गंगा का अस्तित्व समाप्ति की ओर

सतयुग में राजा भागीरथ की तपस्या से भगवान शंकर की जटाओं से अवतरित होकर धरती पर आई गंगा आज अपनी पवित्रता को खोती जा रही है। आचमन के लायक भी इसका पानी नहीं बचा। खेती कि सिंचाई के योग्य बी अब पानी नहीं रहा। इसका कारण ऑक्सीजन की कमी एवं लोकल कोलिफार्म की मात्रा का अधिक होना है, जो बताया है कि गंगा में नुकसानदायक जीवाणुओं की मात्रा अधिक है। इलाहाबाद और वाराणसी जो धार्मिक और पवित्र शहर माने जाते हैं, वहाँ गंगा मानव और जानवरों के सड़े-गले शवों को ढो रही है तथा शहर का सीवर लाईन का (मल-मूत्र, गंदा जल) अपने पानी में समा रही है। लगता है अब गंगा समाप्ति की ओर अग्रसर है।
त्र+ग्वेद में कहा गया है कि हमारे त्र+षि सबसे पहले गंगा को नमन कर उसका आचमन करते थे। गंगा भागीरथ की तपस्या का प्रतिफल है। आज के कलयुग में सतयुग की अवतरित गंगा अपने अस्तित्व को बचाने में असफल रही है। वह अब मरणासन्न स्थित में आ गई है। जिस गंगा का पा वेदों-पुराणों में होता रहा, अब भविष्य में वह जब लोप हो जावेगी तब उसकी कहानी हमें देखने-सुनने को भी शायद ही मिले।
जिस गंगा की दो बूंद पीने से मृत्यु पूर्व व्यक्ति की शांति प्राप्त होती थी। गंगा में स्नान करके सनातनधर्मी अपने को धन्य मानता था। जिस गंगा में डुबकी लगाने के लिये हिन्दू समाज और उसके त्र+षि मुनि लालायित रहते थे, उन्हें उससे मन की शांति तथा पवित्रता का भास होता था। वहाँ अब इसमें स्नान करने से लोग कतराते हैं। लोगों को रोगों के लगने का भय सा बना हुआ है। क्योंकि इस गंगा में अब ऑक्सीजन की मात्रा समाप्त सी हो गई है।
अन्य शहरों की हम बात नहीं करते। भारत के पवित्र एवं धार्मिक नगरों इलाहाबाद और वाराणसी में ही अगर इस गंगा की दयनीय दशा को देखेंगे तो हमारी इसके प्रति विरक्ति हो जावेगी। स्वयं लेखक ने इलाहाबाद और बनारस में सड़े-गले एवं अधजले मानव शवों एवं पशुओं की लाशों को गंगा में बहते देखा है। इन शहरों का सीवर लाईन का मल-जल एवं गन्दा पानी इसमें डाला जा रहा है। जिसे प्रशासन, नगर पालिक निगम तथा गंगा प्रदूषण बोर्ड तक नहीं रोक पाते है। गंगा की स्वच्छता एवं सफाई के लिये 1985-86 में राजीव गांधी ने 1500 करकोड़ की योनजा स्वीकृत की थी। इस योजना को तीन चरणों में सम्पन्न किया जाना था, किन्तु इसका पहला चरण ही अनपे लक्ष्य तक नहीं पहुँच सका। द्वितीय एवं तृतीय चरण का कोई अता-पता नहीं।
विगत दिनों, डॉ. मनमोहन सिंह ने वाराणसी का दौरा किया। यहाँ के घाटों का अवलोकन किया तब प्रशासन गंगा की स्वच्छता की ओर सजग हुआ। किन्तु वह भी अच्छा मजाक था। घाटों की गंदगी वर्षों से साफ नहीं हुई थी। उसकी सफाई की गई। उसे पानी की तेज़ धार से धोया गया किन्तु उन घाटों की सफाई के दौरान पूरी गंदगी गंगा में ही प्रवाहित की गई। गंगा की स्वच्छता के नाम पर उसमें गंदगी स्वयं नगर पालिक निगम एवं प्रशासन के अधिकारियोंन खड़े होकर डलवायी। इस घटना पर वाराणसी के सजग पर्यावरणविद एवं गंगा स्वच्छता के लिये समर्पित संकट मोचन फाउंडेशन के अध्यक्ष प्रो. वीरभद्र मिश्र ने कहा कि यहाँ गंगा की सफाई के नाम पर उसका माखौल उड़ाया गया है, जिसका हम विरोध करते हैं।
वैज्ञानिक आंकड़ों के अनुसार अगर देखें तो मात्र वाराणसी अकेले में ही 40 करोड़ लीटर सीवर का गंदा (मल-जल) पानी गंगा में प्रतिदिन डाला जाता है। प्रो. वीरभद्र मिश्र द्वारा स्थापित गंगा अनुसंधान प्रयोगशाला के अनुसार इसका पानी पीने योग्य होने के लिए इसमें आदर्श रूप में तो फीकल कोलिफार्म बिलकुल नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकार की ओर से निर्धारित स्तर के अ़नुरूप भी यह प्रति लीटर 5 हज़ार से अधिक कतई नहीं होने चाहिए। नहाने योग्य पानी में 50 हज़ार से कम, केती योग्य पानी में 5 लाख से कम होना चाहिए।
लेकिन वाराणसी में इस समय गंगा नदी के विभिन्न घाटों में फीकल कोलिफार्म की संख्या 4 लाख 90 हज़ार से लेकर 21 लाख तक है। फीकल कोलिफार्म की संख्या अधिक होना यह दर्शाता है कि पानी में नुकसानदायक सूक्ष्म जीवाणु बड़ी मात्रा में मौजूद है। इसका परिणाम यह है कि अब गंगा अपने पतित पावनी स्वरूप को छोड़ कर रोगों को देने वाली हो गई है। रैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कहना है कि नहाने की बात छोड़िए, गंगा का पानी अब सिंचाई के लायक भी नहीं रहा, पीने की बात तो दूर की रही है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में गंगा अनुसंदान प्रयोगशाला के प्रोफेसर उदयकांत चौधरी के अ़नुसार वाराणसी में गंगा जल में ऑक्सीजन की भी भारी कमी देखी गई है। जहाँ शुद्ध पेयजल में ऑक्सीजन की मात्रा कम से कम 8 कण प्रति 10 लाख कण (पीपीएम) होनी चाहिए। वह घट कर महज साढ़े 3 से 4 पी.पी.एम. तक रह गई है। शासन भले ही इस बात को नकारे वह इसके लिये घाटों की जगह अन्य जगह से परीक्षण कर खानापूर्ति करें, पर यह गलत है। केन्द्र सरकार ने एक मामले में सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार किया कि गंगा का पानी जैसा 1985 में था, वैसा ह है। उसमें कतई परिवर्तन नहीं हुआ। यानि गंगा गंदी की गंदी ही है। गंगा की शुद्धि का 15 सौ करोड़ रुपया पानी में बह गया या कहें अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चला गया।
जितना कुछ स्वच्छता का काम हुआ है वह भी पुन अपने पहले स्वरूप में आ गया है। वाराणसी के बाद हुगली में गंगा गंदगी का महारूप लेकर समुद्र में विलीन हो जाती है, अगर शासन देश के नागरिकों एवं संगठनों में जागृति आ जाती है तो गंगा पूर्व की भांति पवित्र हो सकती है। उसका स्वरूप बदला जा सकता है।
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सूखे की मार से लोग मप्र से कर रहे हैं पलायन

