काम करने के पहले जानना जरूरी है
डा. जितेन्द्र कुमार बजाज (सेन्टर फार पालिसी स्टडीज)
हमारी धारणाएं हमेशा सही नहीं होतीं। इसलिए हमें किसी क्षेत्र के बारे में कार्ययोजना बनाने के पहले उसे जानना बहुत जरूरी है। धर्मपाल जी की प्रेरणा से हमने भारत के जिलों का अधययन करने का निश्चय किया। एक ऐसा अधययन जो अंग्रेजों की दृष्टि से नहीं बल्कि अपनी भारतीय दृष्टि से हो। हमने अपना काम झाबुआ में शुरू किया।
प्रख्यात चिंतक धर्मपाल जी कहा करते थे कि देश को चलाने का औजार गांव और गांव के आस-पास का चरित्र है। उनके निर्देशन में हमने एक जिले को समझने का प्रयास किया था। दक्षिण का एक जिला है चिंगलपेट। वहां अंग्रेजों ने 18वीं शताब्दी में एक सर्वेक्षण किया था। वे हर गांव में गये थे। गांव का घर कैसा है, घर के सामने की गली कितनी चौड़ी है, गांव के लोग कैसे हैं, खेत मे सिंचाई कैसे होती है, उत्पादन कैसे होता है और फिर जो उत्पादन होता है उसका बंटवारा कैसे होता है। इस सबका उन्होंने सर्वेक्षण किया था। उस सर्वेक्षण को हमने धर्मपाल जी के निर्देशन में पूरा संकलित किया। उन गांवों में फिर से हम गए और देखा कि उन गांवों में भारत के पारंपरिक विज्ञान का पूरा दृश्य दिखता है।
चिंगलपेट की बात अठारहवीं सदी की है। उस समय वह अत्यन्त समृध्द था। वहां प्रति व्यक्ति 800 किलोग्राम अनाज उत्पादन होता था और आज हम इतना सब कुछ करने के बाद भी अनाज का उत्पादन 200 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति से उफपर नहीं कर पा रहे हैं। लोगों की सोच है कि भारत में बहुत सी जाति के लोग रहते हैं और बड़ी जातियां छोटी जातियों पर अत्याचार करती थीं। पर यह धारणा भी गलत है। अंग्रेजों के सर्वेक्षण में उत्पादन के बंटवारे में असंतुलन नहीं दिखता है। गांव के घरों में भी काफी समानता थी। हम आज यह मानते हैं कि हमारे गांव साफ नहीं होते थे और वहां योजनाबध्द तरीके से काम नहीं होता था। लेकिन चिंगलपेट का सर्वेक्षण कुछ और ही कहता है। वहां के गांव ऐसे हैं कि उनकी हर गली सबसे आदर्श कोण पर बनी है। उसे 10 डिग्री भी इधर से उधार करने पर समस्या उत्पन्न हो जाती। सिंचाई की व्यवस्था को देखकर लगा जैसे वहां के लोगों ने अपनी जमीन के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण किया हो। कहां ऊंचा है, कहां नीचा है उसका पूर्ण ज्ञान लोगों को था। उस समय जमीन की ढलान के अनुसार जहां-जहां तालाब की आवश्यकता थी, गुंजाइश थी, वहां-वहां लोगों ने तालाब बना लिया था। इस तरह कहा जा सकता है कि वहां के लोग अपने स्थान के बारे में पूरी जानकारी रखते थे। आज हालात यह है कि हमारे नेता और अफसर दिल्ली में या राज्यों की राजधानी में बैठकर योजना बना देते हैं जबकि उन्हें जमीनी परिस्थिति की न के बराबर जानकारी होती है। धर्मपाल जी हमसे कहा करते थे कि जिस तरह चिंगलपेट का अध्ययन हुआ, वैसा अध्ययन देश के सभी जिलों का होना चाहिए। यह बहुत बड़ा काम है।
