खतरे में है गंगा का मायका -

भारत डोगरा
कभी बाढ़ तो कभी पानी की जबर्दस्त कमी। यह हालत देश के विशाल मैदानी इलाकों में अक्सर नजर आती है। इसकी कई वजहें हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह यह है कि पहाड़ी इलाकों में नदियों के जलग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट एरिया का पर्यावरण तबाह हो रहा है। जब पहाड़ी जलग्रहण इलाकों में जंगल घटते हैं, मिट्टी का कटाव तथा भूस्खलन बढ़ता है और बारिश का ज्यादातर पानी जमीन में जाने की बजाय तेजी से नदियों की ओर दौड़ता है, तो नीचे के मैदानी इलाकों में कभी बाढ़ तो कभी जल-अभाव का खतरा पैदा हो जाता है।

यह बात सदियों से भारतीय सभ्यता को सींचने वाली गंगा नदी और उसके मायके उत्तराखंड के मामले में तो और भी साफ नजर आती है। हिमालय के विशाल, लेकिन कच्चे पहाड़ों में वन, भूमि और जल-संरक्षण पर ध्यान देना वैसे भी जरूरी है, वरना मिट्टी के कटाव, भूस्खलन और बाढ़ का खतरा किसी भी हद तक बढ़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में यह संकट पहले से ज्यादा गहरा हो गया है। हालांकि दुनिया भर के ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पीछे खिसक रहे हैं, लेकिन हाल में विशेषज्ञों ने बताया है कि हिमालय में यह सिलसिला औसत से भी तेज है।

इसका मतलब है कि शुरुआती कुछ बरसों में नदियों में पानी सामान्य मात्रा से ज्यादा पहुंच कर बाढ़ की नौबत ला सकता है, जबकि आगे चलकर पानी की जबर्दस्त किल्लत पड़ जाएगी। ग्लेशियर पिघलने से इनके नीचे झीलें बन रही हैं, जिनके किनारे मलबे और बर्फ के बने हैं। बर्फ पिघलने से इनमें से कुछ झीलें अचानक फूट सकती हैं और नीचे के इलाकों में भयंकर तबाही मचा सकती हैं।

होना तो यह चाहिए था कि इस बेहद नाजुक दौर में हिमालय और खासकर उत्तराखंड़ के विकास तथा नियोजन में बहुत सावधानी बरती जाती। आपदाओं की संभावना और नुकसान कम करने को खास तवज्जो दी जाती। लेकिन सरकारी नीतियां इसके उलट रही हैं। उत्तराखंड में नदियों पर ऐसे प्रोजेक्ट बनाए गए, जो इन खतरों को बढ़ाने वाले हैं। इनके नियोजन में ग्लोबल वार्मिंग संबंधी बदलावों को ध्यान में रखा ही नहीं गया।

इनमें शायद सबसे खतरनाक प्रोजेक्ट टिहरी बांध है। जिन नामी विशेषज्ञों, यहां तक कि सरकार की अपनी विशेषज्ञ समितियों ने इस प्रोजेक्ट के खतरों के प्रति समय-समय पर चेतावनी दी, उनकी लिस्ट काफी लंबी है। एनवायरनमेंट मिनिस्ट्री की एक हाई लेवल कमिटी ने विस्तार से बताया था कि भूकंप के बड़े खतरे वाले इलाके में बने इस खतरनाक बांध के टूटने से नीचे के इलाकों में भयानक तबाही मच सकती है। इस आधार पर इस कमिटी ने बांध निर्माण रोकने की सिफारिश की थी, पर इसे सरकार ने नहीं माना।

बाद में जब इस प्रोजेक्ट के हाई टेंशन तार बिछाने का काम चल रहा था तो गंगा की सहायक नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में हजारों पेड़ कटने की नौबत आ गई। एनवायरनमेंट मिनिस्ट्री की समिति के दो सदस्यों से पूछने पर पता चला कि इस बारे में अफसरों ने उन्हें बताया तक नहीं था। इन पेड़ों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में आंदोलन हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने अपना जांच दल भेजा। इस दल के इंस्पेक्शन के बाद अफसरों ने कटान वाली पट्टी की चौड़ाई पहले से काफी कम कर दी, जिससे हजारों पेड़ों की रक्षा हुई। लेकिन इससे यह भी पता चला कि पहले अफसरों ने नाहक ही हजारों पेड़ काटने की तैयारी कर ली थी।

