नासिरा शर्मा की कुइयाँजान. - नई बनाम पुरानी सिंचाई प्रणाली


आमतौर पर हिंदी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे जीवन के कड़वी सच्चाइयों और गंभीर विषयों की अनदेखी करते रहे हैं. हालांकि यदाकदा इसका अपवाद भी मिलता रहा है. लेकिन नासिरा शर्मा की नई पुस्तक कुइयाँजान इन आरोपों का जवाब देने की कोशिश के रुप में सामने आती है.
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पानी इस समय हमारे जीवन की एक बड़ी समस्या है और उससे बड़ी समस्या है हमारा पानी को लेकर अपने पारंपरिक ज्ञान को भूल जाना. फिर इस बीच सरकारों ने पानी को लेकर कई नए प्रयोग शुरु किए हैं जिसमें नदियों को जोड़ना प्रमुख है. बाढ़ की समस्या है और सूखे का राक्षस हर साल मुँह बाए खड़ा रहता है. इन सब समस्याओँ को एक कथा में पिरोकर शायद पहली बार किसी लेखक ने गंभीर पुस्तक लिखने का प्रयास किया है.
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यह तकनीकी पुस्तक नहीं है, बाक़ायदा एक उपन्यास है लेकिन इसमें पानी और उसकी समस्या को लेकर एक गंभीर विमर्श चलता रहता है.
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पुस्तक का एक अंश -
कमाल जब ट्रेन पर बैठा तो उसका दिल बुझा-बुझा सा था. शायद समीना के जुमले का असर हो-यह सोचकर उसने अपना बिस्तर लगाया और आँख बंद कर लेट गया. मगर नींद का कोसों पता न था. सारी रात करवटें बदलता रहा. अजीब-सी बेचैनी उसे घेरे रही. आँखों के सामने पंखुड़ी और पराग के चेहरे बार-बार कौंधते और दिमाग में यह सवाल कि अब से पहले तो कभी समीना ने उसे रोका नहीं, फिर आज क्यों ? अब मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है. बाप बन गए हैं, यही सोचकर उसने कह दिया होगा. इस तर्क के ज़हन में आते ही उसकी पलकें मुंदने लगीं.
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दिल्ली पहुँच सबसे पहले कमाल ने समीना से बात कर बच्चों की ख़ैरियत ली. उसे समीना की आवाज़ में थकान-सी महसूस हुई. शायद बच्चों ने रात-भर जगाया हो. उसे भी अब बच्चों की देखभाल में समीना का हाथ बंटाना चाहिए, ताकि वह पूरी रात चैन से सो सके. पूरी उड़ान-भर वह समीना और बच्चों के बारे में ही सोचता रहा. पटना हवाई अड्डे पर उसे रिसीव करने वाले आए हुए थे. सेमिनार के दोस्त थे. कल वैशाली की ओर एकरारा, अबीरपुर और सिरसा बीरन गाँव की ओर जाना था.
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पटना में गंगा का फैला पाट देखकर कमाल को महसूस हुआ, जैसे वह समुद्र देख रहा हो. गाँधी सेतु के नीचे हाजीपुर की ओर केले के बागान मीलों तक फैले हुए थे. नीले फ़ीके आसमान और खिली धूप में हरे-हरे पत्तों वाले पेड़ बड़ी सुंदर अनोखी छटा बिखेर रहे थे. पुल भी शैतान की आँत की तरह लंबा था, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. कमाल बार-बार अपनी कलाईघड़ी को बढ़ती सुइयों को देखकर सोच रहा था कि सीधा सेमिनार हाल में जाना ही ठीक होगा, मगर तब तक कार होटल के गेट में दाखिल हो चुकी थी.
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सेमिनार हाल में पहुँच वह सब कुछ भूल गया. वहाँ कुछ और समस्याएँ थीं जो दिल के मामले से कहीं ज़्यादा गहरी और गंभीर थीं. सेमिनार के पहले सत्र का शीर्षक था-मध्य बिहार में आहर-पइन सिंचाई प्रणाली. सत्र के प्रारंभ में पढ़े गए आलेख में बिहार की भौगोलिक बनावट पर छोटी सी टिप्पणी थी, जिसके हिसाब से बिहार को तीन भागों में बाँटा गया था-उत्तर बिहार का मैदानी इलाक़ा, दक्षिण बिहार का मैदानी भाग और छोटा नागपुर या पठारी क्षेत्र. पहला हिस्सा जो नदियों के साथ आई मिट्टी से बना है और नेपाल के तराई वाले इलाकों से लेकर गंगा के उत्तरी किनारे तक आता है. यहाँ की ज़मीन उर्वरा और घनी आबादी वाली है. दक्षिण का मैदानी इलाका गंगा के दक्षिणी तट से लेकर छोटा नागपुर के पठारों के बीच स्थित है. यहाँ सोन, पुनपुन, मोरहर, मुहाने, गामिनी नदियाँ है जो गंगा में जाकर मिलती हैं.
