सूखा झेल रहा बुंदेलखंड
चार साल से लगातार सूखा झेल रहे बुंदेलखंड की दशा पर कितने ही धुरंधरों ने अपनी कलमें चलायीं, कितनों ने ही सूखी नहरों, सूखे खेतों को कैमरों में कैद कर दुनिया को बुंदेलखंड की हकीकत बतलायी और दिखायी। दुनिया के भूखे किसानों से हमारी पहचान करायी, इसलिए नहीं कि नेता यहां घोषणाओं की दुकाने खोलें बल्कि इसलिए कि सभी एकजुट हाें और बुंदेलखंड को इन विषम परिस्थितियों से उबारने के लिए कोई ठोस कदम उठाएं।
आज के बुंदेलखंड में हर जगह सरकारी व्यवस्था के खिलाफ गहरा असंतोष है। अव्यवस्था का आलम छोटी-छोटी चीजों तक के लिए है। एक वृद्ध वृद्धावस्था-पेंशन का आवेदन पत्र भरकर अगले कई वर्षों तक विभाग द्वारा स्वीकृत कर लिए जाने की राह देखता भर रह जाता है। सौ-पचास रुपये देने के बाद अगर स्वीकृत हुआ तो ठीक अन्यथा अगला एक वर्ष तो पुन: आवेदन भरे जाने के लिए प्रधान की चिरौरी में ही बीत जाता है।
भोजन सुरक्षा की सरकारी योजनाओं का असफल क्रियान्वयन हर जगह साफ दिखाई देता है। समस्याएं तो हैं ही, भ्रष्टाचार की स्थिति भी बदतर है। ग्रामीण विकास से संबंधित परियोजनाओं को गांव तक लाने के लिए प्रधान को न जाने कितने पापड बेलने पडते हैं, जबकि कुल अनुदान राशि का कम से कम 30 फीसद तो संबंधित महकमे का फिक्स्ड कमीशन ही हो जाता है।
ऐसे में, बुंदेलखंड के लिए मायावती सरकार ने 80 हजार करोड क़ा जो विशेष पैकेज मांगा है, क्या वह सरकारी नौकरों के लिए अशर्फियों की बरसात से कम होगा? इस 80 हजार करोड में से बुंदेलखंड की जनता को क्या मिलेगा यह सब जानते हैं। एक ग्रामीण वृद्धा श्यामदेवी ने कहा कि 'बडे नेता व अधिकारी तो हम गरीबों से भी गरीब होते हैं तभी तो हमारे हिस्से की रोटी भी हडप कर जाते हैं।'
चित्रकूट के मानिकपुर ब्लाक के टिकरिया गांव में एक सामाजिक संस्था द्वारा करवाए गए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम के अनुसार नरेगा के सोशल ऑडिट (सामाजिक अंकेक्षण) में लाखों के घोटाले का पर्दाफाश हुआ। घोटाले के पर्दाफाश के कई सकारात्मक परिणाम हो सकते थे जैसे - घोटाले के जिम्मेदार अधिकारियों से घोटाले की राशि वसूली जाती, या उन्हें इस हेतु सख्त निर्देश देते हुए कुछ दिनों निलंबित रखा जाता ताकि पुन: इस तरह के घोटालों की संभावना रोकी जा सके। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि एक ईमानदार अधिकारी जिन्होंने सामाजिक संगठन को सोशल-ऑडिट हेतु अनुमति प्रदान की थी उन्हीं को भ्रष्ट घोषित करके तबादला कर दिया गया।
बजट में केन्द्र द्वारा ऋणमाफी की घोषणा से किसान को थोडी देर के लिए तो हो सकता है कि राहत की सांस मिल जाए लेकिन सोचना यह है कि क्या ये घोषणाएं किसानों को चिरकालिक आर्थिक सुदृढता प्रदान कर पाएंगी? क्या ये घोषणाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि अगले वर्ष किसानों पर पुन: ऋण नहीं चढेग़ा?
छोटे और सीमांत किसानों की बडी संख्या आज संस्थागत ऋणों के बजाय महाजनों व रिश्तेदारों के ऋण के बोझ के तले दबी हुई है। गांव-गांव में गरीबों को ऋण के लिए उत्प्रेरित करने वाले दलालों का जाल बिछा हुआ है, जो बैंकों से सांठ-गांठ कर गरीबों के ऋण का बडा हिस्सा खा जाते हैं। 70 प्रतिशत कृषक आबादी वाले देश में कारों से मंहगे ब्याज पर ट्रैक्टर मिल रहे हैं। जहां पिछले पांच साल से बारिश का ग्राफ लगातार गिरता रहा है। वहां जल संरक्षण की सभी वैकल्पिक व्यवस्थाओं को नजरंदाज और खत्म किया गया है। आने वाली गर्मी के महीने बुंदेलखंड को और भी विकट परिस्थितियों में डालेंगे। यहां खराब हैंडपंपों की मरम्मत का काम जल निगम ग्राम पंचायत को सौंप कर छु्ट्टी पा जाता है। भूमि कटाव रोकने, जल संरक्षण के लिए वाटरशेड, चेकडैम, बंधी निर्माण, वनीकरण और बंधियों पर वृक्ष लगाकर हरियाली लाने की अरबों रुपये की योजनाएं केवल कागज तक ही सीमित रह गयी। बंजर भूमि को उर्वर बनाए जाने की कई योजनाएं कागजों पर ही चलती रही हैं, नतीजा बुंदेलखंड की कुल कृषिभूमि की लगभग 50 फीसद कृषि भूमि आज बंजर पडी है।