टीकमगढ़, 13 अप्रैल (आईएएनएस)। मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले के करमौरा गांव में रहने वाला 75 वर्षीय मोहन यादव असहाय होकर अपनी मौत का इंतजार कर रहा है। घोर गरीबी में गुजर बसर कर रहा उसका परिवार जब अपने पड़ोसियों से खाना मांग-मांग कर शर्मिदा हो गया तब उसने काम की तलाश में दिल्ली जाने का फैसला किया।

परिवार का यह फैसला मोहन के लिए और अधिक पीड़ा लेकर आया। वृद्धावस्था के कारण एक ओर जहां वह परिवार के साथ बाहर जाने में असमर्थ था वहीं दूसरी ओर उसका अशक्त शरीर उसे अपनी आजीविका के लिए काम करने की इजाजत भी नहीं दे रहा था। परिस्थितियों से निराश मोहन ने कई बार आत्महत्या करने की कोशिश की।

मध्य प्रदेश के कई जिलों के लिए ऐसे वाकये नए नहीं हैं, लगातार दो दशकों से चले आ रहे सूखे और अपर्याप्त वर्षा ने लोगों को अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। इस साल राज्य के 48 में से 39 जिले बरसात की कमी का सामना कर रहे हैं। हालात इतने खराब हैं कि पानी बाजार में बिकने लगा है।

जिले के घूरा गांव की झीतबाई कहती हैं, "हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसी दिन हमें पानी खरीद कर पीना पड़ेगा।" गांव के पास स्थित एक कुएं का मालिक 50 रुपये में दो लोटा पानी देता है। कोई दूसरा विकल्प न होने से लोग मजबूरन इतनी बड़ी कीमत चुका कर पानी खरीदने के लिए विवश हैं।

हिमारपुरा गांव में लगाए गए आठ हैंडपंपों में से एक भी काम नहीं कर रहा है। गांव में ज्यादातर आबादी केवट समुदाय के लोगों की है जिनका पेशा है मछली मारना। पिछले चार सालों से लगातार पड़ रहे सूखे के कारण जब क्षेत्र की सारी नदियां सूख गईं तो इस समुदाय के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया, नतीजतन समुदाय के 60 फीसदी लोग यहां से पलायन कर गए हैं।

टीकमगढ़ जिले के दूसरे गांवों में भी स्थिति इससे ज्यादा बेहतर नहीं है। जिले के जतारा ब्लाक के करमौरा गांव के 600 परिवारों में से 400 अपने घर छोड़ कर जा चुके हैं। ये प्रवासी मजदूर दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बेहद कम मेहनताने पर काम करने के लिए मजबूर हैं। गांव वालों से बातचीत करने पर पता चला कि लोगों के घर छोड़कर बाहर जाने को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता।

लोगों के घर छोड़ कर जाने के आंकड़ों पर अगर गौर किया जाए तो इसका सबसे ज्यादा असर अहिरवार (दलित) समुदाय पर पड़ा है। जतारा ब्लाक से जाने वाले 400 परिवारों में से 40 फीसदी अहिरवार समुदाय के हैं। पहले के तीन-चार महीनों के मुकाबले अब इन गांवों के लोग 6-8 महीनों के लिए अपना घर छोड़ कर परदेस जाने लगे हैं। पुरुषों और स्त्रियों दोनों के बाहर जाने के कारण गांव में केवल बूढ़े और अशक्त लोग ही बचते हैं।

सरकार द्वारा लोगों का पलायन रोकने के लिए किए जा रहे उपाय भी काम नहीं आ रहे हैं। बैरवार खास में 894 परिवारों को रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत रोजगार की आवश्यकता थी लेकिन यहां सिर्फ 30 परिवारों को ही रोजगार उपलब्ध कराया जा सका। योजना के अनुसार हर परिवार को दो साल में दो सौ दिनों तक रोजगार दिया जाना है लेकिन वर्ष 2006-07 के दौरान करमौरा गांव के 547 परिवारों में से केवल एक को 100 दिनों तक रोजगार मिला। ज्यादातर परिवारों को योजना के अनुसार 100 दिन की बजाय साल में केवल 30-40 दिन का रोजगार ही मिला।

