गंगा को जन-जन से जोड़ने की मुहिम

रवि टांक
प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, बांध और व्यवसायीकरण जैसे खतरे मां गंगा पर मंडरा रहे हैं। देश का जागरूक समाज चिंतित भी है और व्यथित भी परन्तु जब तक समाज इस विषय से नहीं जुड़ेगा तब तक मां गंगा के अस्तित्व की रक्षा करना संभव नहीं हो सकता है। इसी दृष्टि से एक फरवरी 2008 से छह मार्च के दरम्यान गंगासागर से गंगोत्री तक 'गंगा महासभा' द्वारा गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा का आयोजन किया जा रहा है।

गंगा हमारी संस्कृति भी है और प्रकृति भी। इसलिए गंगा को एक नदी मात्र नहीं माना जा सकता। बल्कि यह भारतवासियों की उपासना का केंद्र भी है। पर मां गंगा का अस्तित्व आज संकट में है। प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, बांध और व्यवसायीकरण जैसे खतरे मां गंगा पर मंडरा रहे हैं। देश का जागरूक समाज चिंतित भी है और व्यथित भी परन्तु जब तक समाज इस विषय से नहीं जुड़ेगा तब तक मां गंगा के अस्तित्व की रक्षा करना संभव नहीं हो सकता है। इसी दृष्टि से एक फरवरी 2008 से छह मार्च के दरम्यान गंगासागर से गंगोत्री तक 'गंगा महासभा' द्वारा गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा का आयोजन किया जा रहा है। इस आयोजन की औपचारिक घोषणा गंगा महासभा द्वारा दिसम्बर 2007 में प्रयाग में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में की गई थी।

इससे पूर्व सितम्बर 2006 में गंगा महासभा द्वारा हरिद्वार में हिमालय-गंगा मुक्ति चिन्तन शिविर आयोजित किया गया था। इस शिविर में गंगा की अविरल और निर्मल धारा एवं हिमालय को आतंकवाद से मुक्त कराने के संकल्प के साथ विभिन्न प्रस्तावों को मंजूरी दी गई थी। इसी शिविर में राष्ट्रीय गंगा मुक्ति अभियान समन्वय समिति के गठन का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। गंगा महासभा द्वारा 18 जनवरी 2007 को प्रयाग में चारों पीठों के शंकराचार्यों एवं समस्त आचार्य महामण्डलेश्वरों के सान्निधय में राष्ट्रीय गंगा मुक्ति सम्मेलन आयोजित किया गया था। जिसमें गंगा के अविरल प्रवाह को प्राप्त करने, प्रदूषण को रोकने एवं गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने जैसे प्रस्तावों को पारित किया गया था। इसी सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर यह भी निर्णय लिया गया कि यदि इन प्रस्तावों को अमल में नहीं लाया गया तो निर्णायक आंदोलन किया जायेगा। इसी दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए गंगा महासभा ने दिसम्बर 2007 में प्रयाग में एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में आंदोलन के स्वरूप के तौर पर गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा की रूपरेखा को स्पष्ट किया गया था। अब यह रूपरेखा कागजों और विचारों से निकलकर जमीनी रूप ले चुकी है।

गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा पहली फरवरी 2008 को गंगासागर से प्रारंभ होकर छह मार्च 2008 को गंगोत्री पर जाकर समाप्त होगी। यात्रा के स्वरूप पर नजर डालें तो कार्यक्रम बड़ा ही व्यवस्थित और नियमित है। गंगासागर से प्रारंभ होकर यह यात्रा गंगा के किनारों पर बसे विभिन्न नगरों से होते हुए गुजरेगी। गंगा के किनारे 35 प्रमुख स्थानों पर प्रतिदिन मां गंगा का षोडशोपचार पूजन किया जाएगा। इसके साथ हर विश्राम स्थल पर स्थानीय माताओं-बहनों द्वारा कलश यात्रा निकाली जाएगी। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर अन्य किसी कार्यक्रम, कथा, प्रवचन, मेला आदि का भी आयोजन किया जाएगा। मां गंगा की काशी एवं हरिद्वार की तरह भव्य आरती की जाएगी। यात्रा के दौरान विभिन्न स्थलों पर वर्तमान संकटों का प्रोजेक्टर द्वारा प्रदर्शन किया जाएगा। यात्रा का एक प्रमुख आकर्षण होगा विश्वविख्यात कलाकार सत्यनारायण मौर्य 'बाबा' द्वारा गंगे मातरम् की प्रस्तुति। यात्रा के दौरान रात्रि में तय स्थल पर विश्राम की व्यवस्था की गई है तथा प्रात: अगले स्थान से लिए चलने से पूर्व नगर के प्रमुख शिवालय में गंगोत्री के जल से शिवाभिषेक का कार्यक्रम भी यात्रा का एक प्रमुख अंग रहेगा।

