जल, जंगल और जमीन की चिंता - संतोष चौधरी

हमारे देश में जल, जंगल और जमीन भारतीय संस्कृति और पवित्रता के प्रतीक माने जाते हैं। नदियों को देवतुल्य सम्मान देकर पूजा जाता है, जमीन हमारी मां मानी जाती है और वनों को पूजा जाता है। आज आधुनिक और पाश्चात्य जीवन शैली, बढ़ती आबादी ने इन शब्दों के मायने बदल दिए हैं। इन तीनों के साथ खिलवाड़, छेड़छाड़ तथा उपेक्षा का नतीजा है कि प्रकृति हमारे खिलाफ खड़ी नजर आती है जिसके चलते वन खत्म हो गए हैं, जल स्तर लगातार गिर रहा है, नदियां सूख रही है, जो कुछ बची है वह प्रदूषित हो गई है। परंपराओं और संस्कृति का विस्मरण करने के कारण पर्यावरण आज पूरी तरह गड़बड़ा गया है।
.
दरअसल, मनुष्य की अतिवादी प्रवृत्ति और लापरवाही के चलते प्रदूषण की खाई और अधिक बढ़ गई है। आने वाली पीढ़ी के लिए कैसी पृथ्वी छोड़ जाएंगे इसकी कल्पना करने भर से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आज यह यक्ष सवाल हमारे दिलो दिमाग में घूम रहे हैं कि भावी पीढ़ी के लिए लहलहाते वृक्ष, स्वच्छ नदियों का जल, उर्वरा शक्ति से भरी जमीन, स्वच्छ और शुद्ध हवा, घ्रूम रहित आकाश, उत्संग पहाड़ घने जंगल व उनमें रहने वाले वन्य प्राणी, निश्चल वनवासी, हमारी कला और संस्कृति के स्मारक सौंपने में कामयाब हो पाएंगे या नहीं? आज पर्यावरण के दूषित होने को लेकर केवल भारत ही नहीं, अपितु दुनिया की पेशानी पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई देती है। कई पर्यावरणवादी संगठन और पर्यावरणविद पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं। प्रदूषण से आशय जल, थल और वायु में अवांछित एवं हानिकारक पदार्थों का शामिल होना है अथवा वांछित या उपयोगी पदार्थों की कमी या विलोपन। इससे अनेक बीमारियों और विकारों का जन्म होता है। इस प्रकार प्रदूषण वायु, भूमि, जल और ध्वनि के रूप में हमारे सामने आता है। बढ़ती आबादी, अनियमित वातावरण तथा औद्योगिकीकरण ने पर्यावरण को प्रदूषित करने में महती भूमिका निभाई है। पर्यावरण का गणित बिगड़ने से ही सूखा उत्पन्न हुआ है। आबादी का बढ़ता बोझ, प्राकृतिक जल स्रोतों की घोर उपेक्षा तथा भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन के चलते आज देश के कई हिस्से गहनतम सूखे से जूझ रहे हैं और समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में यह स्थिति और भी भयावह हो सकती है।
.
गौरतलब है कि नदियों को हमारे यहां जीवनदायिनी और मुक्तिदाता माना जाता है। इसके अलावा जल ही जीवन है। नदियों को भारतीय संस्कृति में देवतुल्य सम्मान देकर उसे पूजा जाता है। आज हम उसमें स्नान करके मोक्ष मिलने की बात तो स्वीकारते हैं, लेकिन इन नदियों को प्रदूषित करने में हमारे पीछे अपनी एक अलग ही रोचक कहानी है। जल पवित्रता का प्रतीक था और आज भी है, लेकिन अत्याधुनिक जीवन शैली और मशीनरी युग में हमारे इन सब की खैरख्वाह लेने की कोशिश नही की और इसके साथ ही अपनी परंपराओं और उसके प्रतीकों को भुला दिया। मध्यप्रदेश में किसी समय सैकड़ों तालाब, कुँए और बावड़िया हुआ करती थी, लेकिन अब तालाब सूख रहे हैं और बावड़िया भुला दी गई है। यह बिगड़ते पर्यावरण का ही नतीजा है कि देश के अधिकांश राज्य सूखे से जूझ रहे हैं।
.
