गंगा की उपस्थिति

गंगा की उपस्थिति

मन का मृगछौना कुलाँचे पर कुलाँचे भरता रहा । उमंग के हिलकोरों के सम्मुख निद्रादेवी की दशा लगभग ऐसी थी, जैसे ज्वार ने सुमद्र तट पर बिखरी रंग-बिरंगी सीपियों को दूर भँवर मे ले जाकर डूबो दिया हो । रात भर जागता रहा मैं, जगाती रही गंगा की पुण्य-छवियाँ । पिताजी के अस्थि-प्रवाह के लिए हमें कल भोर से ही प्रस्थान करना है ।
गोकर्ण तीर्थ का पावन प्रदेश, पंचाग्नि आहारी भगीरथ की जर्जर देह, ऊर्ध्वबाहु आसन में सहस्त्रवर्ष की दु:साध्य साधना चरमोत्कर्ष पर । भगीरथ के मन के पाँचों कक्षों में केवल एक ही संकल्प की व्याप्ति - श्रापित पितृपुरुषों की मुक्ति ! अंतत: प्रमुदित ब्रह्मा का आशीर्वचन । एक संकट तथापि गंगा को कौन धारण करे ? आशुतोष के रहते संकट! औघड़दानी के रहते संकट !!
प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम्
शिरसा धारयिष्यामि शैलराज सुतामहम्
(वाल्मीकि रामायण अध्याय 43/3)
दुर्धर गंगा आकाश से पृथ्वीलोक की ओर चल पड़ी । जाने क्यों जटाधारी शंकर को कौतुक सूझा । गंगा उनके जटा-जाल में उलझ गई । कहीं से कोई पथ नहीं । इधर गंगा व्याकुल, उधर भगीरथ । व्याकुलता ज्यों-ज्यों अपनी परिधि लांघती जाती थी भगीरथ-आस्था त्यों-त्यों अपनी जड़ें फैलाती जाती थीं । ऐसे ही कोई भगीरथ नहीं बन जाता ! मन का शंख गूँज उठा - 'मेरे पुरखो ! धीरज धरो । तप की अनुप्रेरणा मुझमें अभी शेष है ।'

शंकर जैसा सरल कौन? शंकर जैसा सरस कौन? रीझे तो मनचाहा, खीझे तो मनमाना । भाँग-धतूरे का नशा किंचित संकुचित हुआ तो गंगा को छटपटाते देख वे भाव-विह्वल हो उठे । उन्होंने गंगा को बिन्दुसरोवर में ले जाकर मुक्त कर दिया । मुट्ठी से छूटते ही गंगा की सप्तधाराएँ कल-कल, छल-छल । पावनी, नलिनी और ह्लादिनी ने पूर्वोन्मुख होना उचित समझा । सीता, सुचक्षु और महानदी पश्चिम की ओर उमड़ पड़ीं । सातवीं धारा भगीरथ के पीछे-पीछे । पृथ्वी के भाग जाग उठे थे । चतुर्दिक् मंगल गान। सर्वत्र उल्लसित मन-प्राण ।
शुभ और अशुभ का द्वंद्व चलता ही रहता है । एकाएक गंगा-पथ में महामना जह्नु की यज्ञशाला आ पड़ी । उमड़ती धारा में जह्नु यज्ञमंडप सहित बहने लगे । जह्नु की राजसी ज्वाला भड़क उठी । उन्होंने समूची गंगा को पी लिया । मानो गंगा जलतर्पण में अंजुरि भर आचमन हो । मानो गंगा होमोपरांत पात्र का शेष घृत हो । मानो वह आम्रपत्र की नोक से निथरता पंचामृत हो । चारों ओर त्राहि-त्राहि । तब राजे-महराजों की द्रवण -शक्ति हुआ करती थी । वे प्रजातंत्र के अगुवों जैसे नहीं थे । लोहे की पेटी में जनमने वालों से संवेदना की आशा भी कैसे की जा सकती है ! उन्होंने गंगा को कर्णद्वार से विमुक्त कर दिया । अब गंगा जाह्नवी हो गई । भगीरथ का रथ फिर आगे-आगे, गंगा पीछे-पीछे ।

