निर्मल हुईं अपावन नदियां
नौ साल पहले एक फैक्ट्री के प्रदूषण के चलते चलियार नदी का पानी जहर हो चुका था. मगर फिर व्यापक जनआंदोलन के बाद 1999 में फैक्ट्री बंद हुई और आज चलियार जहर से आजादी पाकर जीवनदायिनी नदी के रूप में फिर से बहने लगी है. के ए शाजी की रिपोर्ट.
केरल की चौथी सबसे बड़ी नदी चलियार में जिंदगी फिर से बहने लगी है. इसका पुनर्जीवन नदी के किनारे बसे मल्लपुरम और कोजिकोड़ जिले के पांच लाख लोगों के लिए भी बड़ी राहत लेकर आया है. चलियार पिछले कई दशक से प्रदूषण की मार झेल रही थी. वजह थी आदित्य बिरला समूह के कारखाने ग्वालियर रेयॉन्स से नदी में समाती गंदगी. एक रिपोर्ट के मुताबिक एक समय तो हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इसके पानी एक वक्त था जब नदी के किनारों पर बसे लोग इसके पानी में घुले जहर के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे थे. अब ये खतरा दूर हो गया है. मछलियों की बढ़ती संख्या बता रही है कि चालीस साल तक नदी के पानी में घुला जहर अब खत्म हो गया है.
और कीचड़ में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. लेकिन व्यापक जनविरोध के चलते फैक्ट्री बंद होने के नौ साल बाद मावूर और वझाकड़ इलाकों से होकर गुजरने वाली 169 किलोमीटर लंबी चलियार आज फिर से स्वच्छ पानी की अमृतधारा बन गई है. एक वक्त था जब नदी के किनारों पर बसे लोग इसके पानी में घुले जहर के फलस्वरूप कैंसर और दूसरी जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे थे. अब ये खतरा दूर हो गया है. मछलियों की बढ़ती संख्या बता रही है कि चालीस साल तक नदी के पानी में घुला जहर अब खत्म हो गया है.
चलियार की विपदा की शुरुआत तब हुई जब 1958 में केरल में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार अस्तित्व में आई. मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद इस आम धारणा को दूर करने के लिए उत्सुक थे कि कम्युनिस्ट हड़ताल करवाकर कारखाने बंद करवा देते हैं और उद्योगों की तरक्की से उन्हें कोई मतलब नहीं. इसलिए उनकी सरकार ने उस समय के सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में से एक के साथ समझौते पर दस्तखत किए और 1963 में मावूर में ग्वालियर रेयॉन्स सिल्क लिमिटेड का कारखाना शुरू हुआ. ये राज्य में सबसे बड़ा निजी उपक्रम था और इसे खुश करने के लिए कई तरह की रियायतें दी गईं.
इसकी पहली मार चलियार पर पड़ी. कंपनी को इस बात की छूट थी कि औद्योगिक इस्तेमाल के लिए वो चलियार से जितना चाहे पानी ले सकती है और कारखाने से निकलने वाला कचरा नदी में डाल सकती है. खतरा सामने आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. कारखाना शुरू होने के कुछ समय बाद ही चलियार का पानी पीकर पशुओं के मरने की खबरें आने लगीं. 1965 से चलियार बचाओ समिति के गठन के साथ ही कारखाने के विरोध का सिलसिला शुरू हुआ जिसकी परिणति 1999 में इसके बंद होने के रूप में हुई.
हालांकि इससे 2000 लोग बेरोजगार तो हुए मगर आज वो खुश हैं कि नदी में जिंदगी लौट आई है. इसके फायदे भी दिखाई देने लगे हैं. मछली उद्योग अब एक लाभकारी व्यवसाय बन गया है. पशुओं की संख्या बढ़ रही है. स्थानीय लोगों का स्वास्थ्य पर होने वाला खर्चा काफी कम हो गया है और लोग अब आराम से नदी में तैर और नहा सकते हैं.