आम आदमी पलायन को मजबूर है। देश में आज भी 16 फीसदी आबादी को पेयजल मयस्सर नहीं है। इससे देश की जनता का स्वास्थ्य ही नहीं समूची आर्थिक उत्पादकता भी प्रभावित हो रही है। सुप्रसिद्ध समाज सेवी अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र के छोटे से गाँव रालेगन सिद्दी में स्टाम डेम बनवाकर गाँव खुशहाल बना दिया था। मध्यप्रदेश की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार न पेय जल रोको अभियान शुरु किया था। इसमें जनता भी आगे आई थी। इसके बेहतर परिणाम सामने आए थे। पूर्ववर्ती सरकार की तर्ज पर मध्यप्रदेश की मौजूदा शिवराज सिंह चौहान सरकार ने भी जलाभिषेक अभियान की शुरुआत की है। शुरुआती परिणाम ठीक-ठाक कहे जा सकते हैं। इसके अलावा अन्य राज्यों में भी नदियों, तालाबों, जलस्रोतों की सफाई का अभियान जोर पकड़ रहा है, जो निश्चित ही पर्यावरण को सुधारने के लिए नवाचार की एक पहल साबित हो रही है। जहां कभी हमारी संस्कृति में वनों को पूजने की परंपरा थी, वह भी आज भुला दी गई है।
आज अपने लाभ-हानि के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। वनों का सीधा सा हिसाब है कि वन रहेंगे तो पर्यावरण बरकरार रहेगा, वर्षी होगी तो सूखा नहीं पड़ेगा, जल स्रोत नहीं सूखेंगे, लोगों को पीने के लिए पानी नसीब होगा। यदि वनों की बेरहमी से कटाई होगी तो प्रकृति का पूरा समीकरण बिगड़ जाएगा। दरअसल, सरकारी दस्तावेजों में जो भू-भाग को वनाच्छित बताया गया है, और उसका तीन से चार फीसदी भाग दूर-दूर तक पेड़-पौधों का नामोनिशान नहीं होगा और कई जगह तो आबादी में तब्दील हो गया होगा। आज वनों को काट कर आबादी बसा दी गई है, या फिर कारखानों और बांध बनाने के लिए जंगलों को उजाड़ दिया गया है। तरक्की के लिए बाँध बनाए जा रहे हैं और कल कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं।
.
कहा भी जाता है कि तरक्की वजह साम्राज्ञी होती है, जो अपने पीछे भयानक तबाही का मंजर छोड़ जाती है। असल में सिमटते वनों का रोपण करने की आवश्यकता है, जिससे पेड़ बादलों को बुलाकर पानी बरसा सके। दरअसल इसके लिए हमें सरकार पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह सरकार के अपने बूते की बात नहीं है। हर आदमी को जो वनों का निस्तार करता है स्वयं पहल करके समितियाँ बनाकर वनों के विकास के लिए सक्रिय होना पड़ेगा। यहीं नहीं वनों से दूर रहने वालों को स्वयं ही पेड़ लगाना चाहिए। हरियाली के विस्तार से ही खुशहाली आती है, इसे दैनिक जीवन में स्वीकार करना पड़ेगा। इसके साथ ही ईंधन के लिए बबूल जैसी प्रजाति के पेड़ हमें जंगल में लगाने होंगे, जो जल्दी ही बहुत कम समय में बढ़ जाते हैं। इनकी बढ़ी शाखाओं को समय-समय पर कटाई करके जलाऊ लकड़ी के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इससे मूल पेड़ भी नष्ट नहीं होंगे, जलाऊ लकड़ी भी निरंतर मिलती रहेगी और वन भी सही सलामत रहेंगे। बहरहाल जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए हमें अपनी परंपरा और सामाजिक मूल्यों के अनुरूप सहिष्णुता विकसित करनी होगी। गौरतलब है कि पैंतीस-चालीस साल पहले जब ब्रिटेन की टेम्स नदी सूख गई थी, तब उसे जनचेतना के जरिए ही बचाया गया था। हर व्यक्ति को पर्यावरण को अपना खास मित्र बनाना होगा, शासन और प्रशासन ने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए नीतियाँ तो बनाई है, लेकिन जनभागीदारी के अभाव में उनका क्रियान्वयन होना संदिग्ध है। हमें पर्यावरण को अपनी दैनिक दिनचर्या का अंग बनाना होगा।दून दर्पण (देहरादून), 06 June 2006

Hindi India Water Portal

Issues