स्थिति यह हो गयी है कि किसान अपने पालतू जानवरों को छुट्टा छोडने को मजबूर हैं क्योंकि वे उन्हें चारा तो क्या पानी तक पिला पाने में असमर्थ हैं। जनवरी माह में ही स्थिति यह थी कि पानी के अभाव में कई विद्यालयों में दोपहर का भोजन तक नहीं बनाया जा रहा था। यह कहा जा सकता है कि बुंदेलखंड को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए कुदरत से ज्यादा तुगलकशाही और भ्रष्टाचार जिम्मेदार हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार से प्राप्त मुनाफे का कितना हिस्सा सरकारी मुलाजिम रखते हैं और कितना मंत्री। ऐसी स्थिति में मंत्री जी सरकारी महकमों को दुरुस्त करने की बात भला कैसे सोचें। बुंदेलखंड में लगातार जंगल काटे जा रहे हैं। लोगों के लिए आजीविका के कुछ ही जरिये रह गये हैं या तो लकडी क़ाट कर बेचें या पत्थर तोडें अथवा पलायन कर जाएं।
किसानों के पास अब खेती नहीं रही। खेत के खेत गिरवी रख दिये गये हैं। जमींदार अब शहरों में चौकीदारी पर उतर आए हैं। गांव के गांव बुजुर्गों से भरे पडे हैं। उनके जवान बेटे शहरों की तरफ पलायन कर गए हैं। एक किसान किन परिस्थितियों में अपनी खेती-किसानी छोड अनजान स्थानों की ओर पलायन करता है इसका दर्द बस वह ही समझ सकता है। जल-जंगल-जमीन सब कुछ गांव के लोगों का लुटता जा रहा है। बडे-बडे पहाड समतल भू-भाग में बदल रहे हैं। पहाडाें को काट रहे क्रशर वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। यहां लगे मजदूर 40 से 50 तक की उम्र में सिलकोसिसनामक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। गांव के गांव विधवाओं से भरे पडे हैं। एक जमाने में प्राकृतिक सम्पदाओं से संपन्न बुंदेलखंड आज जल, जंगल और खूबसूरत पहाडाें की बरबादी का दंश झेल रहा है।
राजनीतिक पार्टियों की घोषणाएं सीधे-सादे किसानों को बरगलाकर अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार करने के अलावा और कुछ नहीं हैं। आज बुंदेलखंड में नित नए नेताओं का तांता लगा रहता है। सडक़ें चमकाईं जाती हैं। स्वागत की तैयारियां जोरों पर होती हैं। फटाफट बिजली के खंभे लगाए जाते हैं। अधिकारी एक ओर तो अपना चेहरा चमकाकर नेताओं की जी हुजूरी पूरी करते दिखते हैं तो दूसरी ओर वर्षों से न्याय की बाट जोह रहे ग्रामीणों को अपने मामले अपने तक ही रखने की ही सलाह देते हैं। नेताओं को सूखे-परती खेत दिखाए जाते हैं पर महीनों से ठंडे पडे चूल्हे नहीं दिखाए जाते। पार्टियों के प्रतिनिधि हमारे बीच से ही निकले हैं जो वस्तुस्थिति से अनजान नहीं हैं तब वे सवालों से क्यों परहेज करते हैं। वे संबंधित विभागों से ये क्यों नहीं पूछते कि अगर कुदरत ने नाइन्साफी की तो की लेकिन भोजन सुरक्षा की सभी योजनाएं भी लोगों को भूखे मरने से बचाने में क्यों असफल रहीं? असहायों के लिए अन्नपूर्णा योजना क्या उन्हें एक समय का भी भोजन उपलब्ध नहीं करा सकीं, राशन की दुकानों से बंटने वाला 25 कि.ग्रा. राशन क्या उन्हें जीवित रखने में सक्षम नहीं था? आंगनबाडियां बच्चों, किशोरी-लडक़ियों व महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा क्यों नहीं कर पाए? मध्यान्ह भोजन क्या बच्चों को कम से कम एक समय अगर संतुलित आहार उपलब्ध करा पाता तो क्या किसान माता-पिता का बोझ थोडा कम न होता? आदेशों के अनुसार नरेगा में कार्यरत श्रमिकों की मेहनत का मेहनताना क्यों नहीं कुछ दिन और उनके परिवारों का पेट पाल सका?
ऊंचे-ऊंचे पहाडाें की कटाई करने वाले मजदूर परिवारों को क्या मिला कि नौबत यहां तक आ पहुंची? क्यों इन पांच साल में तालाबों को भरा नहीं गया, क्यों उपयोगी व फलदायी पौधों के बजाए विदेशी बबूल जैसे पौधे लगाए गए?
अत: जरूरी है कि सरकारी तंत्र को दुरुस्त करते हुए उसे कार्यों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। देश भर के कृषि विश्वविद्यालयों में खाद्यान्न उत्पादन से संबंधित शोधों को किसानों तक पहुंचाया जाए। सिंचाई, खाद व बिजली व्यवस्था को बेहतर बनाने में कोई कसर न छोडी ज़ाए। किसानों को उनकी पैदावार का समुचित समर्थन मूल्य मिले और फसल बीमा प्रणाली ऐसी हो कि किसान कर्जे से मुक्त रह सके। सूखे की समस्या के स्थायी हल व उपाय के लिए बीपीएल, अन्नपूर्णा और अंत्योदय जैसी कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा अन्य विकास योजनाओं को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए।
बुंदेलखंड के किसानों को चाहिए कि वे ऋणमाफी का झुनझुना न पकडें बल्कि अपनी आर्थिक सुदृढता की आधारभूत मांगों को लेकर सडक़ों पर उतरें।