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बरसात में सारी नदियाँ उफ़नने लगती हैं. गंगा के मैदानी इलाके दक्षिणी भाग में पुराना पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर आता है, जहाँ की ज़मीन में नमी बनाए रखने की क्षमता कम है. यहाँ भूजल का स्तर बहुत कम है. गंगा के किनारे के इलाके को छोड़ कही भी कुआँ या नलकूप खोदना असंभव है. यह भू-भाग दक्षिण से उत्तर की ओर तेज़ ढलान वाला है, जिसके कारण धरती पर पानी का टिकना मोहाल है सो जलवायु खेती के अनुकूल नहीं; परंतु विचित्र तथ्य है कि यही इलाका ठीक नदियों के किनारे की तरह प्राचीन सभ्यता का केंद्र रहा है. आखिर क्यों और कैसे ? यह सवाल दिमागों में उठ सकता है तो इसका श्रेय हम आहर-पइन को देंगे जो न केवल हमारी भारतीय सिंचाई-प्रणाली थी बल्कि इलाके की आवश्यकता के अनुसार उसका निर्माण वजूद में आया था. वह हमारी ज़मीन की बनावट से निकाली गई इंसानी उपलब्धियाँ थीं.
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लेख के साथ स्लाइडों द्वारा आहर-पइन के पुराने के चित्रों एवं नए रेखाचित्रों की भी एक श्रृंखला थी, जो विवरण के साथ दिखाई जा रही थी कि इस इलाके में ढलान चूंकि प्रति किलोमीटर एक मीटर पड़ती है, सो उसी बनावट को हमारे पूर्वजों ने इस्तेमाल कर एक या दो मीटर ऊँचे बाँधों के जरिए पोखर बनाए जिन्हें स्थानीय भाषा में आहर कहते हैं. बड़े बाँध के दोनों छोर से दो छोटे बाँध भी निकाले जाते थे जो ऊँचाई की तरफ होते थे. इस तरह से आहर जल तो तीन तरफ से घेरने की व्यवस्था बनाई जाती थी. तालाबों की तरह इनकी तलहटी की खुदाई संभव नहीं थी. यह पोखर कभी-कभी पइनो और स्रोतों के नीचे इस विचार से भी घेरे जाते थे, ताकि इनमें लगातार पानी इन दोनों स्रोतों से भी आकर भरा रहे. यह कितने कारामद होते थे, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक लंबे आहर से बड़े आराम से 400 हेक्टेयर से कुछ अधिक ज़मीन की सिंचाई हो जाती थी. तालाबों का यहाँ चलन था नहीं. छोटे आहरों की संख्या कुछ ज़्यादा रही.
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आहर-पइन प्रणाली जातक युग से ही हमारी सिंचाई-व्यवस्था में शामिल रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में “आहरोदक सेतु” से सिंचाई-व्यवस्था का जिक्र है. मेगास्थनीज के यात्रा-विवरण में भी बिहार की बंद मुंह वाली नहरों से सिंचाई का उल्लेख मिलता है
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इसी तरह पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए पइनों का प्रयोग किया जाता था. यह पइन 20-20 किलोमीटर तक लंबे होते थे और प्रशाखों में बंटकर सौ से भी अधिक ज़्यादा गाँवों के खेतों की सिंचाई करते थे. दक्षिण की नदियाँ गर्मी में सूखी और बरसात में उफनती थीं सो उनका बढ़ा पानी बाढ़ की जगह ढाल से वह पइनों एवं आहारों में भर अपनी राह बना लेते था. आज हम विकल्पों की ओर भागते हैं और अपनी व्यवस्था से मुंह मोड़ लेते हैं.
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आहर-पइन प्रणाली जातक युग से ही हमारी सिंचाई-व्यवस्था में शामिल रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में “आहरोदक सेतु” से सिंचाई-व्यवस्था का जिक्र है. मेगास्थनीज के यात्रा-विवरण में भी बिहार की बंद मुंह वाली नहरों से सिंचाई का उल्लेख मिलता है. हम नए से नए विकल्प ढूंढ़ने के स्थान पर अपनी पुरानी प्रणाली की तरफ ध्यान दें, क्योंकि वह हमारे इलाके की भोगोलिक बनावट के अनुकूल थी, वरना आप सब जानते हैं कि उन आहारों-पइनों से मुख मोड़कर हम कहाँ पहुँचे. इस बार मध्य बिहार में पहली धान की बुआई हुई नहीं. वर्षा भी कम हुई और जब दूसरा धान रोपा भी जाएगा, या फिर चुनाव की गहमागहमी में हम सब भूल जाएँगे और राजस्थान की तरह सूखे और भुखमरी की तरफ बढ़ेंगे!