भगीरथ-प्रयास अब सिध्दि में रूपायित हो रहा था । सगर के साठ हजार पुत्रों का भस्म देखकर भगीरथ की ऑंखें छलछला उठीं । क्या उस वक्त उनके नयन-कोरों से झर कर कुछ अश्रुबिन्दु अर्घ्यदान में जा नही मिली होंगी ? क्या उस वक्त पुरखों ने उन्हें गंगाजल की पवित्रता से कम ऑंका होगा ? भगीरथ के लिए कितने आशीष गूँज उठे होंगे ! पूत की सार्थकता पर अनगिनत छंद नहीं ध्वनित हुए होंगे !
चाँदनी से भरे ऑंगन में खाट पर लेटे-लेटे आकाश पर सजे-धजे तारों को एकाएक गिनना प्रारम्भ कर देता हूँ । अभी सौ-सवा सौ तारों को ही गिन पाया हूँ कि मन आकाश-गंगा में उलझने लगता है । अपने से प्रश्न करने लगता हूँ-'सचमुच आकाश में भी कोई गंगा है या यह कोई खगोलीय अवधारणा मात्र है ? क्या देवों ने कुछ धारायें नजर बचा कर अपने लिए सुरक्षित तो नहीं कर लीं ? शायद ऐसा न हो । हो तो भी क्या? गंगा जब तक हमारी पृथ्वी में बहती रहेगी, हमें देव-कोप से क्या डरना? देव भी न रहें, देवार्चन हो न हो, रिक्तता कहाँ, न्यूनता कहाँ ? बस ! गंगा प्रवाहित भर होती रहे ।' गंगा देवताओं की माँ जो है । माँ की प्रसन्नता के बाद संकट कहाँ रह पाता है ! माँ की अर्चना से जीवन भर-भर उठता है, मन-प्राण व्यापक हो जाता है । और मन-प्राण की व्यापकता के पश्चात् मानव-जीवन में अतिरिक्त सिध्दि शेष नहीं रह जाती ।
सोचते-विचारते न जाने कैसे मेरे समक्ष जगन्नाथराय का महाप्रयाण आकार लेने लगा है -
विधत्तां नि: शंक निरवधि समाधिं विधिरहो
सुख शेषे शेताम् हरिरविरतं नृत्यतु हर: ।
कृतं प्रायश्चितैरलमथ तपोदानयजनै:
सावित्री कामानां यदि जगति जागर्तिजननी (श्री गंगालहरी / 23)

बादशाह शाहजहाँ की विद्वतसभा के शिरोमणि जगन्नाथराय परकुल की रमणीया से विवाह के कारण पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहे हैं । आज समूचे बाह्मण कुल ने उन्हें अपांक्तेय कर रखा है । निराश कविराज गंगातट पर गंगा स्तवन कर रहे हैं । श्री गंगालहरी के छंदों के साथ गंगा एक-एक सीढ़ी उमगती चली आ रही है । अभी अड़तालीस शिखरिणी श्लोक पूरे हो चुके हैं और गंगा भी अड़तालीस पग जगन्नाथ राय की ओर बढ़ा चुकी है । 'पृथ्वी', 'शार्दूल विक्रीडित', 'स्रग्धरा' और फिर 'उपजाति' जैसी अंतिम छांदिक अर्भ्यथना के साथ ममतामयी गंगा ने पंडित जी को अपने में विलीन कर लिया । जगन्नाथ गंगामय हो उठे हैं और गंगा जगन्नाथमय । पतितपावनी की लहरें अब भी रह-रह कर उठ रही हैं । जैसे वे कह रही हों, दुनिया की सारी आधि-व्याधि, पाप-पुण्य, मान-अपमान, गुण-दोष से विमुक्ति का नाम ही गंगा है ।
गंगा स्वयं मातृबोध है । माँ के ऑंचल में वह शीतलता है जहाँ सारे ताप शिथिल हो जाते हैं । गंगा इसी शीतलता की पर्याय है । वह समूचे जग की माँ है । क्यों न हो वह जगन्माता ? उसमें जगध्दात्री सीता का अखंडित एवं अनन्य विश्वास भी प्रवहमान जो है -
सिय सुरसरिहि कहेऊ कर जोरी
मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ।
पति देवर सँग कुसल बहोरी
आई करौं जेहि पूजा तोरी ॥ (अयोध्याकांड 102/1-2)