दो दशकों से सूखे की मार झेल रहे इस राज्य में सरकार द्वारा पर्याप्त मात्रा में राहत कार्य न किए जाने से स्थितियां दिन पर दिन खराब होती जा रही हैं। सरकार को चाहिए कि लोगों का पलायन रोकने के लिए यहां पर्याप्त मात्रा में रोजगार और स्वच्छ जल उपलब्ध कराने के साथ ही यहां के निवासियों को जल संरक्षण की तकनीक से भी परिचित कराए।

(सुमिका राजपूत सिंबायोसिस संचार संस्थान, पुणे की छात्रा हैं और विकास संवाद भोपाल के साथ मिलकर मध्यप्रदेश में सूखे पर प्रशिक्षु के रूप में कार्य कर रही हैं।)

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

तालाबों ने किया सिंगारी गांव का कायाकल्प

सुधीर पाल

उन्हें नहीं पता कि देशभर की नदियों को जोड़ने की योजना बनाई जा चुकी है। इस योजना से होने वाले नफा-नुकसान से भी उनका कोई सरोकार नहीं है। उनके पास तो नदियां हैं ही नहीं, बस तालाब हैं और वे इसे ही जोड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं। तालाबों को जोड़ने के लिए उनके पास श्रम की पूंजी है और नतीजे के रूप से चारों ओर लहलहाती फसल। यही वजह है कि झारखंड के इस गांव में अब कोई प्यासा नहीं है। इस गांव के तालाब अब सूखते नहीं और फसलों की पैदावार ऐसी होती है कि लोगों के जीवन में खुशहाली आ गई। ग्रामीण किसान मजदूर विकास समिति के अधयक्ष एतवा बेदिया कहते हैं कि चार तालाब और बन जाएं तो लोग सौ फीसदी खुश हो जाएंगे।

दरअसल रांची जिले के अनगड़ा प्रखंड के टाटी पंचायत के सिंगारी गांव के लोगों को ऐसा मंत्र मिल गया है जिसकी बदौलत उन्होंने अपने गांव की किस्मत ही बदल दी है। करीब दो हजार की आबादी वाले इस गांव में 18 तालाब हैं और इसे तालाबों वाले गांव के नाम से जाना जाता है। लेकिन 1978 से पहले यहां के हालात कुछ और थे। गांव में तालाब तो थे लेकिन वे केवल बरसात में ही भर पाते थे। इन तालाबों का पानी सालभर की फसल और सिंचाई के लिए पर्याप्त नहीं था। पानी की कमी के चलते लोग असम, कलकत्ताा और धनबाद के ईंट भट्ठों और चाय बगानों में काम करने जाते थे। हालांकि वे बरसात से पहले वापस लौट आते, पर ज्यादा से ज्यादा 15 जनवरी तक ही अपने गांव में रह पाते। हर साल लगने वाले टुसू मेले के बाद गांव में वीरानी छा जाती थी। एक जानकारी के अनुसार गांव में सिर्पफ 12 परिवार ही रह जाते थे, जिनका किसी न किसी मजबूरी के चलते गांव से बाहर निकलना मुश्किल था।

हर साल हो रहे पलायन से गांव के बड़े-बुर्जुगों को गांव में सामाजिक असंतुलन पैदा होने का डर हो गया। लेकिन यह भी हकीकत थी कि बिना पानी के कोई भी गांव में रफककर अपने परिवार वालों को भूखे रखने का खतरा नहीं उठाना चाहता था। गांव में सामूहिक बैठक में इस पर विचार किया गया कि यदि वर्षा के पानी को रोका जाए और पानी का बैंक बनाया जाए तभी जीने का साधन मिलेगा। अब क्या था, गांववालों को तो जैसे एक मंत्र ही मिल गया। सबने मिलकर सबसे पहले पानी के स्रोतों को ढूंढ़ने पर विचार किया।

गांव के बुजुर्गों को अच्छी तरह पता था कि पानी कहां-कहां मिल सकता था। उन्होंने मिलकर वैसी जगह तालाब खोदने का फैसला किया जहां पहले दांडी होते थे। दांडी सदियों पुराने पानी के वे स्रोत थे जिनमें साल भर पानी हुआ करता था। पहले सिंगारी के हर टोले में एक दांडी हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे ये दांडी भी खत्म होने लगे थे।

तालाब खोदने में हजारों रपए खर्च होने थे और गरीब गांववालों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे इतने रफपयों का इंतजाम कर पाएं। लिहाजा बुजुर्गों की सलाह पर गांव के हर व्यक्ति ने तालाब खोदने में श्रमदान किया। इस दौरान वे लोग भी लौटकर अपने गांव आ गए थे जो रोजगार के चलते किसी न किसी शहर में चले गए थे। सिंगारी में पिछले एक दशक में कई विकास कार्य हुए हैं और इतना सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि गांव वालों ने सरकारी कार्यों और योजनाओं को अपना ही समझा। सरकार की सभी योजनाएं गांव में लागू तो हुईं लेकिन उसके रखरखाव और प्रबंधन की जिम्मेदारी गांव वालों ने अपने हाथ में ही रखी। यही वजह है कि गांव में आज 68 कुंए, 22 हैंडपंप और 18 तालाब हैं और सभी ठीक-ठाक हालत में हैं।
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सूखे सर होंगे तर