अंग्रेजों ने गजट तैयार किया था। चिंगलपेट में सबसे पहले अंग्रेजों ने कलेक्टर बैठाया। उसके बाद ही अन्य जिलों में कलेक्टर बैठाए गए। कलेक्टर ने आकर पहला काम लोगों की सत्ता का पूर्ण विनाश करने का किया। अंग्रेजों ने यह तय किया कि जो व्यवस्था लोग खुद करते हैं वो ये खुद न करें बल्कि उसे हम करेंगे। जो पैसा ये लगाते हैं वह हमारे पास आये। इसका नतीजा यह हुआ कि 10 साल के अन्दर चिंगलपेट जिला के कलेक्टर ने अपनी रिपोर्ट भेजी और अपने अफसरों को बताया कि अब यहां के लोग काम नहीं करना चाहते हैं और वे पलायन कर रहे हैं। यह इसलिए हुआ क्योंकि लोक व्यवस्था कलेक्टर के हाथ में आ गयी थी। यही व्यवस्था आज भी चल रही है। चिंगलपेट के कलेक्टर का जो अधिकार उस समय था, वही आज भी है। उसका अधिकार घटा नहीं है, बल्कि बढ़ा ही है। आजादी के बाद गांवों को कुछ अधिाकार देने की बात की गई, लेकिन कितना अधिकार दिया गया, यह हम सभी जानते हैं।
धर्मपाल जी की प्रेरणा से हमने भारत के जिलों का अधययन करने का निश्चय किया। एक ऐसा अधययन जो अंग्रेजों की दृष्टि से नहीं बल्कि अपनी भारतीय दृष्टि से हो। हमने अपना काम झाबुआ में शुरू किया। झाबुआ की विशेषता है कि वह मैदानी इलाका नहीं है। वहां की जमीन पथरीली है। फिर भी खेती हो सकती है। वहां की जमीन में कम से कम 5-10 डिग्री की ढलान हर जगह है। वहां के मुख्य निवासी भील हैं। उनके बीच ऐसी मान्यता है कि जब पहले भील ने जन्म लिया था तो महादेव ने कहा कि जब तक तुम खेती करोगे तब तक तुम्हारा अस्तित्व बचा रहेगा। वहीं अंग्रेजों ने लिखा है कि भीलों को खेती करनी नहीं आती है। अंग्रेजों की बात पर विश्वास करके हमारे लोगों ने भी मान लिया कि झाबुआ के लोग खेती कर ही नहीं सकते। कई बार मैंने अधिाकारियों को समझाने की कोशिश की, लेकिन हर बार असफल रहा। झाबुआ में 800 मिलीलीटर प्रतिवर्ष वर्षा होती है। यह पर्याप्त है, यदि इसका सदुपयोग हो। देश की औसत वर्षा 1000 मिलीलीटर है। संसार के बहुत कम क्षेत्रेंमें इतनी वर्षा होती है। यदि वर्षा जल का ठीक से उपयोग करना है तो पानी की व्यवस्था को पूरे देश में सही करना जरूरी है। महाभारत और रामायण काल से ही देखने में आया है कि राजा या प्रजा को पानी की व्यवस्था करनी ही पड़ती थी। जहां सिंचाई की व्यवस्था नहीं होगी वहां खुशहाली नहीं हो सकती। रामायण में जब भरत चित्रकूट जाते हैं, राम जी से मिलने तो उनसे कई सवाल किए जाते हैं। जैसे कुएं सूखे तो नहीं हैं, तालाब में पानी तो है न और बैल ठीक-ठाक हैं क्या। ऐसे ही युधिष्ठिर से भी प्रश्न पूछे जाते हैं, जब वे महाभारत युध्द के बाद भीष्म पितामह से मिलने जाते हैं। झाबुआ की सभी सीमाओं पर कोई न कोई नदी बहती है। उफपर माही, नीचे नर्मदा बहती है और बीच में भी नदी बहती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि इनमें 12 मास पानी रहता है। झाबुआ पर शोध करने वाले भी मानते हैं कि यहां की नदियां पूरे साल बहती हैं।