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पहले लेख की समाप्ति पर सवाल करने वाले बेचैन थे, मगर तय यही पाया कि दूसरा लेख भी चूंकि पोखर-नहर प्रणाली की बहाली पर है, इस कारण बेहतर होगा कि सवाल इकट्ठा सामने रखे जाएँ. दूसरा आलेख भी अनेक सूचनाओं से भरा हुआ था. उसमें भी सारा आरोप अपनी स्वयं की व्यवस्था से विमुख हो नित नए प्रयोगों की विफलता पर था. विमलजी का आलेख प्रारंभ हुआ.
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“घोषजी ने जहाँ अपनी बात एक ज्वलंत प्रश्न पर समाप्त की है, वहीं से मैं उठाना चाहूँगा. गया जिले की बाढ़ सलाहकार कमेटी ने कई दशक पहले 1949 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था. ‘कमेटी की राय है कि जिले में बाढ़ का असली कारण पारंपरिक सिंचाई-प्रणालियों में आई गिरावट है. ज़मीन ढलवाँ है और नदियाँ उत्तर की तरफ कमोबेश समांतर दिशा में बहती हैं. मिट्टी बहुत पानी सोखने लायक नहीं है. अभी तक चलने वाली सिंचाई-व्यवस्था पूरे जिले में शतरंज के मोहरों की तरह बिछी हुई थी और ये पानी के प्रवाह पर रोक-टोक लगाती थीं.’ मेरा अपना विचार है कि बाहर से दिखने में आहर-पइन व्यवस्था भले ही बदरूप और कच्ची लगे, पर यह एकदम मुश्किल प्राकृतिक स्थितियों में पानी की सर्वोतम उपयोग की अद्भुत देसी प्रणाली है.”
आहर और पइन का उपयोग सामूहिक रूप से होता था और सभी किसानों को मिल-जुलकर खेती करनी होती थी. आहर-पइन व्यवस्था कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, मगर गया जिला इससे अछूता रहा
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तीसरा आलेख कालियाजी का था. उनका समर्थन भी आहर और पइन के लिए था. अपने लेख का आरंभ “एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक ऑफ भागलपुर” लिखने वाले ब्रिटिश पर्यवेक्षक एफ-बुकानन के इस कथन से शुरू किया “आहारों और पइनों में इतना पानी रहता है कि किसान सिर्फ़ धान की फसल ही नहीं लेते, बल्कि सर्दियों में गेहूँ और जौ उगाने के लिए भी उसका प्रयोग कर लेते हैं. पानी को ढेकुली और पनदौरी जैसी कई व्यवस्थाओं से ऊपर लाकर खेतों तक पहुँचाया जाता था.” कलियाजी लेख पढ़ते-पढ़ते रुके और बोले, “यह वही अंग्रेज सज्जन थे जो आहर-पइन प्रणाली को कमखर्च समझने के बावजूद सिंचाई के लिए तलाब को पसंद करते थे. मगर जैसे-जैसे वे भागलपुर से गया की तरफ बढ़े उनकी राय बदलती गई, क्योंकि उन्होंने यथार्थ को अपनी आँखों से जाकर देखा. आहर आम तौर पर गाँव के उत्तर में होते थे. पूरा का पूरा दक्षिण बिहार ही ऐसी ढलानवाला मैदान है. हर गाँव में धनहर और भीत खेत हैं.”
“आहर और पइन का उपयोग सामूहिक रूप से होता था और सभी किसानों को मिल-जुलकर खेती करनी होती थी. आहर-पइन व्यवस्था कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, मगर गया जिला इससे अछूता रहा. इस सिंचाई-व्यवस्था में गिरावट के साथ मजबूती भी जाती रही. कहाँ तो उसे अकाल राहत की ज़रूरत 1986-97” में नहीं पड़ी थी और वहाँ 1966 में गया जिले पर भी सूखे व अकाल की मार पड़ी. इस व्यवस्था से बाढ़ के पानी पर भी रोक थी. मगर इधर देखने में आ रहा है कि वह संतुलन भी जाता रहा.