जैसे फिल्म के किसी रील पर दूसरे रील के शेड्स उभरने लगते हैं, मेरे भीतर भी एक और कथा बिंब उभरने लगा है- निषादराज राम,लक्ष्मण और सीता को उस पार पहँचा कर विदा ले चुके हैं । गंगा तट की रेत पर तीनों करबध्द मुद्रा में खड़े हैं । क्षण भर बाद दोनों भाई आगे चलने के लिए सीता की ओर निहारते हैं - तो उन्हें ध्यानस्थ पाते हैं। राम मन ही मन सीता की मनौती पर विहँस उठते हैं - 'जब तक नारी रहेगी तब तक परिवार के कुशल-क्षेम की मनौतियाँ भी होती रहेंगी ।' वह नारी ही है, जिसके समर्पण से परिवार अंकुरित होता है, पल्लवित-पुष्पित होता है । नारी नहीं तो घर परिवार नहीं । परिवार नहीं तो जीवन कहाँ ? जीवन में उल्लास कहाँ ? नारी-मन के सान्निध्य से अरण्य भी राजधानी बन जाता है । जब तक इस धरा पर सीता रहेंगी, अयोध्या के ऑंगन में हँसते-खेलते परिवारों की निरन्तरता बनी रहेगी । जब तक अंतस् में गंगा की एकाध बूंद बची रहेगी, उजड़े परिवार के फिर से सँवरने का आशीर्वाद सीता को मिलता रहेगा -
प्राणनाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ
पुजिहि सब मनकामना सुजहु रहिहि जग छाइ ।
(अयोध्याकांड -103)

गंगा भू-सुता सीता को ही नहीं, सीता संतानों को भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुयश बाँटती रही है । गंगा जब पुलकित होती है, धरती शस्य श्यामला हो उठती है । गेहूँ, मकई, जौ, बाजरा के नन्हे-नन्हें पौधों की खिलखिलाहट अक्षितिज तरंगित हो उठती है। कृषकों का मुखमंडल रक्ताभ हो उठता है, खलिहान निहाल हो उठते हैं । लोकमन का उल्लास छलकने लगता है । मन-प्राण की बाँसुरी बज उठती है । ऐसे में गंगा की कृतार्थता को जगजाहिर करने लोक रागिनी गूँज-गँज उठती है । यह लोक का कृतज्ञता- ज्ञापन है । सच्चा लोक अनुदार नहीं होता । वस्तुत: कृतज्ञता ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें भाषा बाधक नहीं अपितु साधक बन जाया करती है । गंगा से दूर बसे मेरे अपने अंचल को एक गहरा विश्वास है, वह यह कि अच्छे मालिक का आसरा गंगा का आसरा जैसा होता है-
रुख काटे रूख मिले, भुंइके मिले अगास
ठाकुर ठाकुराइन बने मिले, गंगा चले अकास ।
या फिर -
किरिया जो खावो गंगा के संगी, तब मोला होहे बिसवास हो
अतका सुने ढोला लाल मोर, गंगाजल लेवथे उठाय हो
गंगा-जल उचावत रेबा जो देखे, मन ही मन मुस्काय हो ।

गंगा-तट सृजन मंच है ।
ब्रह्मांड का सृष्टि केंद्र 'ब्रह्मर्वत्त' को कहा गया है । आख्यानों में ब्रह्मा द्वारा संसार को रचे जाने के अनगिनत प्रसंग आये हैं । ब्रह्मावर्त्त को बिठुर में अवस्थित माना जाता है, जो गंगा कुल पर बसा है । गंगा हमारी सनातन संस्कृति की अनन्य साक्षी रही है । मणिकर्णिका घाट पर राजा हरिश्चन्द्र की याद में वह स्तब्ध हो जाती है । दशाश्वमेघ घाट की ओर जब वह निहारती है तो पुष्यमित्र शुंग का धर्म-विजय-पर्व झिलमिला उठता है । उधर कानपुर में जब वह एक बार उफन पड़ी थी तो बिठूर भी तमतमा उठा था । नाना साहब और लक्ष्मीबाई से अठारह सौ सत्तावन की क्रांति का सूत्रपात क राकर ब्रिटिश साम्राज्य के किले को ढहाने के पुण्य कर्म में गंगा जल की ऊर्जा को कैसे कोई भारतीय बिसार सकता है ! यह नये भारत का सृजन ही था।