यों तो यात्रा के आयोजन को एक आंदोलन माना जा सकता है। फिर भी यात्रा को आंदोलन के साथ-साथ जन-जागरण अभियान के रूप में भी देखा जा सकता है। वैसे यात्रा आयोजन के अनेक कारण हैं। इसी में एक टिहरी बांध में कैद मां गंगा को मुक्त कराकर उनकी अविरल और निर्मल धारा को प्राप्त करना भी है। वैसे तो हम जानते हैं कि गंगा मैया को बांधकर रखने का यह कार्य पहली बार नहीं हो रहा है। पृथ्वी पर आने से पूर्व ही गंगा को देवताओं ने रोकने का प्रयास किया था परन्तु तब भागीरथ की तपस्या से गंगा बंधनों से मुक्त हो पाई थी। आधुनिक समय में भी अंग्रेजों नें गंगा को कैद में रखने की कोशिश की थी परन्तु महामना मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में सन् 1916 में अंग्रेज सरकार को प्रबल जन आंदोलन का सामना करना पड़ा था। जिसके परिणामस्वरूप उसे समझौता करना पड़ा। 1916 के उस समझौते में दो बातें तय हुई थीं। पहला यह कि गंगा की अविरल, अविच्छिन्न धारा कभी रोकी नहीं जाएगी (अनु. 32, पैरा-1ध्द और दूसरा यह कि इस समझौते के विपरीत कोई भी कदम हिन्दू समाज से पूर्व परामर्श के बिना नहीं उठाया जाएगा (अनु. 32, पैरा-2ध्द। यह समझौता आज भी भारतीय संविधान की धारा-363 के अन्तर्गत सुरक्षित है। टिहरी बांध प्राधिकरण ने यह स्वीकार कर लिया है कि गंगा मशीनों से प्रवाहित की जा रही है। इससे यह प्रमाणित हो चुका है कि 1916 के समझौते का उल्लंघन हुआ है और साथ ही धारा 363 का भी उल्लंघन हो रहा है।

यहां 'टिहरी बांध से विकास या विनाश' विषय पर भी चर्चा आवश्यक है। टिहरी बांध परियोजना को बिजली बनाने के नाम पर शुरू किया गया था। यह कहा गया था कि इससे 1000 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाएगा। यहां उल्लेखनीय है कि अभी तक देश में कोई भी पनबिजली परियोजना पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाई है। टिहरी परियोजना भी 197 करोड़ की अनुमानित लागत से शुरू की गई थी लेकिन अब तक लगभग 8500 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो चुका है। और अभी तक यह परियोजना पूर्ण नहीं हुई है। वैज्ञानिक आकलन के अनुसार टिहरी ढलान परिक्षेत्र में होने के कारण यहां के जलाशय ऊंचे पर्वतों से आने वाली मिट्टी, बालू और चट्टानों से वक्त से पहले ही भर जाएंगे। कहने का अर्थ यह है कि यह बांध 30-32 वर्षों से ज्यादा नहीं चलेगा। 46 वर्ग कि.मी. में फैली झील के कारण लाखों पेड़ और दुर्लभ जड़ी-बूटियां समाप्त हो गई हैं। इस बांध ने हिमालय की अमूल्य वन सम्पदा को अत्यधिक हानि पहुंचाई है। इन सबके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण तथ्य पर नजर डालें तो पता चलता है कि टिहरी बांध हिमालय के उस हिस्से में है जो संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। अत: अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूकंप प्रभावित क्षेत्र में यह बांध कितना सुरक्षित है? चीन की सीमा से अत्यधिक निकट होने के कारण यह भी माना जा सकता है कि इस बांध से देश की सुरक्षा को भी खतरा है। वैश्विक आकलन यह तो साबित कर ही चुका है कि टिहरी बांध संवेदनशील भूकम्प क्षेत्र में है। अत: भूकम्प या युध्द की स्थिति में इस बांध के टूटने पर भयानक प्रलय होना तय है। कहना न होगा कि उस हालत में गंगा सुनामी लहरों को भी मात देगी। माना जाता है कि डेढ़ घंटे से भी कम समय में हरिद्वार पर 232 मी. उंची लहरे चलेंगी। और बुलंद शहर तक की आबादी बरबाद हो जाएगी। इस विनाश लीला की भयावहता का आकलन आसानी से किया जा सकता है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार यह भी माना जा रहा है कि गंगा का 72 प्रतिशत जल भूमिगत होता जा रहा है। इस रिसाव की मात्रा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि टिहरी बांध प्राधिकरण बिजली उत्पादन की समय सीमा को निरन्तर आगे बढ़ाता जा रहा है। इस प्रकार के तथ्यों से तो यही सिध्द होता है कि यह परियोजना न केवल असफल है बल्कि आने वाले समय में देश के लिए एक गंभीर खतरा भी है।