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“अब इसी सिलसिले में ज़रा हम अपनी भव्य परियोजनाओं पर दृष्टि डालें. दक्षिण बिहार के ‘सुखाड़ क्षेत्र’ में सिंचाई-सुविधा के नाम पर चल रही है स्वर्ण-रेखा परियोजना. सिंहभूमि जिले में चल रही दो बड़े डैम, दो बराज एवं सात नहरों वाली इस परियोजना में विश्व बैंक आर्थिक मदद कर रहा है. 1977 में इसकी लागत 179 करोड़ रुपए थी. आज उसकी लागत बढ़कर करीब 1285 करोड़ रुपए हो गई है. इस परियोजना की बाबत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों एवं गैरसरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इससे चांडिल और इंचा के इलाके में करीब 182 गाँवों में पानी भर जाएगा. इनमें से 44 गाँव तो पूर्णतया जलमग्न हो जाएंगे. कुल मिलाकर एक लाख लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी हैं, विस्थापित हो जाएंगे. उन्हें भी बसाने के पहले की तरह के वायदे किए गए. जैसे सरदार सरोवर डैम पैनल निर्माण के समय उनकी ज़मीन लेते हुए वायदे किए थे, मगर वे कहाँ बसेंगे-इसका पता न उजड़ने वालों को होगा न उजाड़ने वालों को. हमारी सरकारें हमारी नहीं, विदेशी हित की बातें सोचती हैं. मेधाजी को विकास-विरोधी बताकर नर्मदा बाँध से डूबने और विस्थापित होने वाले आदिवासियों की कोई चिंता नहीं की जाती इसलिए विदेशी चंगुल से छुटकारे का एक ही रास्ता है कि हम अपने जल, ज़मीन तक सीमित रहें और विकास अपने साधनों से करें, न कि विश्व बैंक से ऋण लेकर एक नई गुलामी स्वीकार करें.”
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नासिरा शर्मा ने पानी पर गंभीर सामग्री जुटाई है
आलेख की समाप्ति पर कुछ पल खामोशी छाई रही, फिर प्रश्न आमंत्रित किए जाने की घोषणा हुई. प्रश्न तो शायद किसी के मन-मस्तिष्क में नहीं उभर रहे थे, मगर कई अन्य तरह के आक्रोश लोग पाले बैठे थे, सो एक सज्जन आवेश में उठे और बोले, “आप पुरानी सिंचाई-प्रणाली आहर व पइन के छिन-भिन्न होने पर दुखी हैं, मगर मेरे सामने अनेक प्रश्न पानी से भरे पोखरों को लेकर हैं! जैसे, स्वतंत्रता के पूर्व मछली, मखाना जैसी पोखर से पाई जाने वाली वस्तुएं किसी बाजार में खरीद-बिक्री के लिए प्रायः नहीं भेजी जाती थीं. जो पोखर में उपलब्ध होता, उसे गाँव वाले प्रयोग में लाते थे. पोखर हमारे रीति-रिवाज़ों में आज भी मौजूद है. ज़मींदारी प्रथा के उंमूलन के पश्चात बिहार सरकार द्वारा भू-सर्वेक्षण आरंभ कराया गया. सर्वेक्षण में पूर्व का गैरमजरुआ आम पोखर बिहार सरकार के पोखर के रूप में दर्ज किया गया. साथ ही मछली और मखाना का बाजार भी उपलब्ध हो गया. इस काम के लिए तालाब लीज़ पर दिया जाने लगा. गाँव के लिए पोखर के पानी पर पाबंदी लगी और सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी रोक लग गई. सिंचाई के पानी लेने से पानी घटेगा, मछलियाँ मरेंगी और तालाब सरकारी लीज़ पर नहीं मिलेगा. आम आदमी का जो भावनात्मक संबंध देख-रेख और उपयोग को लेकर तालाब-पोखर से था, वह निराशा और उदासीनता में बदला. क्या इसमें सरकार और बाजार का बेजा हस्तक्षेप नहीं है, जिसने स्थानीय लोगों से उनका सहज जीवन और उसका प्रवाह छीन लिया?”