झाबुआ में बहुत सारे तालाब हैं। जैसा चिंगलपेट में देखा गया था उसी प्रकार का झाबुआ में भी है, यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। झाबुआ के बारे में एक लोककथा है। वहां की एक नायिका रही है जसमा। कहा यहां तक जाता है कि जसमा के पिता राजा थे। उन्होंने पानी का अच्छे ढंग से प्रबंध नहीं किया तो जसमा अपने पिता को छोड़कर चली गई थी। उसने एक सेना तैयार की और जहां-जहां लोगों को पानी की जरूरत होती वहां जसमा अपनी सेना के साथ पहुंचती और जाकर तालाब और साथ में मंदिर बना देती थी। भीलों की मान्यता है कि झाबुआ के अधिकतर तालाब जसमा माता ने बनाए हैं। मैंने वहां 16 वीं सदी, 17वीं सदी और आज के भी बने तालाब को देखा है। सब समय के तालाब वहां मिलते हैं। मुझे लगता है कि देश के सभी जिलों में पानी की जो व्यवस्था की गई थी उसका विशेष रूप से संकलन करना चाहिए।
झाबुआ की आबादी में महिलाएं फरुषों के बराबर ही हैं। यहां के 97 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं, लेकिन हिन्दू हैं। यह महत्वपूर्ण है। 1991 में वहां ईसाई नहीं थे। लेकिन अब वहां तीन प्रतिशत ईसाई हैं। वहां अधिकतर जोतें छोटी हैं। बहुत कम जोतें एक एकड़ की हैं। यहां 55 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है। अनेक तहसीलें ऐसी हैं जहां 70 प्रतिशत जमीन पर खेती होती है। यह भी भारत की विशेषता है कि पहाड़ी क्षेत्र में 50 प्रतिशत और मैदानों में 90 प्रतिशत जमीन पर खेती होती है। कोई जगह यहां खाली या बेकार नहीं है, जहां सेज बनाया जा सके।
झाबुआ मे पहले घना जंगल हुआ करता था। अब जंगल लगभग कट गए हैं। वहां के पहाड़ अब पहले की तरह हरे-भरे नहीं दिखाई देते। यहां जंगल नहीं होने का नतीजा यह हुआ है कि मिट्टी बहने लगी है। झाबुआ में बहुत जगह ऐसा हुआ है। वहां यह समस्या बढ़ रही है। झाबुआ में प्रति परिवार दो गाय या भैंस हैं। जोतने के लिए एक जोड़ी बैल है। देश में बहुत कम ऐसे क्षेत्र हैं जहां जोत के लिए कोई जानवर हो। तीन-चार बकरी भी झाबुआ के प्रत्येक परिवार में मिल जाती है। यानि प्रत्येक परिवार में लगभग सात पशु हैं। भील अपने घरों में पशुओं के साथ ही रहते हैं। यदि आप भील की तस्वीर लेना चाहें तो उसके साथ पशु जरूर दिखेंगे।
देश के अधिकतर हिस्सों में नकदी फसल बोने का रिवाज बढ़ रहा है। दलहन की जगह कपास आदि उपजाया जाने लगा है। इस कारण अनाज और दलहन की उपज कम होने लगी है। झाबुआ में ऐसी स्थिति नहीं है। वहां 75 प्रतिशत भूमि पर लोग दलहन उगाते हैं। वहां कपास और सोयाबीन बहुत कम उगाया जाता है। वहां की भूमि इतनी कठोर है कि बैल से जुताई करना मुश्किल है। पानी निकालना भी आसान नहीं है। फिर भी वहां के भील खेती करते हैं और बेहतर खेती करते हैं।
(प्रस्तुति : गुंजन कुमार)