निजीकरण असफल हुआ है -डेविड हॉल

यह भूमिका पुस्तक को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में रखने का प्रयास है। यह संदर्भ कुछ ऐसे अनुभवों और प्रतिक्रियाओं का सुनिश्चित समूह है जिसकी कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं: असफल निजीकरण, व्यापक रूप से फैले अभियान, सार्वजनिक क्षेत्र की कमजोरियों की समीक्षा तथा पहले के उत्तरी सार्वजनिक क्षेत्र के मॉडलों से सबक लेते हुए नयी संरचनाओं का उदय और नये, सहभागिता वाले लोकतंत्र के दक्षिणी रूप।

निजीकरण असफल हुआ है
1990 का दशक पानी के निजीकरण का दशक था। पानी के निजीकरण ने अपनी विफलता सिद्ध कर दी है। निजीकरण से अपेक्षा की गई थी कि यह अधिक कार्यकुशलता लायेगा और इसके कारण दाम कम होंगे, यह विशेषकर विकासशील देशों में बड़े स्तर पर पूंजीनिवेश को आकृष्ट करेगा, और उन गरीब लोगों तक पानी और सफाई सेवा पहुंचायेगा जिन्हें अभी ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। लेकिन वास्तविक अनुभव फर्क रहा है। 1990 के दशक में निजी जल कंपनियों के विस्तार को विश्व बैंक तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने विकासशील और संक्रमणकालीन देशों को अधिक बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्थाओं में रूपांतरित करने की नीतियों के अंग के रूप में समर्थन दिया था। पूर्वी यूरोप के संक्रमणकालीन देशों में इन कंपनियों ने जल रियायतों की एक लहर के साथ प्रवेश किया: चेक गणतंत्रऔर हंगरी मेंऋ लैटिन अमेरिका में विशेषकर अर्जेटीना में जहां कई प्रमुख शहरों का निजीकरण हो गया था, इसमें ब्यूनोज आयर्स में अगुअस-अर्जेंटीनास को दी गई जबर्दस्त रियायतें शामिल थीं. एशिया में (दो प्रमुख नगरों मनीला और जकार्ता के निजीकरण सहित) और अफ्रीका में जहां पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों में विशेषकर कोट देल वोयरे तथा दक्षिण अफ्रीका के कुछ कस्बों में रियायतें प्राप्त की गईं। हेग में सन् 2000 में विश्व जल मंच के आयोजन के समय तक विश्वबैंक के वरिष्ठ अधिकारी पानी के निजीकरण को ऐतिहासिक रूप से अपरिहार्य बता रहे थे और तर्क दे रहे थे कि ''इसका कोई विकल्प नहीं है''।

जलापूर्ति और सार्वजनिक सफाई व्यवस्था के निजीकरण ने विभिन्न रूप ग्रहण किए हैं लेकिन उनका एक तत्व समान रहा है-काम का नियंत्रण और प्रबंधन निजी कंपनियों को हस्तांतरित करना और इस प्रकार उन्हें निजी पूंजी के लिए मुनाफे का स्रोत बना देना। इंग्लैंड में जल व्यवस्था को पूरी तरह निजी कंपनियों के हाथ बेच देने की शुरुआत हुई लेकिन अन्य जगहों पर निजीकरण के जिस रूप को आगे बढ़ाया गया वह रियायतों, लीज, अथवा प्रबंधान अनुबंधों (अथवा जलशोधान संयंत्रया जलागारों के लिए विशेष प्रकार की रियायतें जिन्हें 'बिल्ड-आपरेट-ट्रांसफर' (बी-ओ-टी) यानी ''बनाओ-चलाओ-हस्तांतरित करो'' योजना कहा जाता है) के जरिये निजीकरण पर आधारित था। यह सुनिश्चित रूप निजी कंपनियों के आदेश पर चलता रहा है। 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में रियायतों का पक्ष लिया जाता था किंतु सन् 2000 से कंपनियां लीज या प्रबंधान अनुबंधों के कम जोखिम वाले विकल्प को प्राथमिकता देने लगी हैं। इनसे अलग जिन अन्य विषयों को प्राथमिकता दी गई उनमें सार्वजनिक प्राधिकरणों के साथ संयुक्त उद्यम शामिल हैं जिन्हें इस तरह गठित किया जाता है कि निजी साझीदार को मुनाफा पाने के लिए आवश्यक स्वतंत्रता मिली रहे और इसलिए इन पर निर्विवाद रूप से निजी साझीदार का नियंत्रण रहे। ''सार्वजनिक-निजी साझेदारियां'' (पी पी पी) और निजी क्षेत्र भागीदारी (पीएसपी) जैसी अन्य अभिव्यक्तियां निजीकरण शब्द के प्रयोग से बचती हैं क्योंकि ''निजीकरण'' की अवधारणा अलोकप्रिय बन गई है और इसकी अलोकप्रियता बढ़ती जा रही है लेकिन वे अब भी निजी क्षेत्र के साथ समान किस्म के संविदागत संबंध से जुड़ी हैं।

“लेके रहेंगे अपना पानी” से पाठ 5...............
वेब प्रस्तुति- मीनाक्षी अरोड़ा
साभार-इंसाफ

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