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उनके बैठते ही दूसरे सज्जन उठे और उन्होंने श्रोताओं के सामने अपनी बात रखी- "संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि बाण अपनी कृति कादंबरी (सातवीं शताब्दी) में पोखर-सरोवर खुदवाने को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे. लोक-कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाए गए जलकोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- 1.कूप जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे पानी डोल-डोरी से निकाला जाए, 2. वापी, छोटा चौकोर पोखर, लंबाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तक पाँव के सहारे पहुँचा जा सके, 3.पुष्करणी, छोटा पोखर, गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो, 4.तड़ाग पोखर, चौकोर, जिसकी लंबाई 300 से 450 फीट तक हो. कहने का अर्थ केवल यह है कि हमारे भारतीय समाज में पोखर केवल भौगोलिक मजबूरी नहीं, बल्कि परंपरा रही है. हमारी सोच का हिस्सा रही है. पोखर की चर्चा ऋग्वेद में भी है. जब से गृह्मसूत्र और धर्मसूत्र की रचना-संकलन प्रारंभ हुआ(800 से 300 ई.पू. की अवधि में) तब से इसे धार्मिक मान्यता और संरक्षण प्राप्त है. इन सूत्रों के अनुसार, किसी भी वर्ग या जाति का कोई भी व्यक्ति, पुरूष या स्त्री पोखर खुदवा सकता है और यज्ञ करवाकर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण-हेतु उसका उत्सर्ग कर सकता है. आज भी यह काम पुण्य कमाने का समझा जाता है! मगर जो इस तरह के काम करने के लायक हैं वे अब धन इन जन-कल्याणकारी कार्यों में नहीं खर्च करते हैं... ऐसी मानसिकता के समय में मध्य बिहार की पपड़ियाई ज़मीन क्या कुछ नहीं झेल रही है, इसको शब्दों में बयान करना मेरे लिए कठिन है.”
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उनकी बात ख़त्म होते ही एक और सज्जन खड़े हुए.
“आपके लिए कठिन होगा, क्योंकि शोर मचाने से भी क्या लाभ? हम अपनी मछलियों के रहते आंध्र की मछली खाते हैं. यहाँ तो हाल यह है कि मुहाने नदी का मुंह बंद कर सुखाड़ की स्थिति पैदा कर गई है. आदमी बैठा है फाल्गू की रेत पर और औरतें बैठी हैं पटना की सड़कों पर. याद होगा कि सिंचाई योजना बनाई गई थी उसको लोहे के शटर से हमेशा के लिए बंद कर दिया गया. उससे जो थोड़ी बहुत सिंचाई होती थी वह भी हाथ से गई. उसके चलते इस्लामपुर के 105 गाँव, एंकगरसराय के 119 गाँव, हिलसा के 133 गाँव, परवलपुर के 136 गाँव, चंडी के 103 गाँव, थरथरी के 139 गाँव, नगरनासा के 104 गाँव, नहरनौसा के 104 गाँव, जहानाबाद-घोसी के 153 गाँव आदी प्रखंडों की लाखों हेक्टेयर भूमि पूरी तरह सूख गई. जब यह शटर बंद नहीं था तो 365 पइन थे. पैंतीस वर्ष से वह योजना यूँ ही बंद पड़ी है. आखिर क्यों? जिस परियोजना के चलते मुहाने नदी बंद की गई, उसका क्या हुआ? हाँ, इससे लाखों किसान प्रभावित हुए और दूसरी ओर, बंद पानी से बाढ़ की स्थिति बन गई. बिहार के बंटवारे के बाद इधर के लोग केवल खेती पर निर्भर होकर रह गई है. वे सब गरीबी रेखा के नीचे वाले लोग हैं. आखिर यह परियोजना कब तक ठप रखी जाएगी ? मुहाने नदी को लेकर 11 अक्तूबर 2002 से संघर्ष चल रहा है. लोग सत्याग्रह पर बैठे हैं. यह कोई दो-चार एकड़ की बात नहीं है. किसी एक जिले की बात भी नहीं है, बल्कि गया, नालंदा, जहानाबाद, पटना जिलों की है, जहाँ भूमि सुखाड़ की चपेट में है और किसान भूखे मर रहे हैं.”
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बात समाप्त होते ही कई लोगों ने जोर से मेज़ थपथपाकर अपने आक्रोश का इज़हार किया. संयोजक घड़ी देख रहे थे. तीन बजने वाले थे. लंच का समय तेज़ी से शाम की चाय की ओर बढ़ रहा था. बीच में टोकने का मौका ही नहीं था. एक अजीब तरह की गरमाहट हाल में फैल गई थी. इस बार सज्जन बोलने खड़े हुए उनका चेहरा भावना एवं क्रोध से तमतमाया हुआ था.
(पृष्ठ 383 से 389 तक) साभार - बीबीसी
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पुस्तक - कुइयाँजान
लेखिका - नासिरा शर्मा
पृष्ठ - 416
प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली - 110 002
मूल्य - 400 रुपए
ISBN : 81-7138-087-5

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