दिल्ली में जल संकट के स्त्रोत
हर साल जेठ महीना आते-आते दिल्ली में पानी की बेहद कमी हो जाती है। तब यहां ढेरों प्याउ दिखाई देने लगते हैं, जहां राहगीर अपने हलक तर करते हैं। इसके अलावा जहां संभव है लोग पचास पैसे गिलास या बारह रुपए बोतल बिकाउ पानी का भी सहारा लेते हैं। यानी, पानी जैसी सार्वजनिक चीज के वाणिज्यिक होते जाने का असहज चेहरा नजर आने लगता है। पैसे वाले लोग इससे ज्यादा परेशान नहीं हैं और बारह रुपए में बिसलेरी खरीदने वाले तो कतई नहीं।
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विकासशील समाज अधययन पीठ ने पीने के पानी को लेकर एक सर्वेक्षण करवाया था। इससे मालूम हुआ कि इस महानगर के 87 प्रतिशत लोग पीने के लिए एमसीडी द्वारा सप्लाई होने वाले पानी पर निर्भर हैं। निस्संदेह यह बहुत बड़ी संख्या है। यहां लाखों लोग अन्य विकल्प के अभाव में इस पानी का इस्तेमाल पीने के साथ-साथ दूसरी दैनिक जरूरतों के लिए भी करते हैं। इससे पानी की खपत तीस-चालीस गुना बढ़ जाती है।
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आंकड़े बताते हैं कि यहां गर्मी के दिनों में पानी की मांग रोजाना नौ सौ एमजीडी है। जबकि, दिल्ली जल बोर्ड रोज साढ़े छह सौ एमजीडी पानी की ही आपूर्ति कर पाता है। इसमें भी चालीस प्रतिशत अर्थात 270 एमजीडी पानी या तो पाइपों में रिसाव के कारण बह जाता है या चोरी कर लिया जाता है। कुल मिलाकर जहां नौ सौ एमजीडी पानी की मांग है वहां 380 एमजीडी पानी इसकी महत्ता और उपयोगिता भूलते गए। पहले शहरों का नदी तट पर बसना मात्रा ऐतिहासिक संयोग की बात नहीं थी। इसका अपना महत्व था। हमें नदियों के प्रति परंपरा से चले आ रहे पूजाभाव के मर्म को समझना चाहिए था। लेकिन, इस तकनीकी युग में यमुना में लंबे समय से करोड़ों टन कचरा लगातार बहाया जाता रहा है। दूसरी तरफ, टयूबवेलों के जरिए धारती की सतह के नीचे से पानी का अंधाधुंध दोहन जारी है। पानी के बढ़ते संकट के पीछे यही दो प्रमुख कारण हैं।
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बेशक, दिल्ली तहजीबयाफ्रता लोगों का शहर है, लेकिन पानी और दूसरे संसाधानों से पेश आने का इसका अंदाज थोड़ा अलग किस्म का रहा है। अब हालात ऐसे हो गए ही लोगों तक पहुंच रहा है। किल्लत के ऐसे आलम में मारा-मारी स्वाभाविक है। उफपर से तेजी से हो रहे आधाुनिकीकरण और औद्योगीकरण का भी पेयजल की उपलब्धाता पर भारी दबाव है। कभी दिल्ली के लोग यमुना से अपनी जरूरत का पानी प्राप्त करते थे। लेकिन अब यह नदी लोगों की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है। इसके दो प्रमुख कारण हैं। एक तो दिल्ली बहुत सघन और बड़ी हो गई है। दूसरे, यमुना एक्शन प्लान जैसी तमाम योजनाओं के बावजूद इस नदी का पानी लगातार प्रदूषित होता गया है। ऐसा अचानक नहीं हुआ, बल्कि लोग धीरे-धीरे हैं कि यमुना का पानी यहां की जरूरतों को पूरा करने के लिए नाकाफी पड़ रहा है।
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विकासशील समाज अधययन पीठ ने पीने के पानी को लेकर एक सर्वेक्षण करवाया था। इससे मालूम हुआ कि इस महानगर के 87 प्रतिशत लोग पीने के लिए एमसीडी द्वारा सप्लाई होने वाले पानी पर निर्भर हैं। निस्संदेह यह बहुत बड़ी संख्या है। यहां लाखों लोग अन्य विकल्प के अभाव में इस पानी का इस्तेमाल पीने के साथ-साथ दूसरी दैनिक जरूरतों के लिए भी करते हैं। इससे पानी की खपत तीस-चालीस गुना बढ़ जाती है।
