आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-2

राकेश दीवान
जँगल, पहाड़ों के इलाके में नई-पुरानी हर बसाहट छोटी-छोटी नदियों, नालों के आसपास हुई है। इनके बारे में साल के कुछ महीने पानी होने की प्रचलित आम समझ के उलट घने जंगलों के कारण इनमें बारहों महीने पानी बना रहता है। रोज के निस्तार और थोड़ी बहुत सिंचाई के लिए तो इनसे सीधे ही पानी ले लिया जाता है, लेकिन पीने के पानी में थोड़ी सावधानी बरती जाती है। नदी, नालों के किनारे की रेत को थोड़ा-सा खोदकर बनाए गए गङ्ढे से मिलने वाला छना हुआ साफ पानी पीने के काम आता है। पानी इनमें धीरे-धीरे झिरकर इकट्ठा होता है इसलिए इनहें झिरिया या झरिया कहा जाता है। कभी-कभी इनहें 2-3 हाथ खोदकर गहरा कर देते हैं और तब इनहें नाम दिया जाता है- 'झिरिया कुआं।' कुछ बस्तियां पहाड़ों से निकले सोते के पानी को पीने के काम में लाती हैं। इन स्रोतो को 'तुर्रा' कहा जाता है। पहाड़ों की तलहटी में बसे कई गांवों को जंगलों के कारण रुका हुआ पानी धीरे-धीरे
मिलता है। बीच खेत में 3 से 4 हाथ तक खोदकर पानी लेने के तरीके को 'ओगरा' कहते हैं। दरअसल पानी से जुड़ी पध्दतियां सिर्फ संज्ञा ही नहीं क्रियाएं और प्रक्रियाएं भी होती हैं। मसलन झिरिया सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं बल्कि कहीं भी इस तरह से मिलने वाले पानी की प्रक्रिया को कहते हैं। ये झिरियाएं छोटी-मोटी नदी का स्रोत होती हैं। रायपुर के पास से बहने वाली खारुन नदी पर 20-22 कि.मी. पीछे जाएं तो ऐसी 8- 10 झिरियाएं नदी में पानी डालती देखी जा सकती हैं। एक अनुमान के अनुसार महानदी के इलाके में करीब सौ जगहों पर ऐसी सततवाही झिरियाएं मिल सकती हैं। इसी तरह 'ओगरा' आगोर यानी 'जलग्रहण क्षेत्र से मिले पानी के कारण निर्मित स्रोत को कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में पेयजल का एक बारहमासी स्रोत होता है जिसे रायगढ़, सरगुजा के इलाके में ढोढ़ी, डाढ़ी या तूसा कहते हैं और बस्तर, सिहावा के इलाके में तूम। उरांव भाषा में पेड़ों के खोखले तने को ढोढ़ कहते हैं और शयद मारिया भाषा में तूम का भी यही अर्थ होता है। यह पहाड़ों की तराई में खेतों के बीच आपरूप फूटा पानी का सोता होता है। 3-4 हाथ गहरे इन स्रोतों को पानी में सदियों टिकी रह पाने वाली जामुन या सरई की लकड़ी के खोखले तने से पाट दिया जाता है। कभी-कभी ये स्रोत चौड़े हो जाते हैं और तब इन्हे जामुन या सरई की लकड़ी की ही चौकोन पाटी बनाकर पाटा जाता है। जामुन, सरई, सागौन और सिघँदर जिसे उरांव भाषा में खोखड़ो कहते हैं पानी में टिकी रह सकने वाली लकड़ी होती है। एक कहावत है कि सरई
के पेड़ 'सौ साल खड़े, सौ साल अड़े सौ साल पड़े तभो ले नइ सरे (सड़े)'। 'तूम' या 'ढोढ़ी' में पानी की आवक एक तो जंगल के पेड़ों में रुके पानी के धीरे-धीरे झिरने से होती है और दूसरे पूरे खेत के आगोर से भी इन्हे पानी मिलता है। बाजारों में मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले पानी से कई गुना साफ और निर्मल पानी देने वाली ढोढ़ियां या तूम छतीसगढ़ के लगभग हर पहाड़ी गांव को पानी पिलाती हैं। रायगढ़ जिले के कस्बे पथलगांव के सूखे कठिन
