सभी मृत नदियां बयां कर रही हैं : नदी योजनाएं ही बीमार - मीनाक्षी अरोड़ा

यमुना पर बने आईटीओ या ओखला पुल से गुजरते हुए अक्सर आपको अपनी नाक बंद रखनी पड़ती है। शायद ही अब किसी को वह समय याद आता होगा जब पवित्र यमुनाजी में आपने डुबकी लगाई होगी। पर्यटक भी इस प्रदूषित, गंदी, बदबूदार नाले में परिवर्तित यमुना को देखकर भौचक्के रह जाते हैं।
यमुना हमारी मां है जो बिना किसी स्वार्थ के हमारी पानी की जरूरतों को पूरा करती है, लेकिन बदले में हमने उसे क्या दिया? जरा सोचिए। गन्दगी, प्रदूषण और इस 'धीमे जहर' से अन्त में मौत! पानी को साफ करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया, पर नतीजा? सबके सामने है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लाटों के लिए ढांचा तैयार करने के लिए भारी रकम लगाई गई। अकेले दिल्ली में ही देश का 40 फीसद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया है जबकि यहां देश की कुल आबादी का मात्र 5 फीसद ही है। इतने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों के बावजूद भी नदी का पानी दूषित है। केवल नीतियां बना देने या बिना सोचे-समझे मोटी रकम खर्च कर देने भर से ही तो पानी साफ नहीं हो सकता, इसके लिए जरूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति की। हम नदियों से सिंचाई और पीने के लिए ज्यादा से ज्यादा पानी निकाल तो लेते हैं लेकिन उनमें स्वच्छ पानी इतनी मात्रा में नहीं रह जाता जो वे कचरे को आत्मसात कर सकें। परिणामस्वरूप नदियों की आत्मसात करने की क्षमता और स्वयं-स्वच्छ करने की क्षमता समाप्त हो गई है।
यमुना को देखकर ही इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि यहां सीवेज को रोकने या शुध्दि करने के लिए कभी भी पर्याप्त राशि नहीं लगाई गई। अब हमारे सामने मुख्य सवाल यह उठता है कि क्या हम जलापूर्ति और कचरे के निपटारे के लिए कोई सस्ता और टिकाऊ मॉडल तैयार कर पाएंगे? भारत की हर नदी आज अपने दुर्भाग्य पर रो रही है, क्योंकि सभी नदियां या तो यमुना की ही तरह प्रदूषित हो चुकी हैं या की जा रही हैं।
इसका पानी कुछ अजीब सा हो गया है, बदबू असहनीय है और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके कुप्रभाव अक्षम्य हैं। नदियां देश की प्राण हैं। भारतीयों के लिए तो नदियां 'मां' हैं, वे इसकी पूजा तो करते हैं लेकिन उसे मैला होने से बचाने के लिए कोई सावधानी नहीं बरतते। भारत की अधिकांश जनसंख्या पीने के पानी के लिए सतही और धरातलीय व्यवस्था पर ही निर्भर है।
सरकार ने नदियां साफ करने के लिए कुछ प्रयास किए हैं, जैसे-1985 में 'गंगा एक्शन प्लान' (जीएपी) शुरू किया था। 462 करोड़ रुपए के इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य नदी जल की गुणवत्ता को स्वीकृत मानक (जिसे नहाने योग्य जल-गुणवत्ता मानक) तक सुधारना था, इसके लिए प्रदूषण की रोकथाम और नदी में छोड़े जाने से पहले ही सीवेज को रोककर शुध्दिकरण किया जाना था। इस योजना को 20 साल से भी ज्यादा समय बीत गया है। बहुत कम आंकलन के साथ एक कमजोर सा विश्लेषण किया गया, उसके बावजूद भी सुधारों का तो नामोनिशान भी नहीं है। नदियों को साफ करने के नाम पर व्यवसाय किया जा रहा है जिसके कारण नदियां साफ नहीं हो पा रही हैं। जीएपी-1, 2 और एनआरसीपी पर कुल 5,166 करोड़ की राशि खर्च की जा चुकी है। 2005 के अन्त तक कुल खर्च योजना के लिए स्वीकृत 2310 करोड़ रुपये के आधे से भी कम है।
2005 में फंड का लगभग 70 फीसदी 4 ऐसे राज्यों के लिए स्वीकार किया गया था, जहां से प्रदूषित नदियां बहती हैं—

(1) गंगा के लिए उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल
(2) कूम और अडयार के लिए तमिलनाडु
(3) मूसी के लिए आंध्रप्रदेश

