गंगा सहित विश्व की दस बड़ी नदियों पर सूखने का खतरा

विश्व की दस बड़ी नदियों पर सूखने का खतरा मंडरा रहा है। मौत के कगार पर खड़ी इन नदियों में हमारी गंगा भी हैं। यदि हालात नहीं सुधारे गए तो बीस साल बाद गंगा का अस्तित्व इतिहास की धरोहर हो जाएगा। यह खुलासा विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की एक रिपोर्ट में किया गया। गंगा के बिना भारत का अस्तित्व कल्पनातीत है, लेकिन लगता है यह कल्पना हकीकत में बदलने जा रही है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते प्रदूषण, नौवहन सेवाओंं में वृद्धि, बाँध निर्माण, जलवायु परिवर्तन और भूजल के अंधाधुंध दोहन ने गंगा समेत दुनिया की दस प्रमुख नदियों को संकट के कगार पर पहुँचा दिया हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका और एशिया के घनी आबादी वाले क्षेत्रों से होकर बहने वाली ये वे नदियाँ है जिन पर विश्व की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा अपनी जीविका और स्वच्छ जल के लिए निर्भर है। इन नदियों में भारत की गंगा और सिंधु के अलावा चीन की यांत्सी, मेकाँग और साल्वीन, ऑस्ट्रेलिया की मुरे डार्लिंग, दक्षिण अमेरिका की लॉ प्लाटा और रियो ग्रांडे तथा योरप की डेन्यूब शामिल हैं।
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स्वच्छ जल कार्यक्रम के प्रमुख डेविड टिकनर ने कहा कि दुनिया गंभीर जल संकट के दौर से गुजर रही हैं । इस पर काबू पाने के युद्धस्तर पर प्रयास जरूरी हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि सरकारों और नीति-निर्माताआें के लिए यह समझना जरूरी है कि यह समस्या जलवायु परिवर्तन से भी ज्यादा गंभीर है।
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इन नदियों को दुनिया मे स्वच्छ मीठे जल का एकमात्र सबसे बड़ा जल स्त्रोत बताया गया है। ये नदियाँ सिर्फ मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि इस धरती पर बसने वाली सभी जीव-जंतुआें के लिए प्राणदायी हैं। ऐसे में इनके संरक्षण को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा बनाया जाना चाहिए। रिपोर्ट में दुनिया की इन प्रमुख नदियों पर मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की व्यापक समीक्षा की गई है।
गंगा, सिंधु, नील और यांत्सी नदियाँ प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में हैं। यूरोप की डेन्यूब को नौवहन से नुकसान पहुँच रहा हैं। रियो ग्रांडे अति दोहन से संकट में है जबकि लॉ प्लाटा और साल्वीन बाँधों के निर्माण का शिकार बन रही हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के महासचिव रवि सिंह के अनुसार गंगा का साठ प्रतिशत जल सिंचाई के लिए इस्तेमाल में ले लिया जाता है। लिहाजा इसके जल प्रवाह में कमी से भूजल पर अतिरिक्त भार पड़ रहा है।
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गंगा नदी को भारतीय संदर्भो में पवित्रता का सर्वोच्च मानक कहा गया है। इसलिए जहाँ पवित्रता की दरकार होती है, वहाँ इस पैमाने पर पवित्रता की स्थिति को आँका जाता है। लेकिन यदि पैमाना ही गंदा हो जाए तो ? जाहिर है, अब अफरा तफरी वैसी ही मचेगी, जैसी आज गंगा के हिमालयी उद्गम गंगौत्री और उसके आसपास के क्षेत्र में फैलती जा रही गंदगी को लेकर मच रही है। पिछले दिनों संेट्रल इम्पॉवर्ड क्रॅमिटि ने गंगौत्री का दौरा कर जो तथ्य सामने रखे हैं, वे भयावह स्थिति को रेखांकित करते हैं। उच्चतम न्यायालय को पेश इस रिपोर्ट के अनुसार वह पूरा इलाका कचरे, गंदगी से घिरता जा रहा है। सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भारी संख्या का अपना प्रभाव एवं दबाव भी गंगौत्री पर दिखाई देने लगा है।