आशीष कुमार/चित्रकूट से

आदमी के माथे की गाद हट जाए तो तालाब की गाद साफ होते देर नहीं लगती. बुन्देलखण्ड में जगह-जगह तालाबों के पुनर्जीवन का अभियान जोर पकड़ रहा है.
माथे की गाद हटी तो तालाब चमककर आंचल पसारे पानी धारण करने के लिए फिर से तैयार हो रहे हैं. महोबा का चरखारी तालाबों के आंचल में सिमटा कस्बा है. लेकिन समय बीता तो तालाब के आंचल मटमैले हो गये. इसकी कीमत चरखारी को भी चुकानी पड़ी. लेकिन अब चरखारी के आस-पास के मलखान सागर, जयसागर रपट तलैया, गोलाघाट तालाब, सुरम्य कोठी तालाब, रतन सागर, टोला ताल, देहुलिया तालाब, मंडना और गुमान बिहारी जैसे तालाब चमककर निखरने लगे हैं. चरखारी में तालाबों की सफाई का यह काम समाज अपने से कर रहा है क्योंकि सूखे की मार सरकार पर नहीं समाज पर है. बात फैली तो संचित सहयोग की भावना हिलोरे मारकर जागृत हो गयी. आसपास के लोगों ने सुना कि तालाब की गाद साफ हो रही है तो जालौन, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, महोबा और झांसी के लोग भी यहां श्रमदान करने आये.
पानी का पुनरोत्थान हो सकता है? शायद व्याकरण के लिहाज से यह थोड़ा अटपटा लगे लेकिन बुन्देलखण्ड में आज का व्यावहारिक व्याकरण यही है. पानी को बाजार से मुक्त कराने और समाज को पानी का हक दिलाने के लिए पुष्पेन्द्र भाई ने पानी पुनरोत्थान पहल की शुरूआत की है. वे बताते हैं-"हां यह पानी का पुनरोत्थान ही है. बाजार पानी छीनना चाहता है. उस पर अपना कब्जा जमाना चाहता है. इसे रोकने के लिए हमने नवयुवकों की एक टोली बनाई है. ये बुन्देली जल प्रहरी पानी बचाएंगे. उसका पुनरोत्थान करेंगे." अरविन्द सिंह चरखारी नगरपालिका से जुड़े हैं. इस तालाब सफाई अभियान को चलाये रखने में उनका बड़ा योगदान है. वे बताते हैं-"तालाब तो हमेशा से साझी धरोहर रही हैं. यह तो समय और सरकार ने तालाबों को निजी संपत्ति में बदल दिया. यह पुनः समाज के हाथ में वापस जाए इसके लिए समाज को जागरूक करने की जरूरत है."
पुष्पेन्द्र भाई केवल चरखारी तक ही अपना अभियान नहीं रखना चाहते. वे पूरे बुन्देलखण्ड के तालाबों का पुनरूत्थान करना चाहते हैं. इस काम में समाज जुटे और इसे अपना काम समझकर इसमें शामिल हो जाए इसके लिए उनके जैसे लोग कई स्तरों पर कोशिश कर रहे हैं.इनमें सर्वोदय सेवा आश्रम के अभिमन्यु सिंह, राजस्थान लोक सेवा आयोग की नौकरी छोड़कर आये प्रेम सिंह, लोकन्द्र भाई, डॉ भारतेन्दु प्रकाश और सरकारी नुमांईदे सरदार प्यारा सिंह जैसे लोग भी हैं जो बुन्देलखण्ड को उसका गौरव पानी उसे वापिस दिलाना चाहते हैं.
छतरपुर (मध्य प्रदेश) जिले में तालाबों की सफाई का अभियान जोरों पर है. छतरपुर नगरपालिका के अध्यक्ष सरदार प्यारा सिंह ने तालाबों की सफाई का जिम्मा अपने हिस्से ले लिया है. वे बताते हैं "छतरपुर में ग्वाल मगरा, प्रताप सागर, रानी तलैया, किशोर सागर जैसे कई तालाब हैं. मैंने संकल्प लिया है कि अपना कार्यकाल खत्म होने के पहले इन सारे तालाबों की सफाई पूरी कराऊंगा." कुछ इसी तरह का संकल्प लोकेन्द्र भाई का भी है. वे झांसी से हैं और बिनोबा भावे के सर्वोदय सत्याग्रह से जुड़े रहे हैं. उन्होंने अपने घर बिजना को केन्द्र बनाकर 25 किलोमीटर के दायरे में जो कुएं और तालाब बनवाएं हैं वे इस भयंकर सूखे के दौर में भी लोगों को तर कर रहे हैं. लोकेन्द्र भाई पानी तलाशने की उस परंपरागत तकनीकि के बारे में भी बताते हैं जिसके सहारे यह समाज हमेशा पानीदार बना रहा है. वे कहते हैं कि मेंहन्दी की लकड़ी, अरहड़ की झाड़ या बेंत के माध्यम से पानी तलाशना सरल है. बस आपको थोड़ी तपस्या करनी होगी कि इन प्राकृतिक औजारों के भरोसे आप पानी तक कैसे पहुंच सकते हैं. जिन्हें यह पता है वे जानते हैं कि धरती मां के गर्भ में कहां पानी है और कितने गहरे पर है.
सर्वोदय सेवा आश्रम के अभिमन्यु सिंह ने तो पाठा के बड़गड़ क्षेत्र को गोद ही ले लिया है. वे और उनके कार्यकर्ता घूम-घूम कर पानी को बचाने की कोशिशों में लगे रहते हैं. उन्होंने जगह किचेन गार्डेन को भी बढ़ावा दिया है. जिसके पौधों की सिंचाई उस पानी से होती है जो बेकार समझकर बहा दिया जाता है. प्रेम सिंह तो सरकारी नौकरी छोड़कर आये हैं. अब रूखे-सूखे बुन्देलखण्ड में वे पानी और खेती दोनों को नयी ताकत देने की कोशिश कर रहे हैं. देर से ही सही बुन्देलखण्ड अपने हिस्से का पानी संजोने में जुट गया है. हो सकता है जल्द ही उसे इसका प्रसाद भी मिलने लगे.