गंगा और यमुना के लिए 40 फीसदी, कूम के लिए 10 फीसदी स्वीकार किया गया, जबकि 34 में से 10 नदियों को एनआरसीपी धन का 88 फीसदी मिला, शेष को केवल 12 फीसदी मिला।
यहां अब सवाल यह है कि क्या नदियों को साफ करने पर लगाए गए इस धन का कोई प्रभाव पड़ा? नेशनल रिवर कंजरवेशन डायरेक्टोरेट का दावा है कि इसने गंगा को साफ कर लिया है। इसके इस दावे के दो कारण हैं : पहला, एनआरसीडी के आंकड़ों के अनुसार जब नदी हिमालय से प. बंगाल में उलुबेरिया में जाती है तो ऋषिकेश से (उत्ताराखण्ड में) बीओडी स्तर 3 मिग्रा./ली. से कम था जबकि कन्नौज, कानपुर और इलाहाबाद में यह 4.5 मिग्र./ली., 6.78 और 5.6 मिग्र./ली. था। बीओडी के लिए राष्ट्रीय मानक 3 मिग्र./ली है तभी नदी का पानी स्नान योग्य माना जाता है। वस्तुत: इन आंकड़ों को देखकर ही योजनाओं की सच्चाई साबित होती है। जो समस्या यमुना की है, वह सभी नदियों में दोहराई जा रही है। केवल एसटीपी खड़े करने के लिए ही सारे कार्यक्रम चलाए गए हैं, सीवेज को नदी में जाने से रोकने और शुध्दिकरण के लिए तो शायद ही कुछ किया गया है। सीपीसीबी द्वारा किए गए जल-प्रदूषण्ा के विश्लेषण से यह साफ जाहिर होता है कि कस्बों में बहने वाला नदी का पानी नहाने के लिए उचित नहीं है। नदी में पानी उचित होने के लिए बीओडी स्तर 3 मिग्र./ली से कम होना चाहिए जबकि घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा 5 मिग्र. से अधिक होनी चाहिए। नदियों को साफ करने के लिए क्या किया गया है? यह तो सभी मानते हैं कि प्रदूषण दो कारणों से है- बिना शुध्द किया हुआ घरेलू सीवेज और उद्योगों से निकला कचरा। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि औद्योगिक कचरा अधिक खतरनाक और विषैला होने के बावजूद भी, नियंत्रित करना ज्यादा आसान है। प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को पहचानकर वर्गीकृत किया जा सकता है। सीपीसीबी के अनुसार हमारी नदियों में 70-80 फीसदी प्रदूषण घरेलू गन्दगी की वजह से है। इसलिए रिवर एक्शन प्लान का मुख्य केन्द्र नदियों में बहने वाले घरेलू सीवेज को कम करना है।

यह आंकलन भी महत्तवपूर्ण है कि हमने ढांचे तैयार करने में और उनके कार्यान्वयन पर कितना खर्च किया है। एसटीपी की पूंजी लागत, तकनीकी के हिसाब से भिन्न-भिन्न है। एक्टिवेटिड स्लज प्रोसेस सेकण्डरी ट्रीटमेंट पर आधारित प्लांट की लागत 27.75 लाख रुपए प्रति एमएलडी, अधिक बड़ी तकनीकी पर आधारित प्लांट की लागत 50 लाख प्रति एमएलडी से 62 लाख रुपए एमएलडी है। हालांकि हमारे पास खर्च करने के लिए धन है, लेकिन एसटीपी ही इस समस्या का समाधान नहीं है। इस व्यवस्था को मितव्ययी और प्रबन्ध योग्य बनाने के लिए योजना बनाने वालों ने कोई प्रयास नहीं किया है।

शहरी भारत का एक बड़ा हिस्सा अब भी अनधिकृत कालोनियों में रहता है जिसके सीवेज का शहरी प्लांटों से कोई सम्बन्ध नहीं है, यानी पहले तो इन स्थानों के सीवेज की निकासी के लिए व्यवस्था करनी होगी तभी एसटीपी व्यवस्था भी कारगर साबित होगी। लेकिन, बहुत से शहरों की व्यवस्था बिल्कुल ही खराब है। खुले नालों से गन्दगी ज्यादा आती है जबकि एसटीपी का स्थान जमीन की उपलब्धता से तय होता है। यदि हम कचरे को साफ करने, उचित रूप में खत्म करने और पुन: प्रयोग करने का प्रबन्ध करते हैं तब तकनीकी सवाल यह आता है कि हमें पानी को पेयजल की गुणवत्ता तक साफ करने की जरूरत होगी यानी नदी में पानी छोड़ने से पहले बीओडी स्तर 3 मिग्रा./ली. से कम होना चाहिए। यदि हम नदियों के पानी को नहाने योग्य मानक तक लाना चाहते हैं तो ऐसा करना पड़ेगा। इसके लिए साफ किए गए कचरे को पुन: प्रयोग करना चाहिए न कि सीधे नदी में छोड़ दिया जाना चाहिए।

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