जैसा कि विरोध की अगवाई करने वालों में से एक बाबू वर्गिस कहते हैं, “न सिर्फ मछलियों की कई प्रजातियां फिर से पाई जाने लगी हैं बल्कि उनका स्वाद भी पहले से बेहतर है.” वर्गिस उन कुछ लोगों में से एक है जिन्होंने कारखाने को बंद करवाने के लिए चलियार बचाओ अभियान शुरू किया था. ये लोग आज इसलिए भी खुश हैं कि तब औद्योगीकरण और रोजगार की दुहाई देकर अभियान से दूरी बनाने वाले लोग भी जहरमुक्त पानी के फायदों को महसूस कर रहे हैं. चलियार को बचाने के लिए लड़ी गई लड़ाई कई मायनों में अनोखी थी. ये आखिरकार एक बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ मिली जीत थी जिसे इंसानों और पर्यावरण की जरा भी चिंता नहीं थी.
कारखाने के खुलने से इलाके की वन संपदा को भी खासा नुकसान हुआ था. 1963 से 1974 के दौरान राज्य सरकार ने कारखाने को बांस और दूसरी जंगली लकड़ियां भारी छूट देकर महज एक रुपये प्रति टन की अवास्तविक कीमत पर उपलब्ध करवाईं. बिजली की कीमत 40 पैसे प्रति यूनिट रखी गई और चलियार से लिए गए पानी पर तो कोई भी शुल्क नहीं वसूला गया. अनुमान लगाया जा रहा है कि अकेले इन छूटों की कीमत ही करीब तीन हजार करोड़ रुपये बैठती है.
जैसा कि अभियान के लिए अपनी नौकरी तक छोड़ने वाले पत्रकार सी सुरेंद्रनाथ कहते हैं, “कारखाने ने सरकार को नाममात्र की कीमत अदा कर वायानाड इलाके की 90 फीसदी बांस के जंगल खत्म कर दिए और यहां के संवेदनशील पारिस्थिकीय तंत्र को काफी नुकसान पहुंचाया. इसके चलते लोगों को सांस, त्वचा संबंधी और कैंसर जैसी कई घातक बीमारियों का भी शिकार होना पड़ा.” मावूर और वाझाकड़ के बीच नाव चलाने वाले अबदुर्रहमान कहते हैं, “सांस लेने के लिए पर्याप्त ताजा हवा नहीं थी. नवजात बच्चों को अंधापन और मंदबुद्धि जैसी कई बीमारियां हो रहीं थीं.” एक स्थानीय डॉक्टर पी के दिनेश कहते हैं, “कारखाना बंद होने के दो साल के भीतर ही बच्चों में होने वाले सांस संबंधी रोगों में गिरावट आ गई.”
चलियार को बचाने के लिए लड़ी गई लड़ाई कई मायनों में अनोखी थी. ये आखिरकार एक बड़े औद्योगिक घराने के खिलाफ मिली जीत थी जिसे इंसानों और पर्यावरण की जरा भी चिंता नहीं थी. “इस लड़ाई ने एक मरती नदी को नई जिंदगी दी”, कहना है पर्यावरणविद सुगथ कुमारी का. विडंबना ये भी है कि सीपीएम, कांग्रेस और बीजेपी जैसी मुख्यधारा की पार्टियों और उनके मजदूर संगठनों ने हमेशा इस आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की और बिरला के पक्ष में खडीं रहीं.
आंदोलन के केंद्रबिंदु वाझायूर पंचायत के अध्यक्ष के ए रहमान रहे. अभियान में मजबूती से कंधा मिलाने वाले रहमान की जनवरी 1999 में कारखाने के प्रदूषण से हुए कैंसर से मौत हो गई थी. इसके विरोध में एक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की गई. मई 1999 में कारखाने ने उत्पादन बंद कर दिया और 2001 में इसे बंद करने की औपचारिक घोषणा कर दी गई.
हालांकि अब इलाके की हवा सल्फाइड की तीखी दुर्गंध से रहित है मगर इस हवा ने जिन लोगों को नुकसान पहुंचाया उन पीड़ितों को मुआवजा मिलना अब भी बाकी है. सुरेंद्रनाथ कहते हैं, “फैक्ट्री बंद होने से हर कोई खुश है मगर कोई भी कंपनी से मुआवजा देने के लिए नहीं कह रहा. शायद इसके लिए एक और संघर्ष छेड़ने की दरकार पड़े.”
आभार - http://www.tehelkahindi.com