एक और चोट गंगा पर

प्रदीप कुमार शुक्ल
विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि हाइवे के संरक्षण क्षेत्र में पालतू पशु तथा पक्षियों में कौवा व गोरैया पाये जाते हैं। इसी क्रम में आगे बताया गया है कि हाईवे के 10 कि.मी. की परिधि में कोई पुरातात्विक महत्व का स्मारक व संरक्षित सम्पत्तियां नहीं हैं। इन तथ्यों की सत्यता का अनुमान हर शिक्षित नागरिक लगा सकता है।

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के गंगा एक्सप्रेस हाईवे के स्वप्न को साकार करने के लिए सरकारी मशीनरी के द्वारा पर्यावरण संरक्षण कानून तथा पर्यावरण एवं वन मंत्रलय की नीतियों की धज्जियां उड़ाकर रख दी गई हैं। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य विभागों द्वारा जारी किए गए अनापत्ति प्रमाण-पत्र और उससे जुड़ी कार्यवाहियां पर्यावरण संरक्षण के लिए शासन-प्रशासन दोनों की प्रतिबध्दता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। देश के पर्यावरणविद् इस बात से चिन्तित हैं कि नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाला शासन-प्रशासन आखिर कब और कैसे पर्यावरण संरक्षण के प्रति ईमानदारी से अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करेगा?

प्रदेश शासन की बागडोर संभालने के कुछ ही महीने बाद मायावती ने प्रशासन पर अपनी धौंस जमाकर परियोजना की प्रारम्भिक कार्यवाहियों को शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने का फरमान जारी किया। इसी दबाव के बोझ तले राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रलय की अधिसूचना संख्या 1533, दिनांक 14 नवम्बर, 2006 के अनुपालन में क्षेत्रीय नागरिकों की ओर से आपत्ति, टिप्पणी, विचार एवं सुझाव आमंत्रित करने हेतु 20 जुलाई, 2007 को दैनिक जागरण समाचार पत्र में आम सूचना प्रकाशित कराई गई। सूचना में एक महीने पश्चात 20 अगस्त को गंगा से लगे सभी जनपदों में लोक सुनवाई की खबर के साथ परियोजना के अभिलेख क्षेत्रीय नागरिकों के अवलोकनार्थ कुछ जनपदीय कार्यालयों में उपलब्ध होने हेतु सूचना दी गई। लेकिन, अभिलेख देखने व प्राप्त करने के लिए नागरिक तथा गैर सरकारी संगठनों के पदाधिकारी जब गए तो किसी भी विभाग में कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं था। इतना ही नहीं कुछ-एक विभागों को तो कार्यवाही की खबर भी नहीं थी। इससे क्षुब्ध कुछ संगठनों ने बोर्ड को इसकी शिकायती सूचना देकर तत्काल अभिलेख उपलब्ध करवाने की मांग की परन्तु लोक सुनवाई की तिथि तक किसी कार्यालय में अभिलेख नहीं उपलब्ध करवाया गया। इसके चलते अधिकतर नागरिक परियोजना के संबंध में अपने सुझाव, विचार एवं आपत्तियां व्यक्त करने की प्रबल इच्छा होने के बावजूद कुछ नहीं कर पाए। आवश्यक अभिलेख न प्राप्त होने की दशा में उनके लिए अपने विचार व्यक्त कर पाना असंभव हो गया। इसके बाद मांग की गई कि लोक सुनवाई के लिए अगली तिथि निश्चित की जाए और उस बीच आवश्यक अभिलेख उपलब्ध करवाए जाएं। बहुत टाल-मटोल के बाद अभिलेख तो उपलब्ध करवाया गया किन्तु सुनवाई के लिए अधिसूचना के प्रावधानों के अनुरुप समय नहीं दिया गया। बोर्ड का यह प्रयास ठीक वैसे ही है जैसे परीक्षार्थी को परीक्षा में बैठने के समय की सूचना दे दी जाए और उत्तर पुस्तिका समेटने के समय प्रश्न पत्र का वितरण किया जाए। जरा सोचिए, कि यह कितना न्यायसंगत है।