गंगा का तट शिवजी का भी डेरा है । सदियाँ बदलती चली गईं, परिस्थितियाँ बदलती चली गईं, कदाचित् लोग भी बदलते चले गये, नहीं बदली तो गंगा । गंगा न बदले तो शिव भला कैसे बदलेंगे । गंगा घाट से दूर नहीं जाती, शिव भी तट से दूर नहीं जाते । लगता है ज्येष्ठ भ्राता कृष्ण के उस परम सत्य को शिव ने मन में बीज मंत्र की तरह बैठा लिया हो,जो उन्होंने भगवद्गीता में कहा है - 'स्रोतसामस्मि जाह्नवी' (मैं धाराओं में गंगा हूँ ।) जिस गंगा से ब्रह्मा और शिव विलग होना नहीं चाहते, उस गंगा से मझले विष्णु क्यों भला विलग होने लगे । पद्म पुराण (सृष्टि खंड, 60)में आया है-विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का ।
उछाह- मंगल, आफत -विपत में गाँव एकजुट हो जाता है, राग-रंज से मुक्त होकर । सचमुच गाँव भी सरोवर है । सरोवर निर्द्वंद्व होता है । गरीब उलीच कर पीये या अमीर, वह नाक-मुह-भौं कहाँ सिकोड़ती है ? अंत्यज डुबकी मारे या ब्राह्मण आचमन करे, वह अस्पृश्य किसे समझती है ? हमारे पुरखे ठीक ही कहते थे -' गँवई गंगा है ।' गंगा यात्रा पर मैं जा रहा था लेकिन कितनी शुभकामनायें, कितनी प्रार्थनायें, कितनी मनौतियाँ, कितनी भाव -विज्ञप्तियाँ मेरी सहयात्री बन गईं थीं । बड़े भोर से विदाई देने गाँव उमड़ पड़ा था । उमड़ पड़ी थी श्रध्दा सरल- सरल स्निग्ध -स्निग्ध ऑंखों में ।

गनेसू, टलेसर,भगतू को आये दिन खेती-बाड़ी के कारण अर्थाभाव से टकराना पड़ता है । आज उनके हाथों में भी पाँच-दस के नोट आ जुटे थे । बढ़ई, बड़कू, बिहारी के परिवार में ठीक से दो वक्त का भोजन नसीब नहीं होता, उससे क्या, वे भी रुपये -दो रुपये मुझे भेंट रहे थे । मेरी मनाही उनकी आस्था के सम्मुख घुटने टेक रही थी । लोक विश्वास को लांघना लोकघात का काम होता है । मैं विवश था । इक्यासी बसंत देख चुकी गाँव भर की काकी जसोदा भी लाठी टेकती-टेकती अपने पोते के संग आ पहुँची-'बेटा ! मोर नाम में भी दू बुड़की मार लेबे गा........।' वह कुछ और भी कहना चाह रही थी पर र् कीत्तन मंडली के भजन और झाँझ- मृदंग के स्वर ताल ऊँचे से ऊँ चे हो रहे थे, सो भीड़ से रास्ता निकाल कर किनारे बैठ गई थी । शायद यह कि हे गंगा माई गाँव को शुभ-शुभ रखना । शायद यह कि हे गंगा इस जीवन से पार करना । यह अकेले मेरी विदाई नहीं थी, यह लोक संस्कारों की यात्रा भी थी, जिसमें मेरा मन भी सहयात्री बन चुका था । यह गाँव-गंगा का याज्ञिक अनुष्ठान था ।

नदी प्रवाहित जलराशि की संज्ञा मात्र नहीं,
संस्कृति के अजस्र प्रवाह का विशेषण भी है । नदी स्वयं में अविरल धार है पर वह नद्य-विश्वासी मन की सुद्दढ़ धरा भी है । अपने तटों पर युगों-युगों से जीवन और हरीतिमा के स्थायीकरण में जुटी नदियों का यह द्वंद्वात्मक चरित्र कब बदला है, जो कभी बदलेगा । नदी तटों पर मेले भरते रहेंगे, दूर-दराज से लोग-बाग आ जुटते रहेंगे, डुबकी पर डुबकी लगती रहेंगी और मनोकामनाओं की पूर्णता पर सिरोये गये दोने वाले दीप के जुगुर-जागर से मन-प्राण दमकता रहेगा । गंगा ऐसी नदियों की साम्राज्ञी है । विश्व में किसी एक देश की, वह भी भारत जैसे बहुलतावादी संस्कृति की धारा को आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्यों में विन्यस्त करने वाली नदी गंगा के अलावा कोई है ? न मैंने कहीं पढ़ा,न कहीं सुना ।