समय में पानी देने का काम करने वाली प्रेमनगर और ढोढ़ीटिकरा मोहल्ले की दो ढोढ़ियां अब भी लोगों की याद में बसी हैं। जशपुर नगर में हर कभी नगरपालिका का टेंकर तालाब के किनारे बनी पक्की डाढ़ी से पानी लेकर शहर में बांटता देखा जा सकता है। लोगों का कहना है कि महीने में बीस-बाइस दिन तो बिजली फेल हो जाने, पंप बिगड़ जाने या पाइप लाइन फट जाने से लावा नदी से लाई जाने वाली नगरपालिका की जलवितरण व्यवस्था ठप पड़ी रहती है। ऐसे में सदियों पहले बनी और सन 35-36 में पक्की की गई यह पक्की डाढ़ी पूरे कस्बे की पेयजल की जरूरतें पूरी करती है। पहाड़ी इलाकों के निचाई के कई खेतों को पझरा खेत इसलिए कहा जाता है क्योँकि इनमें आसपास से पानी पझरता या रिसता रहता है। इन खेतों में 6-7 हाथ के गङ्ढे बनाकर ऊपर लकड़ी रखकर पानी निकाला जाता है। इस तरह उथले कुंओं, ढोढ़ियों और नदी-नालों से पानी निकालने के लिए टेढ़ा उपयोग किया जाता है। टेढ़ा यानी एक लंबी मजबूत लकड़ी के पीछे पत्थर का वजन और आगे के सिरे पर रस्सी से एक बर्तन बांधकर बीच के खूंटे पर टिकाया जाता है। बच्चो के खेल की तरह की इस पध्दति में पानी उलीचने के अलावा कमर-पीठ की कसरत भी होती है और लोगों का कहना है कि टेढ़ा से पानी निकालने के कारण वे पीठ दर्द, कमर दर्द आदि की झंझटों से मुक्त रहते हैं।
टेढ़ा से निकले पानी को बांस या फिर सरई की लकड़ी के पाइप यानी 'डोंगा' के जरिए बाड़ी में पहुंचाया जाता है। असल में टेढ़ा का पानी आमतौर पर घर के पिछवाड़े साग-भाजी के लिए रखी गई बाड़ी में ही पहुंचाया जाता है। पझरा खेतों में कहीं-कहीं छोटे-मोटे तालाब भी बन जाते हैं और इन्हे तरई, डबरी, खुदरी, खुदरा या खोदरा भी कहा जाता है। बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में भी पानी तो झिरिया, नदी, नालों से ही लेते हैं लेकिन इनके किनारे बनाए जाने वाले 'चुहरा' या 'तूम' को बांस की चटाई से पाट दिया जाता है। कहीं-कहीं नए लोगों ने पीपा के टीन को भी पाटने के काम में लगाया है। बरसों से सरकारी अनुमति लेकर ही प्रवेश कर पाने वाले इस इलाके में पानी के लिए पहाड़ों से बारहमासी सोते होते हैं, छोटी-छोटी नदियां नाले हैं और जगह-जगह तूम हैं। पहाड़ों से गिरने वाले पानी से बांस का पाइप लगाकर यहां भी नल का मजा ले लिया जाता है। आमतौर पर तरई करीब एक एकड़ की छोटी तलैया होती है और तलैया करीब आधा एकड़ की। ये तरई, तलैया पानी के आसपास के पहाड़ों से रिसने या झिरपने के कारणा बन जाती है और इनका पानी पीने लायक भी होता है। इन तरई, तलैयों में कई तरह की वनस्पति, फूल पैदा किए जाते हैं जिनसे पानी साफ बना रहता है। इनमें बोडेंदा फूल ऐसी वनस्पति है जिससे पानी तो साफ रहता ही है लेकिन गर्भवती महिलाओं को खिलाने से भी फायदा होता है। शयद इस फूल में लोहत्तव की मात्रा रहती है। इसी तरह जलकनी, कस्सा घाँस आदि भी पानी की सफाई के उपयोग में लाई जाती है। तूम या ढोढ़ी के अलावा पेयजल, निस्तार और सिंचाई का एक और सर्वव्यापी साधन कुंआ या चुंआ होता है। जंगलों, पहाड़ों से रिसने वाले पानी और व्यापक रूप से तालाबों की मौजूदगी में छत्तीसगढ़ में कुंओं को खोदना आसान होता है। भूजल स्तर काफी उथला होता है और इनमें लगातार पानी की आवक भी होती रहती है। कुंआ खोदने का काम तो हालांकि गांव समाज के सामान्य ज्ञान के आधार पर कोई भी कर लेता है लेकिन इनकी ठीक जगह
जहां से निर्बाध पानी मिलता रहे, बताने वाले विशेषज्ञ कुछ ही होते हैं।
ये विशेषज्ञ अपनी-अपनी तरकीबों से पानी की उपलब्धता मात्रा , चट्टानें गहराई आदि का ठीक-ठाक हिसाब लगाकर बता देते हैं। आधुनिक जल विशेषज्ञो के पास इस ज्ञान का अब तक कोई तर्क या विज्ञान नहीं बन पाया है लेकिन कमाल है कि ग्रामीण विशेषज्ञो की बताई जगहों पर कुआं खोदने पर इक्का दुक्का अनुभवों को छोड़ दें तो सौ टंच सही पानी मिल ही जाता है। (जारी)

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