(आशीष कुमार सोपानस्टेप के संवाददाता हैं. ashishkumaranshu@gmail.com)
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19 सैंटीमीटर की गिरावट सिर्फ दो वर्षों में

अभिषेक सभ्रवाल

पानी को बचाने के लिए बारिश के पानी की रीचार्जिग बहुत जरूरी है। कारपोरेशन को चाहिए कि वह उसी मकान का नक्शा पास करे जिसमें रीचार्जिग सिस्टम लगाया हो। इससे जमीन के नीचे पानी का स्तर सही हो जाएगा।
डॉ. जगीर सिंह, मंडल अधिकारी, भूमि और जल विभाग।


पंजाब की हालत दिन प्रतिदिन काफी खराब होती जा रही है। जालंधर, पंजाब में 10 सालों में पानी का स्तर लगातार गिरा है। स्थिति इतनी भंयकर हो चुकी है कि अगले 10 सालों के बाद खेती तक के लिए पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलेगा, जबकि डर सता रहा है कि कहीं मात्र 15 साल में ही प्रदेश रेगिस्तान न बन जाए। ये हुआ है घरों के साथ-साथ खेतों में भी होती पानी की वेस्टेज से। प्रदेश की मालवा वैल्ट के कुछ गांव अभी से पानी कम होने व खराब होने का दर्द झेल रहे हैं। यहां जमीन के नीचे का पानी खारा हो चुका है और खेती तक के योग्य नहीं रहा। वहीं दोआबा में भी पानी की स्थिति बिगड़ती जा रही है।
2 साल में 19 सैंटीमीटर की गिरावट
पंजाब एग्रीकल्चर डिपार्टमैंट की तरफ से किए गए सर्वे के अनुसार गत 2 सालों में 74 सैंटीमीटर पानी जमीन से नीचे चला गया है, जबकि उससे 10 साल पहले पानी के नीचे जाने की स्थिति 55 सैंटीमीटर थी। यानि दो साल में कुल 19 सैंटीमीटर की गिरावट आई है। पानी के नीचे जाने की रफ्तार लगातार बढ़ रही है।
पंजाब में पिछले कई सालों में पूरी तरह से मानसून नहीं पड़ने के कारण पानी का स्तर काफी नीचे जा चुका है। पिछले 10 सालों में 46 प्रतिशत ही बरसात हुई है, जबकि पिछले साल यह 70 प्रतिशत मापा गया। भूमि और जल विभाग के मुताबिक इस साल भी बारिश कम होने की संभावना है।
किसानों के लिए स्कीम
पानी को बचाने और ज्यादा पैदावार के सरकार ने कई नई स्कीमें शुरू की हैं, जिनमें माइक्रो इरिगेशन स्कीम है। इसमें माइक्रो स्प्रिंकलर, ड्रिप सिस्टम, स्पिंकलर या ओवरहैड शामिल है। ये स्कीमें किसानों को बेहतर पैदावार व पानी की बचत के लिए शुरू की गई हैं। इनके इस्तेमाल से 50 से 70 प्रतिशत पानी की बचत होती है, जबकि लेजर लैवलिंग सिस्टम से सिंचाई करने से पानी की 25 से 30 प्रतिशत बचत होती है।
राज्य में लगभग 10 लाख ट्यूबवैलों से सिंचाई हो रही है, जिसकारण जमीन के नीचे का पानी काफी नीचे जा चुका है। इस संख्या में सैंट्रल डिस्ट्रिक्ट आते हैं यहां इनकी संख्या ज्यादा है इनमें से जालंधर, लुधियाना, कपूरथला, मोगा, नवांशहर। ट्यूबवैल के कारण पानी नीचे जाने के बाद समरसीबल लगाए हैं जो 250 से 300 फुट तक पानी खींचते हैं जिसकारण पानी खत्म हो रहा है। पानी की ज्यादा लागत धान की खेती करने में होती है। इसकी बचत के लिए सरकार ने 20 जून से धान की फसल लगाने को कहा है, ऐसा न करने पर जुर्माने का भी प्रावधान है। मई में धान उगाने से पानी 70 सैंटीमीटर नीचे जाता है जबकि 20 जून को लगाने से 10 सैंटीमीटर पानी ऊपर आता है।
सरकार ने धान की फसल को जून में उगाने के लिए कई बढ़िया स्कीमें शुरू की है,ं जिसके लिए डिपार्टमैंट हर गांव में जाकर पानी बचाने का संदेश दे रहा है। उन्हें ब्राशर बांटे जा रहे हैं, कैसेट चलाकर बताया जा रहा है। पानी की स्थिति पंजाब में बहुत खराब हो रही है अगर ऐसा ही रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पंजाब रेगिस्तान में तबदील हो जाएगा।
- डॉ. स्वतंत्र कुमार, चीफ एग्रीकल्चर ऑफिसर, एग्रीकल्चर डिपार्टमैंट
पानी का दुरुउयोग करने वाले इंसान को सजा होनी चाहिए। किसानों को फसली चक्र से निकल कर सब्जियों की बिजाई करनी चाहिए। पानी को अगर बचाना है तो सबको अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए।
- निरंजन सिंह, हैड ड्राफ्ट्समैन, भूमि और जल विभाग, पंजाब

काम करने के पहले जानना जरूरी है

डा. जितेन्द्र कुमार बजाज (सेन्टर फार पालिसी स्टडीज)
हमारी धारणाएं हमेशा सही नहीं होतीं। इसलिए हमें किसी क्षेत्र के बारे में कार्ययोजना बनाने के पहले उसे जानना बहुत जरूरी है। धर्मपाल जी की प्रेरणा से हमने भारत के जिलों का अधययन करने का निश्चय किया। एक ऐसा अधययन जो अंग्रेजों की दृष्टि से नहीं बल्कि अपनी भारतीय दृष्टि से हो। हमने अपना काम झाबुआ में शुरू किया।

