पर्यावरण का विनाश बना है सूखे का कारण - डा. ओम पंकज

प्रकृति से असामान्य तरीके से की जा रही छेड़छाड़ और जनसंख्या के बढ़ते दबाव ने पर्यावरण को तो दूषित किया ही है साथ ही वृक्षों जंगलों की बेतहाशा कटाई के लिए सरकार भी कम दोषी नहीं है। दिन प्रतिदिन वनों का घटता क्षेत्रफल और कालोनियों का बसाहट के लिए उपजाऊ जमीन के सिकुड़ते भू खण्डो ने तथा इंसानों की पेड़ों के प्रति अस्वाभाविक अरुचि ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है वह परिस्थिति किसी से छिपी नहीं है। पानी का फिजूल खर्च और हर वर्ष हो रही बारिश की कमी के कारण जमीन में जलस्तर काफी नीचे पहुंच गया है। करोड़ों रुपये की सरकारी और गैर सरकारी मदद बेअसर हो रही है।
समय रहते यदि हम नहीं चेते और कागजों पर ही बांध, तालाब, झील बनाते और गहरे करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब जीवन चलाने के लिए हमें पानी की भयंकर मारामारी से जूझना पड़ेगा। हालांकि हमारे देश में जगह-जगह नलकूप खोदे जा रहे हैं लेकिन जल स्तर नीचे चले जाने के कारण वे भी बेकार पड़े हैं। इससे करोड़ों रुपये बर्बाद हो गए हैं। हम पानी की आस लगाए बादलों की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं। यह मान ले कि जब तक हम पानी बचाने और पानी के खर्च को नियंत्रित नहीं कर रहे हैं तब तक हम अधोगति की ओर बढ़ रहे हैं। यदि हमें पानी की महत्ता के प्रति जागरुक होना है तो अपनी सोच को बदलना होगा। नये वृक्षों को खड़े करने के लिए देखरेख, समय पर सिंचाई बाउण्ड्री आदि के प्रयत्नों पर ध्यान देना होगा तभी हम पर्यावरण को सुरक्षित रख सकेंगे और बारिश के दिनों में मेघों को लुभाने के लिये सार्थक पहल कर पाएंगे। ऐसी बात नहीं है कि इस दिशा में हमारी सरकार जागरुक नहीं है पर इसमें जब तक जन-जन की भागीदारी नहीं होगी तब तक सार्थक परिणाम की निश्चितता तय नहीं होगी। सरकार और जनसहयोग विकास के दो पहिए है। एक के पास पैसा है, दूसरे के पास श्रम करने के लिए हाथ है। हम उपयोग में लाए गए पानी की धारा को किचिन गार्डन, फूलों के पौधों, फलों के वृक्षों और छोटे-छोटे जमीन के टुकड़ो जिनमें कम पानी वाली फसलें लगी हो मोड़ सकते है। पानी की बूंद-बूंद का सदुपयोग कर सकते हैं अपने घरों के आंगन पशुशाला के पास वाटर टैंक बना सकते है। जरूरत पड़ने पर यही पानी हमारी दैनिक निस्तार के कामों मे उपयोग किया जा सकता है। पानी ही जीवन है यह सभी जानते हैं बिन पानी सब सून। इससे यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट है कि बिना पानी के कुछ नहीं होगा। खाना बनाने से लेकर जीवन चलाने और फसले पैदा करने के लिए पानी की अत्यधिक आवश्यकता है। तो आइए देखे इसके बचत का तरीका और बेहतर प्रबंधन जिससे न केवल हम पानी का जलस्तर उठाने में ही सहायक होगें बल्कि बारिश के जल का बेहतर उपयोग कर अपनी आगामी पीढ़ी की खुशियों का अमूल्य उपहार में भेंट करेंगे। समय की मांग है कि हम खेतों में ऐसी फसलें उगायें जो कम से कम पानी में तैयार होकर हमें भरपूर अनाज तो दें ही साथ ही फसल चक्र को प्रभावित न करे जैसे – ज्वार, मक्का, तिल्ली मूंग उड़द आदि।