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आंकड़े बताते हैं कि यहां गर्मी के दिनों में पानी की मांग रोजाना नौ सौ एमजीडी है। जबकि, दिल्ली जल बोर्ड रोज साढ़े छह सौ एमजीडी पानी की ही आपूर्ति कर पाता है। इसमें भी चालीस प्रतिशत अर्थात 270 एमजीडी पानी या तो पाइपों में रिसाव के कारण बह जाता है या चोरी कर लिया जाता है। कुल मिलाकर जहां नौ सौ एमजीडी पानी की मांग है वहां 380 एमजीडी पानी इसकी महत्ता और उपयोगिता भूलते गए। पहले शहरों का नदी तट पर बसना मात्रा ऐतिहासिक संयोग की बात नहीं थी। इसका अपना महत्व था। हमें नदियों के प्रति परंपरा से चले आ रहे पूजाभाव के मर्म को समझना चाहिए था। लेकिन, इस तकनीकी युग में यमुना में लंबे समय से करोड़ों टन कचरा लगातार बहाया जाता रहा है। दूसरी तरफ, टयूबवेलों के जरिए धारती की सतह के नीचे से पानी का अंधाधुंध दोहन जारी है। पानी के बढ़ते संकट के पीछे यही दो प्रमुख कारण हैं।
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बेशक, दिल्ली तहजीबयाफ्रता लोगों का शहर है, लेकिन पानी और दूसरे संसाधानों से पेश आने का इसका अंदाज थोड़ा अलग किस्म का रहा है। अब हालात ऐसे हो गए ही लोगों तक पहुंच रहा है। किल्लत के ऐसे आलम में मारा-मारी स्वाभाविक है। उफपर से तेजी से हो रहे आधाुनिकीकरण और औद्योगीकरण का भी पेयजल की उपलब्धाता पर भारी दबाव है। कभी दिल्ली के लोग यमुना से अपनी जरूरत का पानी प्राप्त करते थे। लेकिन अब यह नदी लोगों की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है। इसके दो प्रमुख कारण हैं। एक तो दिल्ली बहुत सघन और बड़ी हो गई है। दूसरे, यमुना एक्शन प्लान जैसी तमाम योजनाओं के बावजूद इस नदी का पानी लगातार प्रदूषित होता गया है। ऐसा अचानक नहीं हुआ, बल्कि लोग धीरे-धीरे हैं कि यमुना का पानी यहां की जरूरतों को पूरा करने के लिए नाकाफी पड़ रहा है।
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सरकार पड़ोसी राज्यों की ओर ताकती रहती है। अब तो पुराने टयूबवेलों को भी पुर्नस्थापित किया जा रहा है। बहरहाल, विपरीत परिस्थितियों में भी इन कठिनाइयों से निपटा जा सकता है यदि पानी का उपयोग कायदे से किया जाए। जल बोर्ड द्वारा सप्लाई होने वाले पानी का चालीस प्रतिशत हिस्सा बेवजह बर्बाद हो रहा है। केवल उसके रिसाव और चोरी पर अंकुश लगा दिया जाए तो तत्काल काफी फर्क पड़ेगा। इस महानगर में यूकलिप्टस के ढेरों पेड़ लगे हैं। छोटे-छोटे पार्कों में भी इसकी संख्या सौ से अधिाक है। यूकलिप्टस का एक पेड़ रोज चार सौ लीटर पानी जमीन से सोखता है। जानकारों की राय में एक व्यक्ति को रोजाना कम से कम डेढ़ सौ लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस हिसाब से यूकलिप्टस दो व्यक्तियों के हिस्से से अधिाक का पानी रोज जमीन से सोखता है। निश्चय ही भूजल स्तर पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए उचित तो यही होगा कि दलदली भूमि के लिए उपयुक्त माने जाने वाले इस पेड़ का इस्तेमाल यहां न किया जाए।
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यहां दिल्ली जल बोर्ड के अलावा लाखों लोग निजी टयूवबैल की सहायता से कापफी पानी जमीन से निकालते हैं। लेकिन, नीतिगत स्तर पर भूजल का पुनर्भरण करने की सामुदायिक कोशिश नहीं हो रही। अब भी कोशिश न हुई तो निकट भविष्य में हालात खतरनाक हो सकते हैं। पानी की समस्या इसके असमान वितरण की वजह से भी है। इसकी आपूर्ति में लोगों की जरूरतों की अपेक्षा उनके ओहदे देखे जा रहे हैं। मसलन, नई दिल्ली इलाके में जहां बहुत से वीआईपी लोगों का बसेरा है, वहां प्रति व्यक्ति साढ़े चार सौ लीटर पानी प्रतिदिन के हिसाब से सप्लाई किया जाता है। लेकिन महरौली में रहने वाले लोग प्रति व्यक्ति 29 लीटर पानी ही प्राप्त कर पाते हैं।