गंगा भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है ।
गंगा भारतीय संस्कारों का अक्षुण्ण मिथक है । गंगा भारतीय मन का अनन्य बिंब है । उसकी लहरों को ध्यान से बूझिए तो स्वर्णिम भारत की गौरवशाली गाथायें सुनायी देंगी । इसकी धारा को गौर से निरखिए तो लोक और उसका आलोक दिखायी देगा । यह पतितपावनी गंगा है जिसमें जाने कितने पुरखे के पुरखे तर गये । यह कलुषनाशिनी गंगा है जिसमें जाने कितने बोझिल मन हल्के हो गये । गंगा पावनता की श्रेष्ठतम धार है । यह लोकमंत्र है, जिसके स्मरण से अवगाहन का आनंद पूर्ण हो जाता है; डबरी, ताल -तलैया, कूप, साधारण नदी या नल का पानी क्यों न हो, स्नान जल के स्पर्श से ही कंठ से गंगे-गंगे, हर-हर गंगे फूट पड़ता है । यह लोक-मानस की सतत पावन बने रहने की चेष्टा है । इस चेष्टा में तन की ही नहीं, मन की शुध्दता का भाव भी अंतर्निहित है । लोकमन की चंगाई पर ही जोर है तभी वह कहता है, 'मन चंगा तो कठौती में गंगा ।' लिंगपुराण में कहा गया है -'आत्मज्ञानाम्भसि स्नात्बा सकृदालिप्य भावत:'

आभ्यंतर शुचिता बाह्य शुचिता से उत्तम है । स्नान के उपरांत आभ्यंतर शुचिता के अभाव में व्यक्ति मलिन होता है । मन की सुघड़ता ही व्यक्तित्व का सौंदर्य है। सुन्दर मन को इसलिए शास्त्रों में 'तीर्थ' कहा गया है । मन का शुध्दीकरण आध्यात्मिकता का प्रथम चरण है । आज की भौतिकता में मन की ओर किसका ध्यान है ? जिसे देखो, वही तन-सुख के लिए व्याकुल नजर आता है । कोई चेहरे की रौनकता बढ़ाने के लिए तरह-तरह की ब्यूटीक्रीम लगा रहा है । कोई होठों में लाल-पीला रंग पोते जा रहा है । कुछ ऑंखों की झुर्रियाँ मिटाने पार्लर में समूचा दिन गुजार रहे हैं, कुछ जुल्फों को मादक बनाने के निए नये-नये नाइयों के शरणागत हो रहे हैं । सिर से एड़ी तक सजने-सँवरने में समूची पीढ़ी घर छोड़कर बाजार में दर-दर भटक रही है । अपने ही मन से विमुखता का ऐसा दौर शायद कभी रहा हो । आज मन की निर्मलता के लिए प्रसाधन की बात छेड़ना तनवादियों से बैर लेने जैसा हो गया है । यह जो भी हो हमारी अपनी सभ्यता नहीं हो सकती । वहाँ तो मन को रँगा जाता है । मन के रँगने से तन स्वमेव रँग उठता है । तन को रंगारंग बनाने की धुन में मन को बे-रंग छोड़ देने में कौन-सी दृष्टि है, कैसा दर्शन है । ऐसी आयातित आधुनिकता के मोहजाल में उलझते जा रहे युवाओं से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे भारत के उजड़े हुए मन को एक नया शिल्प देंगे !

गंगा में डुबकी लगाने का मतलब मन पर जमे मैल से मुक्ति है ।
गंगा-स्नान मन का परिष्करण है । ऐसा परिष्कार जिसमें ज्ञात-अज्ञात विकार धुल जाते हैं । प्रयाग-त्रिवेणी में पितृतर्पण पश्चात् गंगा में उतरा तो लगा जैसे मैं पवित्रता की गहराई में डूबता चला जा रहा हूँ । मन का पोर-पोर भीगता ही चला जा रहा है । मन ज्यों-ज्यों भीग रहा है वह त्यों-त्यों सरस होता जा रहा है, सरल होता जा रहा है । चित्त की मौलिक ॠजुता फिरने लगी है । जीवन की खंडित निरन्तरता को गंगा की धारा ने जैसे एक अखंडित लय दे दी हो । ऐसे में तन की सुधि कहाँ रह जाती है । ऐसे में मैं, मेरा, मुझे, मुझसे सब कुछ गंगा की धारा में विसर्जित हो जाता है । शेष रह जाता है तो केवल हम, हमारा, हमें, हमसे । यह नहान निमज्जन है, यह स्नान भी नहीं, अवगाहन है ।