प्रायः हमारे देश में 50 प्रतिशत पानी ही उपयोग में आता है जबकि हम चाहे तो नब्बे से पिच्चान्वें प्रतिशत तक पानी का उपयोग कर सकते हैं। पलास्टीकल्चर पद्धति से खेतों में सिंचाई हेतु प्लास्टिक का सिस्टम डाला जाता है जिसमें मेन पाइप लाइन से लेकर सहायक लाइन एवं पौधों की जड़ों एवं पौधों तक पहुंचने वाली रुट लाइन तक कवर की जाती है। इस पद्धति में बूंद-बूंद पानी का उपयोग कर धान, गन्ने तक की खेती की जा सकती है। प्लास्टीकल्चर सिस्टम में प्रति हेक्टेयर खर्च सात-आठ हजार रुपये के लगभग आता है। यह सिस्टम तीन वर्ष तक बखूबी चलता है। इसके बाद आधे पैसों में वापस हो जाता है। फिर प्लास्टिक का नया सिस्टम खरीदकर खेत में डाल देते है। महाराष्ट्र में वर्षों से इस तकनीक का उपयोग कर फसलें पैदा की जा रही है। हर किसान अपने खेतों में कच्चा या पक्का जैसी भी स्थिति हो छह फीट गहरा तालाब एक बीघा भूमि में बना ले तो उसमें बारिश का पानी एकत्रित हो जाएगा। जिसको डीजल पम्प या विद्युत मोटर द्वारा लिफ्ट कर फसल में उपयोग किया जा सकता है। पानी भाप बनकर न उड़े इसके लिए तालाब पर प्लास्टिक का तिरपाल डाल सकते हैं। घरों के आंगन में एक ओर या पशुशाला के पास बीस फुट बाय बीस फुट या पच्चीस फुट बाय बीस फुट के छः फुट गहरे हौद बनाकर उनकी भीतरी एवं नीचे की सतह सीमेंट से प्लास्टर कर घरेलू पानी के निस्तार के लिए बनाई जा सकती है। इसमें बारिश का पानी संग्रहित किया जा सकता है। जहां पर जलस्तर ऊंचा है वहां कुंए ही बनाए जाएं ताकि जलस्तर ऊपर बना रहे और लोगों को पीने योग्य पर्याप्त पानी उपलब्ध होता रहे क्योंकि कुएं में झिर होने से पानी के स्रोत स्थायी हो जाते हैं जिससे हमेशा उपयोग के लिये पानी मिलता रहता है। गांव के नदी एवं नाले जिनकी गहराई कम हो गयी है वर्षों से सफाई न होने के कारण और साल-दर-साल अंधड़ में आए घास फूसों, पत्तों मिट्टी कचरे आदि के कारण सतह उथली हो गयी है वहां पंचायतों और जन भागीदारी के संयुक्त प्रयासों से नदी एवं नालों को अधिकाधिक गहरा कराया जाए। जिससे अधिक से अधिक पानी का संचय हो सके। बाद में इस पानी का उपयोग खेती एवं गृहस्थी दोनों मोर्चो पर किया जा सके। उपरोक्त उपाय तभी सार्थक हो पाएंगे। जब हम पानी की बचत करने के प्रति ईमानदारी बरतेंगे। जरुरत है पानी की महत्ता के लिये जन आंदोलन खड़ा करने और लोगों में इसके लिये जागृति लाने की, तभी देश और प्रदेशों का भला हो सकता है। इस तरह हम पानी की बचत कर एंव निस्तारित पानी का उपयोग कर हर घर में चार पेड़ लगाने और उनके रख-रखाव के प्रति सचेत करने की प्रेरणा प्रचार-प्रसार के माध्यमों से देकर देशों की खुशहाली के रास्ते पर ले जाते हुए राष्ट्र को सूखे की भयावह त्रासदी से मुक्ति दिला सकते हैं।
दून दर्पण (देहरादून), 16 May, 2006

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