प्रख्यात चिंतक धर्मपाल जी कहा करते थे कि देश को चलाने का औजार गांव और गांव के आस-पास का चरित्र है। उनके निर्देशन में हमने एक जिले को समझने का प्रयास किया था। दक्षिण का एक जिला है चिंगलपेट। वहां अंग्रेजों ने 18वीं शताब्दी में एक सर्वेक्षण किया था। वे हर गांव में गये थे। गांव का घर कैसा है, घर के सामने की गली कितनी चौड़ी है, गांव के लोग कैसे हैं, खेत मे सिंचाई कैसे होती है, उत्पादन कैसे होता है और फिर जो उत्पादन होता है उसका बंटवारा कैसे होता है। इस सबका उन्होंने सर्वेक्षण किया था। उस सर्वेक्षण को हमने धर्मपाल जी के निर्देशन में पूरा संकलित किया। उन गांवों में फिर से हम गए और देखा कि उन गांवों में भारत के पारंपरिक विज्ञान का पूरा दृश्य दिखता है।
चिंगलपेट की बात अठारहवीं सदी की है। उस समय वह अत्यन्त समृध्द था। वहां प्रति व्यक्ति 800 किलोग्राम अनाज उत्पादन होता था और आज हम इतना सब कुछ करने के बाद भी अनाज का उत्पादन 200 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति से उफपर नहीं कर पा रहे हैं। लोगों की सोच है कि भारत में बहुत सी जाति के लोग रहते हैं और बड़ी जातियां छोटी जातियों पर अत्याचार करती थीं। पर यह धारणा भी गलत है। अंग्रेजों के सर्वेक्षण में उत्पादन के बंटवारे में असंतुलन नहीं दिखता है। गांव के घरों में भी काफी समानता थी। हम आज यह मानते हैं कि हमारे गांव साफ नहीं होते थे और वहां योजनाबध्द तरीके से काम नहीं होता था। लेकिन चिंगलपेट का सर्वेक्षण कुछ और ही कहता है। वहां के गांव ऐसे हैं कि उनकी हर गली सबसे आदर्श कोण पर बनी है। उसे 10 डिग्री भी इधर से उधार करने पर समस्या उत्पन्न हो जाती। सिंचाई की व्यवस्था को देखकर लगा जैसे वहां के लोगों ने अपनी जमीन के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण किया हो। कहां ऊंचा है, कहां नीचा है उसका पूर्ण ज्ञान लोगों को था। उस समय जमीन की ढलान के अनुसार जहां-जहां तालाब की आवश्यकता थी, गुंजाइश थी, वहां-वहां लोगों ने तालाब बना लिया था। इस तरह कहा जा सकता है कि वहां के लोग अपने स्थान के बारे में पूरी जानकारी रखते थे। आज हालात यह है कि हमारे नेता और अफसर दिल्ली में या राज्यों की राजधानी में बैठकर योजना बना देते हैं जबकि उन्हें जमीनी परिस्थिति की न के बराबर जानकारी होती है। धर्मपाल जी हमसे कहा करते थे कि जिस तरह चिंगलपेट का अध्ययन हुआ, वैसा अध्ययन देश के सभी जिलों का होना चाहिए। यह बहुत बड़ा काम है।
अंग्रेजों ने गजट तैयार किया था। चिंगलपेट में सबसे पहले अंग्रेजों ने कलेक्टर बैठाया। उसके बाद ही अन्य जिलों में कलेक्टर बैठाए गए। कलेक्टर ने आकर पहला काम लोगों की सत्ता का पूर्ण विनाश करने का किया। अंग्रेजों ने यह तय किया कि जो व्यवस्था लोग खुद करते हैं वो ये खुद न करें बल्कि उसे हम करेंगे। जो पैसा ये लगाते हैं वह हमारे पास आये। इसका नतीजा यह हुआ कि 10 साल के अन्दर चिंगलपेट जिला के कलेक्टर ने अपनी रिपोर्ट भेजी और अपने अफसरों को बताया कि अब यहां के लोग काम नहीं करना चाहते हैं और वे पलायन कर रहे हैं। यह इसलिए हुआ क्योंकि लोक व्यवस्था कलेक्टर के हाथ में आ गयी थी। यही व्यवस्था आज भी चल रही है। चिंगलपेट के कलेक्टर का जो अधिकार उस समय था, वही आज भी है। उसका अधिकार घटा नहीं है, बल्कि बढ़ा ही है। आजादी के बाद गांवों को कुछ अधिाकार देने की बात की गई, लेकिन कितना अधिकार दिया गया, यह हम सभी जानते हैं।
धर्मपाल जी की प्रेरणा से हमने भारत के जिलों का अधययन करने का निश्चय किया। एक ऐसा अधययन जो अंग्रेजों की दृष्टि से नहीं बल्कि अपनी भारतीय दृष्टि से हो। हमने अपना काम झाबुआ में शुरू किया। झाबुआ की विशेषता है कि वह मैदानी इलाका नहीं है। वहां की जमीन पथरीली है। फिर भी खेती हो सकती है। वहां की जमीन में कम से कम 5-10 डिग्री की ढलान हर जगह है। वहां के मुख्य निवासी भील हैं। उनके बीच ऐसी मान्यता है कि जब पहले भील ने जन्म लिया था तो महादेव ने कहा कि जब तक तुम खेती करोगे तब तक तुम्हारा अस्तित्व बचा रहेगा। वहीं अंग्रेजों ने लिखा है कि भीलों को खेती करनी नहीं आती है। अंग्रेजों की बात पर विश्वास करके हमारे लोगों ने भी मान लिया कि झाबुआ के लोग खेती कर ही नहीं सकते। कई बार मैंने अधिाकारियों को समझाने की कोशिश की, लेकिन हर बार असफल रहा। झाबुआ में 800 मिलीलीटर प्रतिवर्ष वर्षा होती है। यह पर्याप्त है, यदि इसका सदुपयोग हो। देश की औसत वर्षा 1000 मिलीलीटर है। संसार के बहुत कम क्षेत्रेंमें इतनी वर्षा होती है। यदि वर्षा जल का ठीक से उपयोग करना है तो पानी की व्यवस्था को पूरे देश में सही करना जरूरी है। महाभारत और रामायण काल से ही देखने में आया है कि राजा या प्रजा को पानी की व्यवस्था करनी ही पड़ती थी। जहां सिंचाई की व्यवस्था नहीं होगी वहां खुशहाली नहीं हो सकती। रामायण में जब भरत चित्रकूट जाते हैं, राम जी से मिलने तो उनसे कई सवाल किए जाते हैं। जैसे कुएं सूखे तो नहीं हैं, तालाब में पानी तो है न और बैल ठीक-ठाक हैं क्या। ऐसे ही युधिष्ठिर से भी प्रश्न पूछे जाते हैं, जब वे महाभारत युध्द के बाद भीष्म पितामह से मिलने जाते हैं। झाबुआ की सभी सीमाओं पर कोई न कोई नदी बहती है। उफपर माही, नीचे नर्मदा बहती है और बीच में भी नदी बहती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि इनमें 12 मास पानी रहता है। झाबुआ पर शोध करने वाले भी मानते हैं कि यहां की नदियां पूरे साल बहती हैं।
झाबुआ में बहुत सारे तालाब हैं। जैसा चिंगलपेट में देखा गया था उसी प्रकार का झाबुआ में भी है, यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। झाबुआ के बारे में एक लोककथा है। वहां की एक नायिका रही है जसमा। कहा यहां तक जाता है कि जसमा के पिता राजा थे। उन्होंने पानी का अच्छे ढंग से प्रबंध नहीं किया तो जसमा अपने पिता को छोड़कर चली गई थी। उसने एक सेना तैयार की और जहां-जहां लोगों को पानी की जरूरत होती वहां जसमा अपनी सेना के साथ पहुंचती और जाकर तालाब और साथ में मंदिर बना देती थी। भीलों की मान्यता है कि झाबुआ के अधिकतर तालाब जसमा माता ने बनाए हैं। मैंने वहां 16 वीं सदी, 17वीं सदी और आज के भी बने तालाब को देखा है। सब समय के तालाब वहां मिलते हैं। मुझे लगता है कि देश के सभी जिलों में पानी की जो व्यवस्था की गई थी उसका विशेष रूप से संकलन करना चाहिए।
झाबुआ की आबादी में महिलाएं फरुषों के बराबर ही हैं। यहां के 97 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं, लेकिन हिन्दू हैं। यह महत्वपूर्ण है। 1991 में वहां ईसाई नहीं थे। लेकिन अब वहां तीन प्रतिशत ईसाई हैं। वहां अधिकतर जोतें छोटी हैं। बहुत कम जोतें एक एकड़ की हैं। यहां 55 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है। अनेक तहसीलें ऐसी हैं जहां 70 प्रतिशत जमीन पर खेती होती है। यह भी भारत की विशेषता है कि पहाड़ी क्षेत्र में 50 प्रतिशत और मैदानों में 90 प्रतिशत जमीन पर खेती होती है। कोई जगह यहां खाली या बेकार नहीं है, जहां सेज बनाया जा सके।
झाबुआ मे पहले घना जंगल हुआ करता था। अब जंगल लगभग कट गए हैं। वहां के पहाड़ अब पहले की तरह हरे-भरे नहीं दिखाई देते। यहां जंगल नहीं होने का नतीजा यह हुआ है कि मिट्टी बहने लगी है। झाबुआ में बहुत जगह ऐसा हुआ है। वहां यह समस्या बढ़ रही है। झाबुआ में प्रति परिवार दो गाय या भैंस हैं। जोतने के लिए एक जोड़ी बैल है। देश में बहुत कम ऐसे क्षेत्र हैं जहां जोत के लिए कोई जानवर हो। तीन-चार बकरी भी झाबुआ के प्रत्येक परिवार में मिल जाती है। यानि प्रत्येक परिवार में लगभग सात पशु हैं। भील अपने घरों में पशुओं के साथ ही रहते हैं। यदि आप भील की तस्वीर लेना चाहें तो उसके साथ पशु जरूर दिखेंगे।
देश के अधिकतर हिस्सों में नकदी फसल बोने का रिवाज बढ़ रहा है। दलहन की जगह कपास आदि उपजाया जाने लगा है। इस कारण अनाज और दलहन की उपज कम होने लगी है। झाबुआ में ऐसी स्थिति नहीं है। वहां 75 प्रतिशत भूमि पर लोग दलहन उगाते हैं। वहां कपास और सोयाबीन बहुत कम उगाया जाता है। वहां की भूमि इतनी कठोर है कि बैल से जुताई करना मुश्किल है। पानी निकालना भी आसान नहीं है। फिर भी वहां के भील खेती करते हैं और बेहतर खेती करते हैं।
(प्रस्तुति : गुंजन कुमार)