गंगास्नान का आखिर क्या मतलब होता है ?
सदियों से लोग हैं कि खींचे चले आ रहे हैं । वह भी बिना किसी न्यौता-निमंत्रण के । सारी दिशायें, सारे संप्रदाय, सभी मत, सभी पंथ एक घाट में स्नान-ध्यान, अर्पण -तर्पण को भाव-विह्वल हो उठते हैं । ऐसे समय सभी स्नानार्थियों की भाव -विह्वलता को पृथक्-पृथक् परिभाषित करना असंभव हो जाता है । यह आर्य की है, यह द्रविड़ की है । यह धनिक की है, यह श्रमिक की है । यह उत्तर की है, यह दक्षिण की है । यह पुरुष की है, यह नारी की है । सब के सब श्रध्दा की धारा में निमग्न हो जाते हैं । इसे मनुओं ध्दारा रचे गये पाखंड का प्रतिफल या फिर अशिक्षित एवं अविकसित जनता में व्याप्त अंधश्रध्दा की प्रेरणा नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसी स्थापना के निष्कर्ष में प्रगतिशीलता को संकट है तो मेरे मत से ऐसी प्रगतिशीलता इस महादेश की संवाहक नहीं हो सकती । असंवेद निग्रह से भारतीय मन का संरक्षण आज का सबसे बड़ा पुण्य-कर्म होगा । गंगा में यमुना, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गण्डक, कोसी, सोन, दामोदर और अनेक सरिताओं की धारायें मिलकर गंगा जल हो जाती हैं । नदियों का यह समर्पण आत्म-विसर्जन नहीं, पावनता का वरण है ।

गंगा की उपस्थिति गंगोत्री से गंगासागर तक सीमित नहीं । इतना ही मान लेना केवल उसके दैहिक भू-गोल को जानना होगा । गंगा असीम है, अकथ है । उसमें एक संपूर्ण अनुभव, एक सुदीर्घ अनुभूति है । उसकी व्याप्ति में देश, दशा और दिशा बाधक नहीं । वह भारतीय संवेदना का उच्चतम एवं पवित्रतम विश्वास है । घर में धन-धान हो, न हो, गंगा-जल होगा ही । गंगा जीवन की अंतिम अभिलाषा है जिसे मुक्ति-जल की लोक अर्हता अर्जित है । गंगा की प्रत्येक बूँद में अमृत उमड़ता है । यह मैंने ही, मेरे जैसे हजारों-लाखों लोगों ने देखा है कि गंगा जल के जिह्वा स्पर्श मात्र से आत्मा मरणासन्न पार्थिक पिंड को परित्याग कर मुक्त हो उठती है । यह कोरा अंधविश्वास नहीं है ।
मैं गंगा से लौट आया हूँ । घर-भर की ऑंखें सजल हैं । पिताजी की अस्थियाँ भी जो अब नहीं रहीं । दिया-बाती किसे दिखाया जायेगा ? गाँव भर की ऑंखें भी सजल हैं । गाँव में वर्षो बाद गंगा माई जो पधारी हैं । उन्हें गंगाजल का प्रसाद मिलेगा । अब गंगा माई विराजें तो बिना स्वागत-सत्कार के गाँव का मन थोड़े न मानेगा, आगे-आगे राम कुस्टों दूब, अक्षत, बोइरपान, अक्षत बिखेरते चल रहे हैं । सुनाऊ शंख फूँक रहा है । दयालू घंटनाद कर रहा है । खेत-खार छोड़कर सारा गाँव उमड़ पड़ा है । मोहित महराज मंत्रोच्चार कर रहे हैं :
श्रृताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता ।
या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने ॥
गंगा गंगेतियैनमि योजनामां शतेष्वपि ।
स्थितैरूच्चरितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम ॥
( विष्णु पुराण ) ( 2/8/20-121)

लोगों के साथ चलते-चलते गंगाजली सँभाले मैं मन ही मन सोच रहा हूँ - 'माई ! तू तो यहाँ भी उमड़ पड़ी है ।'
साभार- http://jayprakashmanas.info/gangakiupsthiti.htm

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