आज सम्पूर्ण विश्व पर ग्लोबल वार्मिंग के काले बादल मंडरा रहे हैं। गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा के उद्देश्य में यह तथ्य भी शामिल किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से पिघलते ग्लेशियरों को बचाने की मुहिम छेड़ी जाए। हम जानते हैं कि गंगा तटीय नगरों की अपनी एक विशिष्ट पहचान है और उनकी अपनी ही संस्कृति भी है। आज जब गंगा मैया को टिहरी में कैद कर दिया गया है तो संस्कृति को लेकर कई सवाल ऐसे हैं जो प्रत्येक भारतीय के मन में कौंधा रहे हैं। हमारी संस्कृति की भव्यता और सामाजिक समरसता का दर्शन कराते कुंभ के मेले गंगा के किनारे ही लगते हैं। कुंभ के मेले की परम्परा अनादि काल से चलती आ रही है। कुंभ को छोड़कर विश्व में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां 30 लाख से ज्यादा लोग एक साथ एकत्रित हो सकें। वर्ष 2001 में तो प्रयाग के महाकुंभ में सात करोड़ लोगों के एकत्र होने का विश्व रिकार्ड है। परन्तु इन कुंभ के मेलों का आधार रही मां गंगा ही जब नहीं रहेगी तो कहां लगेंगे ये कुंभ के मेले और कहां एकत्र होंगे इतने लोग? उसी के साथ यहां इस बात का भी उल्लेख करना होगा कि हम अपने पूर्वजों की अस्थियां गंगा में विसर्जित करते हैं। मां गंगा के लुप्त हो जाने की स्थिति में कहां होगा अस्थियों का विसर्जन? ऐसे ही अनेकों प्रश्न आज आम जनमानस की चिंता बढ़ा रहे हैं। बिहार का सर्वाधिक लोकप्रिय छठ पर्व गंगा के किनारे ही मनाया जाता है और जब टिहरी से आगे मां गंगा की धारा उपलब्धा ही नहीं होगी तो बिहार में कहां मनेगा छठ पर्व? इस प्रकार जब संस्कृति के उत्सव ही नहीं बचेंगे तो संसकृति कहां बचेगी? गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा गंगा जल की अद्वितीय विशेषता की रक्षा के लिए एवं इसके व्यवसायीकरण को रोकने के लक्ष्य को लेकर भी आयोजित की जा रही है। वैज्ञानिकों ने यह तो सिध्द कर ही दिया है कि गंगा के जल में आक्सीजन की मात्रा अत्यधिक होने और इसमें कुछ विशिष्ट जीवाणुओं के मौजूद होने के कारण यह अत्यधिक विशिष्ट है। इसके जल में कीड़े भी नहीं पड़ते हैं और यदि पड़ते भी हैं तो इसके जल में उन्हें दूर करने की क्षमता है जो कि अन्य नदियों में नहीं पाई जाती है। इन्हीं कारणों से गंगाजल को पूर्वजों ने औषधि माना था। हम जानते हैं कि गंगा को इसके जल के व्यवसायीकरण से भी खतरा उत्पन्न हुआ है। आज वैश्वीकरण के दौर में विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में आई हैं। ये कम्पनियां गंगाजल का उपयोग बोतल बंद जल उद्योग स्थापित करने में कर रही हैं। इसी प्रकार अन्य उद्योग भी स्थापित किए जा रहे हैं जिनमें गंगा जल का दुरूपयोग हो रहा है। इसके अतिरिक्त आज गंगा भयंकर प्रदूषण की चपेट में भी है। गंगोत्री से गोमुख तक पर्यटकों की भारी भीड़ के कारण इसके किनारे जैविक-अजैविक कूड़े के ढेर प्राय: मिल जाते हैं। इसके फलस्वरूप हिम क्षेत्र के वातावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। साथ ही गंगोत्री ग्लेशियर भी पीछे खिसकता जा रहा है। एक अधययन के मुताबिक गंगोत्री ग्लेश्यिर 2.5 किमी. पीछे खिसक चुका है। यदि यही रफ्रतार रही तो आने वाले 40 वर्षों में ग्लेशियर समाप्त हो जाएगा और मां गंगा भी सरस्वती की तरह लुप्त हो जाएंगी।

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि यह यात्रा देशभर में गंगा पर छाये इन संकटो के निदान के लिए काम करने वाले लोगों और संगठनों की असरदार आवाज बनने जा रही है। गंगा महासभा को विभिन्न लोगों और संगठनों से मिल रहे सहयोग को देखकर यह बात और फख्ता हो जाती है। गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा के आयोजकों के मुताबिक उन्हें राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, हिमालय परिवार, भारत भक्ति संस्थान, भारत सेवाश्रम संघ, इस्कान और गायत्री परिवार समेत कई संगठनों का सहयोग मिल रहा है। देश के शंकराचार्यों के संरक्षण में निकल रही इस यात्रा को प्रमुख धर्मगुरुओं, आंदोलनकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी समर्थन मिल रहा है।
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