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गंगौत्री से निकली गंगा को हरिद्वार से आगे बढ़ते ही कचरे, गंदगी को ढोने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। बनारस, इलाहाबाद, कानपुर में गंगा पवित्रता के अपने ही पैमाने पर खुद विफल सिद्ध हो जाती है। उसका उपयोग जल और आस्था से ज्यादा कचरा और गंदगी को बहा देने में ज्यादा किया जाने लगा है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी के खिलाफ कायम इस प्रवृत्ति के वेग का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अरबों रुपए और हजारों कर्मचारियों को झोंक देने के बाद भी गंगा अभियान अपनी राह तक पर न चल सका। लक्ष्य की बात तो दूर की है।
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गंगा के बाद उसके उद्गम स्थल तक प्रदूषण का पहुँच जाना गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए था। यह चिंता जनसाधारण में उभरती तो आशा की जा सकती थी कि गंगा मैली नहीं रहेगी। शासन की चिंता और उसके परिणाम तो सभी जानते हैं। कहना कठिन है कि गंगा को अब भी कोई राजा भगीरथ मिल पाएगा या नहीं। पवित्रता को कलुषित होते देखना तब तक हमारी लाचारी बनी रहेगी।
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गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने की कार्य योजना गंगा एक्शन प्लान अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद विफल साबित हुई है इस योजना के जरिए गंगा को १९९० तक पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त और स्वच्छ कर दिया जाना था।
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यह योजना पूरी तरह केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्देशित है जबकि इसका क्रियान्वयन संबद्ध राज्यों के हाथ में है। पिछले दिनों संसद की लोकलेखा समिति के सभापति और सांसद प्रो. विजयकुमार मलहोत्रा ने गंगा एक्शन प्लान पर सरकार की कार्रवाइयों पर लोकसभा में पेश रिपोर्ट में चिंता करते हुए कहा कि गंगा एक्शन प्लान प्रथम मार्च १९९० में पूरी की जानी थी उसे मार्च २००० तक बढ़ाया गया। इसके बावजूद यह योजना पूरी नहीं हुइंर् और अपना वांछित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकी। गंगा एक्शन प्लान द्वितीय को वर्ष २००१ में पूरा किया जाना था जिसे सितंबर २००८ तक बढ़ा दिया गया है।
समिति ने इस असाधारण देरी के लिए केन्द्र सरकार राज्य सरकारों और अन्य एजेंसियों की तीखी निंदा की है। समिति ने सभी पर गैर जिम्मेदाराना ढंग से काम करने और उनमें परस्पर तालमेल के अभाव का आरोप लगाया है । गंगा नदी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल से बहते हुए देश की लगभग ४० प्रतिशत आबादी के जीवन का आधार बनती है। गंगा नदी इन राज्यों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
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गंगा नदी की व्यापक उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन पर्यावरण विभाग और अब पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एक बड़ी योजना गंगा एक्शन प्लान तैयार की थी। इस योजना के लिए १९८४ में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक सर्वेक्षण किया। योजना की देखरेख के लिये १९८५ में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण का गठन किया गया था। गंगा एक्शन प्लान के अन्तर्गत जून १९८५ में औपचारिक रुप से काम शुरु हुआ और गंगा योजना निदेशालय की स्थापना की गई। शुरुआत में गंगा एक्शन प्लान का उद्देश्य प्रदूषण घटाना था लेकिन बाद में इसका ध्येय इस नदी के जल को स्नान योग्य बनाना भी घोषित कर दिया गया। यह योजना गंगा को पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त करने के योग्य नहीं प्रतीत हुई इसलिए गंगा एक्शन प्लान द्वितीय शुरु किया गया। गंगा एक्शन प्लान प्रथम का क्रियान्वयन उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल में किया जाना था जबकि गंगा एक्शन प्लान द्वितीय के तहत गंगा की सहायक नदियों यमुना, दामोदर और गोमती को भी प्रदूषण मुक्त किया जाना हैं । उत्तर प्रदेश में विश्व में पर्यावरण की स्थिति और कार्ययोजना में कहा गया है कि गंगा एक्शन प्लान पर १५०० करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं फिर भी गंगा नदी का प्रदूषण खतरनाक ढंग से बढ़ रहा हैं अध्ययन के अनुसार राज्य में होने वाली कुछ बीमारियों में से नौ से १२ प्रतिशत का कारण गंगा का प्रदूषित पानी है।
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समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा एक्शन देश में अपनी तरह की पहली योजना थी जो औधे मुंह गिरी है इसकी सफलता अन्य योजनाओंं के लिए उदाहरण हो सकती थी लेकिन यह एक सबक बन गई। इसकी असफलता के लिए व्यापक पड़ताल जरूरी है जिससे इसकी असफलता की जिम्मेदारी तय की जा सके।
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समिति ने कहा है कि गंगा एक्शन प्लान वास्तव में एक ऐसी बंदूक साबित हुई जिसे दूसरे के कंधे पर रखकर चलाया गया है। यह योजना केन्द्र सरकार की है और इसका क्रियान्वयन संबद्ध राज्य सरकारों द्वारा किया जाना है। राज्य सरकारों के कामकाज में कोई तालमेल नहीं रहा। समिति ने रिपोर्ट में लिखा है - ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा एक्शन प्लान विभिन्न विभागों और एजेंसियों का असमन्वित और दिशाहीन मेल बनकर रह गई है।
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गंगा कार्य योजना से संबद्ध मंत्रालय ने इस योजना में विलंब के लिए अनुभव की कमी भूमि अधिग्रहण में देरी मुकदमेबाजी और अदालती मामले, संविदा संबंधी विवाद एवं आवंटित धनराशि का अन्यत्र इस्तेमाल होना बताया। लेकिन समिति का मानना है कि ये ऐसे कारण है जिनका पहले अनुमन लगाया जा सकता था और उनसे निपटा जा सकता था। वास्तव में गंगा कार्य योजना का विफलता का प्रमुख कारण अधिकारियों की उदासीनता और लापहरवाही रही है।
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बिहार में इस योजना के लिए आवंटित धनराशि बिहार राज्य जल परिषद के कर्मचारियों का वेतन बांटने में खर्च कर दी गई। इस योजना का क्रियान्वयन पूरी तरह से राज्यों के भरोसे छोड़ दिया गया। राज्य सरकारों ने इसे स्थानीय संस्थानों और स्थानीय गैर सरकारी संस्थाआें को नहीं सौंप कर अपने केन्द्रीय अधिकरणों को सौपा जिसका नतीजा बिहार राज्य जल परिषद के रुप में सामने आया। समिति की रिपोर्ट के अनुसार गंगा कार्य योजना में सबसे बड़ी खामी, जनसहभागिता का अभाव रहा। गंगा नदी सरकार विशेष की नहीं बल्कि आमजन मानस की आस्था को छूती है।
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इसके संबंध में कोई भी निर्णय लेते समय आमजन को ध्यान में रखा जाना चाहिए। गंगा से जुड़े किसानो की इसमें कोई भूमिका नहीं थी जबकि वे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। साधु सन्यासी इस योजना के मजबूत पक्ष हो सकते थे। वे ऐसी शक्ति है जो मात्र कुछ दिनों में ही व्यापक जन जागरण की क्षमता रखते है इसके अलावा गंगा नदी के किराने पर बसे शहरों के धार्मिक समुदायों की भी इसमें उपेक्षा की गई। यदि इस योजना को सफल बनाना है तो इन सभी का सहयोग लेना होगा। आशा है भविष्य में इस पर ध्यान दिया जायेगा। साभार -पर्यावरण डाईजेस्ट

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