बोर्ड के इस कृत्य से मंत्रलय के शिकायत प्रकोष्ठ को भी अवगत कराया गया, लेकिन कोई भी कार्यवाही नहीं की गई। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि मानवाधिकार का हनन करने वाले ये काम शासन-प्रशासन की मिलीभगत से हुए। लोक सुनवाई के दौरान आपत्ति करने के उपरान्त कार्यदायी लोक निर्माण विभाग, उ.प्र. के द्वारा अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु तैयार की गई 'पर्यावरणीय प्रभाव आकलन' रिपोर्ट में भी कई कमियां हैं। इसमें उन तथ्यों का उल्लेख ही नहीं किया गया है जो पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं और जिनके सुरक्षा एवं संरक्षण को ध्यान में रखकर बोर्ड द्वारा किसी भी प्रस्तावित परियोजना को अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी किया जाता है।

विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि हाइवे के संरक्षण क्षेत्र में पालतू पशु तथा पक्षियों में कौवा व गोरैया पाये जाते हैं। इसी क्रम में आगे बताया गया है कि हाईवे के 10 कि.मी. की परिधि में कोई पुरातात्विक महत्व का स्मारक व संरक्षित सम्पत्तियां नहीं हैं। इन तथ्यों की सत्यता का अनुमान हर शिक्षित नागरिक लगा सकता है। उल्लेखनीय है कि गंगा पूरे राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक रेखा है। इसके किनारे कई महत्वपूर्ण शहरों का विकास हुआ है। अनादि काल से ही इसके किनारे भारतीय संस्कृति संपोषित होती रही है। गंगा और उसके मैदान की पारस्थितिकी में अनेक प्रजातियों के वन्य प्राणी एवं पक्षी समुदाय अपनी जिन्दगी व्यतीत कर रहे हैं। फिर किस आधार पर लोक निर्माण विभाग ने ऐसे तथ्यों को नकारने का प्रयास किया?

शासन द्वारा आयोजित लोकसुनवाई कोरी औपचारिकता ही थी। इसके ठीक 10 दिन बाद आनन-फानन में कैबिनेट की बैठक बुलाकर परियोजना को स्वीकृति प्रदान करने की घोषणा कर दी गई। इसके उपरान्त सिंचाई एवं लोक निर्माण विभाग के अधिकारी व कर्मचारी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार गंगा के बायें तट पर बसे गांवों का सर्वे करने में लग गए हैं।

उ.प्र. सरकार द्वारा गंगा नदी से लगे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं पारिस्थितिकीय बाहुल्य क्षेत्र में एक्सप्रेस हाईवे निर्माण की मंजूरी के बाद देश के पर्यावरणविद् गहरी चिन्ता में पड़ गए हैं। उनके सामने कई गम्भीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। इससे एक ओर जहां क्षेत्रीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की समस्या है, वहीं दूसरी ओर शासन की पर्यावरण संरक्षण की अपनी प्रतिबध्दता भी सवालों के घेरे में आ गयी है। इस पर्यावरण विरोधी योजना से प्रकृति को काफी नुकसान पहुंचने की संभावना है।

गंगा एक्सप्रेस परियोजना जिस भौगोलिक क्षेत्र पर बननी है, वह गंगा नदी से लगा हुआ उपजाऊ मैदानी क्षेत्र है। बलुई, दोमट व ''यूमस मृदा से निर्मित यह क्षेत्र दलहनी, तिलहनी फसलों के अच्छे उत्पादन के लिए जाना जाता है। साथ ही इस क्षेत्र में अनादि काल से बहुमूल्य वनस्पतियों एवं जीवों का पोषण भी हो रहा है।

लोक निर्माण विभाग और सिंचाई विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक हाईवे की कुल लम्बाई नरौरा से बलिया तक 1000 कि.मी. होगी। इसकी चौड़ाई 100 मी. होगी। इस मानक के अनुसार इस हाईवे के निर्माण से गंगा के उपजाऊ इलाके का बड़ा क्षेत्रफल प्रभावित होगा। विशेषज्ञों के लिए यह काफी विचारणीय पहलू है कि सरकार जहां राष्ट्रीय कृषि नीति के आधुनिकीकरण के द्वारा फसलों का उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रयत्नशील है, वहीं दूसरी ओर हाईवे निर्माण के द्वारा एक महत्वपूर्ण कृषि क्षेत्र को हमेशा के लिए नष्ट करने जा रही है।

