कृत्रिम ग्लेशियरों से रेगिस्तान की प्यास बुझाने की कोशिश

इंसानी करतूतों से जन्मी ग्लोबल वार्मिंग ने जहां दुनिया भर के स्थाई जल भंडार-ग्लेशियरों के लिए खतरे की घंटी बजाई है तो अपने देश में एक ऐसा इंसान भी है जिसने सामान्य सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर कृत्रिम ग्लेशियरों से रेगिस्तान की प्यास बुझाने का बीड़ा उठाया है।
.
लद्दाख के वर्षाविहीन ठंडे हिमालयी रेगिस्तान में जहां लोग एक-एक बूंद पानी को तरसते हैं, लेह के सेवानिवृत्त सिविल इंजीनियर चेवांग नोर्फेल अनोखे कृत्रिम ग्लेशियर बनाकर इस इलाके में सिंचाई की कठिन समस्या को हल करने में कामयाब हुए हैं।
अब तक छोटे-बड़े लगभग एक दर्जन ग्लेशियर बना चुके नोर्फेल बताते हैं कि लद्दाख में पानी के एकमात्र स्रोत कुदरती ग्लेशियर हैं जो जून के दूसरे पखवाड़े तक पिघलना शुरू होते हैं और इलाके के जलभंडारों को भरते हैं। लेकिन साल में सिर्फ एक फसल उगाने वाले 14 हजार फीट से ज्यादा ऊंचाई के इन इलाकों में खेतों को अप्रैल-मई में पानी की सख्त जरूरत पड़ती है। सही वक्त पर पानी नहीं मिलने का सीधा असर उपज पर पड़ता है। नोर्फेल ने सामान्य सूझ-बूझ का इस्तेमाल करते हुए इस समस्या का हल खोज निकाला। लद्दाखी लोग जाड़ों में पीने के पानी के नलों को जमने से बचाने के लिए अकसर इन्हें खुला छोड़ देते हैं। इस कारण अच्छी खासी मात्रा में पानी बह जाता है। घरों से बहकर बरबाद होने वाले पानी के सहारे नोर्फेल ने कृत्रिम ग्लेशियर तैयार किए हैं।
.
वह बताते हैं कि उन्होंने साधारण पाइपों की मदद से बेकार बहने वाले पानी को ग्रामीण के सहयोग से गांव से बाहर कम घूप वाले इलाकों तक पहुंचाया। यहां यह पानी धीरे-धीरे ऐसे ढलानों में बहाया जाता है, जहां पानी रोकने के लिए बीच-बीच में बंध बनाए गए हैं। चूंकि जाड़ों में यहां तापमान शून्य से नीचे चला जाता है, ढालों में लुढ़कता हुआ यह पानी जमने लगता है और लगातार दोहराई जाने वाली इस प्रक्रिया से अच्छा खासा ग्लेशियर तैयार हो जाता है। ये ग्लेशियर कुदरती ग्लेशियरों की तुलना में काफी निचले इलाकों में बने हैं इसलिए इनकी बर्फ अप्रैल-मई में ही पिघलना शुरू हो जाती है और खेतों की सही वक्त पर प्यास बुझ जाती है। बूंद-बूंद पानी जतन से बरतने वाले इलाके के लोगों का यह अनोखा पर्यावरण प्रेम सचमुच देखने लायक है। नोर्फेल के बनाए ग्लेशियरों में सबसे बड़ा फुकसे गांव का है जो लगभग 300 मीटर लंबा और 45 मीटर चौड़ा है। ग्लेशियर की गहराई औसतन 1 मीटर है और इससे 700 आबादी वाले इस गांव के सभी खेतों की सिंचाई हो जाती है।
.
नोर्फेल के मुताबिक इस ग्लेशियर को बनाने में लगभग एक लाख रुपए की लागत आई। उनसे प्रेरणा लेकर अब पाकिस्तान के गिलगित क्षेत्र में भी कृत्रिम ग्लेशियर बनाने की परियोजना शुरू की गई है।
.
नोर्फेल के अनोखे प्रयोग पर युवा फिल्मकार सैयद फैयाज ने ब्रिटिश सरकार के आर्थिक सहयोग से ‘एक डिग्री आफ कंसर्न’ नामक फिल्म बनाई है जिसे सोमवार को विश्व पर्यावरण दिवस पर नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश काउंसिल में प्रदर्शित किया जाएगा। हिन्दुस्तान (देहरादून), 05 June 2006

Hindi India Water Portal

Issues