नदियों का प्रतिशोध : गुलरेज़ शहज़ाद

बिहार : नदियों का प्रतिशोध
जितनी भी सरकारें आइंर् सभी ने बाढ़ को प्राकृतिक आपदा बता कर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा और इस समस्या का समाधान केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी कह कर पल्ला झाड़ लिया। नदियों की आक्रमकता यहां हर वर्ष जिंदगियों को तबाह करती है लेकिन इस वर्ष यह तबाही बहुत ज्यादा हुई है।इस बार ड़े बुजुर्गों से कहते सुना कि-'अभी तक की उम्र्र में इतनी बारिश नहीं देखी।` इस बेतहाशा बारिश ने बिहार के एक बड़े भू-भाग के जन-जीवन को त्रासद बना दिया है। ये इलाके यूं तो हर वर्ष बाढ़ की चपेट में आते रहे हैं लेकिन इस बार तबाही बहुत ज्यादा हुई है।कोसी 'बिहार की शोक` कहलाती है। लेकिन नेपाल से निकलते हुए बिहार में ४५० कि.मी. लम्बीयात्रा करने वाली बागमती, गंडक, महानन्दा और अबधारा समूह म से किसे हम 'बिहार का शोक` की श्रेणी से अलग रखें?कोसी ने कहा-'नदी का दुख/जल नहीं/यात्रा है..` बिहार में नदियों की ४५० कि.मी की यात्रा में नदियों के दुख के साथ जिंदगियों के दुख का सैलाब पछाड़ें खाता दिखाई पड़ रहा है। वैसे दुनिया में सभी दुखों का जायका शायद एक जैसा ही होता है। और कहते हैं कि दुख एक तरफ जहां जीवन को तोड़ता है, वहीं आक्रामक चरित्र की बुनियाद भी डाल जाता है।
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आक्रामकता खुद के साथ औरों के दुख को भी पहाड़ बना जाती है, जो समय के साथ टूटते-टूटते, टूटता तो है लेकिन निशान रह जाते हैं। नदियों की आक्रामकता ने जहां जिन्दगियों को तबाह किया है, वहीं जिन्दगियों की आक्रामकता के दंश वर्तमान सरकार को झेलने पड़ सकते हैं। बाढ़ आने के साथ 'सरकार` का मॉरीशस की यात्रा पर चले जाना कोई छोटी घटना नहीं है। मुख्यमंत्री 'हॉट लाइन` पर सम्पर्क साधते रहे और बाढ़ पीड़ित बिलबिलाते रहे। लौटने क बाद बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के तूफानी हवाई दौरा के क्रम में प्रभावित जिलों में विशेष जिलाधिकारियों की प्रतिनियुक्ति के साथ जिले के प्रभारी मंत्रियों को कैम्प करने का निर्देश मिला। बाढ़ राहत कार्य बेहतर ढंग से चलने के सरकारी दावों के बीच बाढ़ पीड़ितों पर सरकारी लाठियां चलीं। अर्थात् आम जनता पर दोहरी मार। बाढ़ प्रभावित कई क्षेत्रों में लोगों का जलकुम्भी और घोंघा खा कर भूख मिटाने की घटनाएं सरकारी दावों के मुंह चिढ़ा रही हैं।
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अधिकांश तटबंध क्षतिग्रस्त हो गए हैं। तटबंधों की मरम्मती के नाम पर सालाना लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं लेकिन सब बेअसर साबित हो रहा है। चम्पारण तटबंध का रिंग बांध अंग्रेजों ने बनाया था। बजुर्गों के मुताबिक अंग्रेजों के जमाने में उस पर बूट पहन कर चलने की मनाही थी और आज उससे होकर ट्रक, ट्रैक्टर और दूसरे वाहन धड़ल्ले से गुजरते हैं। नहरों के निर्माण को छोड़ कर तटबंधों के निर्माण पर जोर दिया गया लेकिन इसका दूसरा रूप सामने यह आया कि जल जमाव की समस्या उत्पन्न हो गई।बिहार में बाढ़ का प्रमुख कारण नेपाल से निकलने वाली नदियां हैं। उंची ढलान से उतरते हुए तेज रफ्तार से यात्रा की शुरुआत करने वाली नदियां आगे बढ़ते ही मैदानी भागों में विस्तार पा लेती हैं। इसका कारण है कि नदियों की पेटी में गाद जम जाना। नदियों की पेटी में गाद जम जाने के कारण इनकी गहराई काफी कम हो गई जिससे जलग्रहण की क्षमता घटी है। इसके साथ सिंचाई परियोजनाओं की विफलता के कारण पानी डे्रजिंग की विकट समस्या उत्पन्न हो गई है।बिहार लगभग हर वर्ष बाढ़ की त्रासदी से गुजरता है। बिहार का भौगोलिक क्षेत्रफल ९३.८१ लाख हेक्टेयर है और राज्य का कुल बाढ़ प्रवण क्षेत्र ६८.८० लाख हेक्टेयर है। वहीं उत्तर बिहार का क्षेत्रफल ५८.५० लाख हेक्टैयर है और उत्तर बिहार का बाढ़ग्रस्त क्षेत्रफल ४४.४७ लाख हेक्टैयर है। बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र का यह आंकड़ा पुराना है। अगर पुराने आंकड़े के आधार पर ही आकलन करते हैं तो पता चलता है कि उत्तर बिहार के ७७ प्रतिशत क्षेत्रफल बाढ़ग्रस्त हैं। बाढ़ के कारण हर वर्ष लगभग १५०० करोड़ रुपये की बर्बादी होती है।जितनी भी सरकारें आइंर् सभी ने प्राकृतिक आपदा का बहाना बना कर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा और इस समस्या का समाधान केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया। नेपाल में २९ हजार करोड़ रुपये की लागत से प्रस्तावित 'हाई डैम` निर्माण की घोषणा का कुछ निशान आज तक नहीं दिखता।
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सरकार के सभी दावों को तो बाढ़ के पानी ने खुद अच्छी तरह धो दिया। बाढ़ के बाद आच्छादित भूमि पर ही यह दिखेगा कि इस त्रासदी से निजात के लिए सरकार योजनाएं कैसे कार्यान्वित करती है।युवा कवि गुलरेज़ शहज़ाद विभिन्न विषयों पर लिखते रहे हैं।
साभार – विकास संवाद

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