उत्तर प्रदेश में जल की बर्बादी पर गठित ड्रेनेज समिति की रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश में जल की बर्बादी पर गठित ड्रेनेज समिति की रिपोर्ट काफी महत्व की है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित ड्रेनेज समिति ने लगभग 45 प्रतिशत वर्षा जल बर्बाद हो जाने का जो तथ्य सामने रखा वह आंखें खोलने वाला है, लेकिन इसमें संदेह है कि वे लोग चेतेंगे जिन पर जल संरक्षण की जिम्मेदारी है। यह पहली बार नहीं जब वर्षा जल को संचित न कर पाने तथा उसके नदियों में व्यर्थ बह जाने पर चिंता व्यक्त की गई हो। समय-समय पर इस तरह की चिंता एक लंबे समय से व्यक्त की जाती रही है, लेकिन अभी तक का अनुभव यह बताता है कि किसी भी स्तर पर ऐसे प्रयास नहीं किए जा सके जिससे वर्षा जल को व्यर्थ जाने से रोका जा सके। समस्या केवल यही नहीं है कि वर्षा जल संरक्षण के उपाय नहीं हो रहे, बल्कि यह भी है कि गिरते भूजल स्तर को ऊंचा उठाने के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे। न केवल भूजल का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, बल्कि अनेक स्थानों पर उसे प्रदूषित भी किया जा रहा है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि बारिश के जल के संरक्षण की जिन योजनाओं पर कुछ काम भी हुआ था वे भी प्रशासनिक तंत्र की निष्क्रियता के कारण उपेक्षित पड़ी हुई हैं।
समस्या इसलिए और अधिक गंभीर होती जा रही है, क्योंकि नहर, तालाब, पोखर और कुएं जैसे जल के जो परंपरागत स्त्रोत हैं उन्हें बचाए रखने के लिए कुछ ठोस होता हुआ नजर नहीं आता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नहर, तालाब और पोखर न केवल सूखते जा रहे हैं, बल्कि उन पर अतिक्रमण भी किया जा रहा है। यह आवश्यक है कि जल संरक्षण के जो भी उपाय सामने हैं उन पर एक साथ कार्य किया जाए। ऐसा करके ही पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ-साथ सिंचाई के साधन बढ़ाए जा सकते हैं और सूखे की समस्या का एक हद तक समाधान किया जा सकता है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि राज्य सरकार ड्रेनेज समिति की सिफारिशों के अनुरूप ऐसा कुछ करेगी जिससे वर्षा जल की बर्बादी को रोका जा सके, लेकिन यदि वह वास्तव में जल संकट को समाप्त करने के प्रति गंभीर है तो उसे जल संरक्षण के उपायों को इस तरह अमल में लाना होगा जिससे बाढ़ और सूखे की समस्या का एक साथ समाधान किया जा सके।