सरकार पड़ोसी राज्यों की ओर ताकती रहती है। अब तो पुराने टयूबवेलों को भी पुर्नस्थापित किया जा रहा है। बहरहाल, विपरीत परिस्थितियों में भी इन कठिनाइयों से निपटा जा सकता है यदि पानी का उपयोग कायदे से किया जाए। जल बोर्ड द्वारा सप्लाई होने वाले पानी का चालीस प्रतिशत हिस्सा बेवजह बर्बाद हो रहा है। केवल उसके रिसाव और चोरी पर अंकुश लगा दिया जाए तो तत्काल काफी फर्क पड़ेगा। इस महानगर में यूकलिप्टस के ढेरों पेड़ लगे हैं। छोटे-छोटे पार्कों में भी इसकी संख्या सौ से अधिाक है। यूकलिप्टस का एक पेड़ रोज चार सौ लीटर पानी जमीन से सोखता है। जानकारों की राय में एक व्यक्ति को रोजाना कम से कम डेढ़ सौ लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस हिसाब से यूकलिप्टस दो व्यक्तियों के हिस्से से अधिाक का पानी रोज जमीन से सोखता है। निश्चय ही भूजल स्तर पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए उचित तो यही होगा कि दलदली भूमि के लिए उपयुक्त माने जाने वाले इस पेड़ का इस्तेमाल यहां न किया जाए।
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यहां दिल्ली जल बोर्ड के अलावा लाखों लोग निजी टयूवबैल की सहायता से कापफी पानी जमीन से निकालते हैं। लेकिन, नीतिगत स्तर पर भूजल का पुनर्भरण करने की सामुदायिक कोशिश नहीं हो रही। अब भी कोशिश न हुई तो निकट भविष्य में हालात खतरनाक हो सकते हैं। पानी की समस्या इसके असमान वितरण की वजह से भी है। इसकी आपूर्ति में लोगों की जरूरतों की अपेक्षा उनके ओहदे देखे जा रहे हैं। मसलन, नई दिल्ली इलाके में जहां बहुत से वीआईपी लोगों का बसेरा है, वहां प्रति व्यक्ति साढ़े चार सौ लीटर पानी प्रतिदिन के हिसाब से सप्लाई किया जाता है। लेकिन महरौली में रहने वाले लोग प्रति व्यक्ति 29 लीटर पानी ही प्राप्त कर पाते हैं।
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पानी निजी संपत्ति नहीं है। इस पर पूरे समाज का अधिकार है। पानी का असमान वितरण दूसरी विषमताओं से भी ज्यादा बुरा है। क्या यह उचित है कि सुदूर दक्षिणी दिल्ली की एक बूढ़ी महिला कहे- 'म्हारी बहू-बेटियां रात में जाग-जाग कर पानी आवन की बाट देखे जावे हैं।' जबकि दूसरी तरफ नई दिल्ली इलाके में लोग अपनी कारों को धेने व बागवानी करने में बेहिसाब पानी खर्च कर रहे हों। इस महानगर में पानी का सही इस्तेमाल हो तो इसके संकट से बचा जा सकता है। पानी के सार्वजनिक मूल्य को समझना होगा। यह जीवन का आधार है, पर इसकी उपलब्धता सीमित है। इसलिए इसकी कीमत तो पहचाननी ही होगी।
पानी निजी संपत्ति नहीं है। इस पर पूरे समाज का अधिकार है। पानी का असमान वितरण दूसरी विषमताओं से भी ज्यादा बुरा है। क्या यह उचित है कि सुदूर दक्षिणी दिल्ली की एक बूढ़ी महिला कहे- 'म्हारी बहू-बेटियां रात में जाग-जाग कर पानी आवन की बाट देखे जावे हैं।' जबकि दूसरी तरफ नई दिल्ली इलाके में लोग अपनी कारों को धेने व बागवानी करने में बेहिसाब पानी खर्च कर रहे हों। इस महानगर में पानी का सही इस्तेमाल हो तो इसके संकट से बचा जा सकता है। पानी के सार्वजनिक मूल्य को समझना होगा। यह जीवन का आधार है, पर इसकी उपलब्धता सीमित है। इसलिए इसकी कीमत तो पहचाननी ही होगी।