ब्रिड ब्रेन्नन, ओलिवर हेडमान, सातोको किशिमोतो और फिलिप टेरहोर्स्ट जैसे लोगों द्वारा संपादित यह पुस्तक सार्वजनिक जल आपूर्ति के कई प्रेरक उदाहरण सामने रखती है। उदाहरण के लिए- ब्राजील के रिसाइफ में जन केंद्रित, जन भागीदारी वाले सार्वजनिक मॉडल से सबक सीखने की बात है। पुस्तक का केंद्रीय विषय और रूप लेखकों और बड़ी संख्या में सभागारों के साथ विचार विमर्श के माध्यम से तय हुआ है। पानी संबंधी विषयों को लेकर काम करने वालों के लिए यह पुस्तक स्रोत के तौर पर तैयार की गई है कि कैसे वे विभिन्न देशों में चल रहे पानी संबंधी आंदोलनों से सीख ले सकते हैं। यह बात भी उजागर होती है कि शहरों में पानी की समस्याओं का हल नागरिकों की सहभागिता से ही हो सकता है। पुस्तक में इस बात की चर्चा भी की गई है कि शहरी जलापूर्ति को लोकतांत्रिक सार्वजनिक सुविधा सुधारों के जरिए किस तरह बेहतर बनाया जा सकता है। पुस्तक का उद्देश्य जनतांत्रिक, न्यायपूर्ण और सार्वजनिक जल संसाधनों पर आम लोगों के अधिकारों की लड़ाई को ताकत देना भी है।

टीएनआई और सीईओ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक के हिंदी संस्करण को इंसाफ के लिए पीस ने जारी किया है, हिंदी अनुवाद वंदना मिश्र ने किया है, हालांकि अनुवाद में क्लिष्टता अधिक है और कई जगह आम पाठकों को समझने में दिक्कत होगी। इसके अलावा लेखकों के नाम भी सही तरीके से नहीं लिखे गए हैं। बहरहाल पोर्तोअलेग्रे, बोलिविया, भारत, मलेशिया, अमेरिका, जर्मनी, अजर्टीना, कोलम्बिया, ब्राजील, घाना, दक्षिण अफ्रीका, उरुग्वे, उक्रेन, स्लोवाकिया, फिलीपींस और मेक्सिको जैसे मुल्कों में पानी के निजीकरण और जल संकट को लेकर चल रहे संघर्षों की बानगी इस
पुस्तक में देखी जा सकती है। क्लिष्ट और कहीं-कहीं त्रुटिपूर्ण अनुवाद के बावजूद इस पुस्तक को पढ़ा जाना चाहिए। अंतत: इसका उद्देश्य आम आदमी को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना है।

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