इस तरह की कई मिसालें है कि गंगा के जलग्रहण क्षेत्र को लेकर कितनी लापरवाही बरती जा रही है। कई वर्ष पहले लीसा निकालने के लिए चीड़ के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जाती थी। बहुत हद तक चिपको आंदोलन का ही योगदान था कि उत्तराखंड के एक बड़े इलाके में हरे पेड़ों के कटान पर रोक लगी। इससे गंगा के मायके में पर्यावरण को कुछ राहत मिली, पर उसी समय टिहरी बांध जैसी योजनाएं नया खतरा लेकर सामने आ गईं।

टिहरी बांध से अनेक जोखिमों के साथ विस्थापन की बहुत बड़ी समस्या भी पैदा हुई, जिसका संतोषजनक समाधान आज तक नहीं हुआ। कुछ लोगों ने चाहे चालाकी से अपने लिए अच्छे पैकेज का जुगाड़ कर लिया, लेकिन हजारों साधारण गांववासी आज भी न्याय के लिए भटक रहे हैं। लेकिन टिहरी बांध तो एक शुरुआत है। सरकार ने गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बहुत सी पनबिजली परियोजनाओं को जल्दबाजी में आगे बढ़ा दिया है।

जिन गांवों का जीवन इनसे प्रभावित हो रहा था उनसे बहुत कम मशविरा किया गया। कहीं गांववासियों ने भूकंपीय क्षेत्र के अधिक अस्थिर होने की शिकायत की, कहीं खेत-खलिहान या चरागाह उजड़ने की, कहीं परंपरागत सिंचाई तथा जलस्त्रोत नष्ट होने की, तो कहीं भूस्खलन जैसे खतरे बढ़ने की। कई जगह लोगों ने यह भी कहा कि अगर हमसे मशविरा लेकर काम हो तो हम ऐसे उपाय सुझा सकते हैं जिनसे पर्यावरण के नुकसान और जोखिमों को कम से कम किया जा सकेगा।

भिलंगना नदी के प्रोजेक्ट के बारे में पिफलैंडा और आसपास के लोगों ने यही कहा, लेकिन उनका भयंकर उत्पीड़न किया गया। किसी आंदोलनकारी को जेल में ठूंसा गया तो किसी को निर्ममता से पीटा गया। यह रवैया लोकतंत्र विरोधी तो है ही, देश को खतरे में डालने वाला भी है। इसीलिए उत्तराखंड के लोग अब संगठित होकर नदियों को बचाने की मुहिम शुरू कर रहे हैं, जैसे उन्होंने जंगल बचाने के लिए चिपको आंदोलन छेड़ा था।

सरकार को चाहिए कि वह इस उभरती आवाज पर ध्यान दे और विकास की शुरुआत इस इलाके के परंपरागत घराटों (पनचक्कियों) से करे। इससे ऊर्जा का सस्ता, परंपरागत स्त्रोत बचेगा और स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा। इन घराटों के साथ धीरे-धीरे पनबिजली का उत्पादन जुड़ सकता है। जैसे स्थानीय लोगों की इस मामले में कुशलता बढे़गी, वे अपने गांव के नदी-नालों पर ऐसी माइक्रो व मिनी पनबिजली परियोजनाएं तैयार कर सकते हैं जिनके बुरे असर न्यूनतम हों और जिनकी ऊर्जा से पहाड़ की इकॉनमी मजबूत हो। ऊपर से प्रोजेक्ट थोपने के बजाय इस राह पर चलें तो टकराव के बिना सबकी भलाई का काम होगा।

यह वक्त लापरवाही बरतने का नहीं है, क्योंकि पूरी मानवता का भविष्य दांव पर लगा है। पहले जैसी उपेक्षा अब हम अपने संसाधनों के साथ नहीं बरत सकते। इस बात का अहसास हमें जितनी जल्द हो जाए, उतना अच्छा। सिर्फ सही नीतियां ही हमें आने वाले भयानक खतरों से बचा सकती हैं। जनता को इसका अहसास है, लेकिन शासकों को नहीं।
( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)
साभार - नवभारत टाइम्स

Hindi India Water Portal

Issues