हम सभी जानते हैं कि गंगा का तटवर्ती क्षेत्र अपने शांत व अनुकूल पर्यावरण के चलते रंग-बिरंगे पक्षियों का संसार अपने आंचल में संजोए हुए है। यहां की उत्कृष्ट पारिस्थितिकी संरचना में कई प्रजाति के वन्य जीवों जैसे नीलगाय, सांभर, खरगोश, नेवला, चिन्कारा के साथ सरीसृप-वर्ग के जीव-जन्तुओं को भी आश्रय मिला हुआ है। इस इलाके में ऐसे कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियां हैं जो दुर्लभ होने के कारण संरक्षित घोषित की जा चुकी हैं। आठ लेन का हाइवे बनने के बाद जीव-जन्तुओं के लिए अपना अस्तित्व बनाए रख पाना मुश्किल हो जाएगा। उन्हें पानी के स्रोत तक पहुंचने के लिए काफी जद्दोजहद करनी होगी। यातायात जनित धवनि प्रदूषण से इनका जीवन एवं स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होगा। संक्षेप में कहें तो हाइवे निर्माण के साथ ही इन जीव-जंतुओं का जीवन संकटग्रस्त होता चला जाएगा और अंतत: कुछ वर्षों के बाद इनका नामोनिशान मिट जाएगा।

हाइवे निर्माण के बाद गंगाजल के प्रदूषण की समस्या और गंभीर हो जाएगी क्योंकि हाइवे के किनारे बनने वाले शहरों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों का सारा कचरा गंगा में ही उड़ेला जाएगा। गौरतलब है कि आज भी नगरों-महानगरों से निकलने वाले मल-जल तथा औद्योगिक इकाईयों से विसर्जित विषाक्त गंदे जल को गंगा में बेरोक-टोक मिलाया जा रहा है। इस प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार गंगा निर्मलीकरण योजना के अन्तर्गत प्रति वर्ष करोड़ों रुपए फूंक रही है। पर गंगा की हालत बिगड़ती जा रही है। ऐसी हालत में यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि जब वर्तमान शहरों के प्रदूषण को ही सरकार संभाल नहीं पा रही है तो संभावित नए शहरों के कारण होने वाले प्रदूषण से भला वह कैसे निपटेगी।

हाइवे की योजना बनाने के पहले इस बात पर बिल्कुल विचार नहीं किया गया है कि यदि गंगा ने अपना प्रवाह बदल लिया तो क्या होगा। नदियों के प्रवाह मार्ग पर काफी लम्बा अध्ययन करने के उपरान्त विशेषज्ञों द्वारा यह माना जा चुका है कि कालान्तर में नदी अपना मार्ग 4 कि.मी. के दायरे में परिवर्तित करती रहती है। विश्व की कई नदियों का इतिहास इस बात का गवाह है। इस परियोजना में नदी तट से डेढ़ कि.मी. की दूरी पर मार्जिनल बांध एवं हाईवे बनाया जाना प्रस्तावित है। यह नदी के प्राकृतिक प्रवाह मार्ग से बहुत बड़ी छेड़खानी है। इसके चलते भविष्य में कई हानिकारक भौगोलिक परिवर्तनों का सामना करना पड़ सकता है।

बांध एवं हाईवे निर्माण की प्रक्रिया में एक ओर जहां सैकड़ों गांवों को विस्थापित करना पड़ेगा, वहीं गंगातट पर स्थित सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक सम्पत्तियों को भी भारी क्षति पहुंचेगी। इतना ही नहीं नदी की बायीं ओर ऊंचे बांध के चलते जल स्तर तथा प्रवाह बढ़ने पर पूरा दबाव दाहिने किनारे की ओर पड़ेगा। इससे इधर तट का कटाव काफी तेज हो जाएगा। परिणामस्वरूप दाहिने तट पर स्थित नगरों-गांवो को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। इन गांवों-नगरों में स्थित कई पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व के स्थान कटान के चलते तहस-नहस हो जाएंगे। इनका अस्तित्व देश के मानचित्र से हमेशा के लिए मिट जाएगा। हमारे नेता यह बात भूल जाते हैं कि विश्व में आबादी की दृष्टि से दूसरे स्थान वाले इस देश की दिन-प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या तथा उसकी असीमित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भूमि सबसे बुनियादी चीज है। धरती पर जीवन के प्रबल अधिकारी अन्य जीव-जन्तुओं की बात तो अलग है, आज के हालात में तो मनुष्य के लिए भी भूमि कम पड़ती जा रही है। भौतिक विलासिताओं को पूरा करने के लिए अगर ऐसी योजनाओं को मंजूरी मिलती रही तो निकट भविष्य में हम सभी एक ऐसी भयावह पारिस्थितिकी एवं पर्यावरणीय दुष्चक्र में घिर जाएंगे,जिसके समाधान की कोई तकनीक मानव के पास उपलब्ध नहीं है।

संपर्क : त्रिवेणी परिसर, बरेवां, भरेहठा, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेशhttp://www.bhartiyapaksha.com

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