एक अकालजयी पुस्तक - आज भी खरे हैं तालाब

ऐसी विरली ही पुस्तकें होती हैं जो न केवल पाठक तलाशती हैं, बल्कि तलाशे पाठकों को कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में तराशती भी हैं. अपनी प्रसन्न जल जैसी शैली तथा देश के जल स्रोतों के मर्म को दर्शाती एक पुस्तक ने भी देश को हजारों कर्मठ कार्यकर्ता दिए हैं. पुस्तक का नाम है ‘आज भी खरे हैं तालाब’. श्री अनुपम मिश्र द्वारा लिखित तथा गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक का पहला संस्करण 1993 में छपा. पांचवां संस्करण 2004 में छपा और कुल प्रतियां 23000 छपीं. लेकिन 93 से 2004 के बीच पुस्तक ने देश भर में आवारा मसीहा की तरह घूम-घूम कर अपने-अपने क्षेत्र के जल स्रोतों को बचाने की अलख जगा दी और यह सिलसिला आज भी जारी है.

अपने देश में बेजोड़ सुंदर तालाबों की कैसी भव्य परंपरा थी, पुस्तक उसका पूरा दर्शन कराती है. तालाब बनाने की विधियों के साथ-साथ अनुपमजी की लेखनी उन गुमनाम नायकों को भी अंधेरे कोनों से ढूढ लाती है, जो विकास के नए पैमानों के कारण बिसरा दिए गए हैं.
पुस्तक के बारे में मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी ने इसके छपने के तुरंत बाद ही जो लिखा था वही शायद इस पुस्तक को सही स्थान देने की सही कोशिश कर पाता है. प्रभाष जी के लेख के कुछ अंश ज्यों के त्यों दायीं तरफ़ दिए गए बक्से में है.

पुस्तक के पहले संस्करण के बाद देशभर में पहली बार अपने प्राचीन जल स्रोतों को बचाने की बहस चली, लोगों ने जगह-जगह बुजुर्गों की तरह बिखरे तालाबों की सुध लेनी शुरू की. इसकी गाथा बेशक लंबी है, लेकिन फिर भी देखने का प्रयास करते हैं.

मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित जल राणा राजेंद्र सिंह बताते हैं कि राजस्थान की उनकी संस्था तरुण भारत संघ के पानी बचाने के बड़े काम को सफल बनाने में इस पुस्तक का बहुत बड़ा हाथ है. मध्यप्रदेश के सागर जिले के कलेक्टर श्री बी. आर. नायडू, जिन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती थी, पुस्तक पढ़ने के बाद इतना प्रभावित हुए कि जगह-जगह लोगों से कहते फिरे, ‘अपने तालाब बचाओ, तालाब बचाओ, प्रशासन आज नहीं तो कल अवश्य चेतेगा.’ श्री नायडू की ये मामूली अलख सागर जिले के 1000 तालाबों को निरंजन कर गई. ऐसी ही एक और अलख के कारण शिवपुरी जिले के लगभग 340 तालाबों की सुध ली गई. मध्यप्रदेश के ही सीधी और दमोह के कलेक्टरों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में इस पुस्तक की सौ-सौ प्रतिया बांटी.

पानी के लिए तरसते गुजरात के भुज के हीरा व्यापारियों ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण की मुहिम चलाई. पुस्तक से प्रेरणा पाकर पूरे सौराष्ट्र में ऐसी अनेक यात्राएं निकाली गईं. पानी बचाने के लिए सबसे दक्ष माने गए राजस्थान के समाज को भी इस पुस्तक ने नवजीवन दिया. राजस्थान के प्रत्येक कोने में पुस्तक के प्रभाव के कारण सैकड़ों जल-यात्राओं के साथ-साथ हजारों पुरातन जल-स्रोत संभाले गए. ऐसी अनेक यात्राएं आज भी जारी हैं.

जयपुर जिले के ही सालों से अकालग्रस्त लापोड़िया गांव ने इस पुस्तक को आत्मा में बसाया. लापोड़िया गांव ने पुस्तक से प्रेरणा पाकर न केवल अपनी जलगाहें बचाईं, बल्कि अपने प्रदेश की चारागाहें तथा गोचर भी बचाए. लापोड़िया के सामूहिक प्रयासों का नतीजा यह रहा कि आज 300 घरों का लापोड़िया जयपुर डेयरी को चालीस लाख वार्षिक का दूध दे रहा है. जल-जंगल संरक्षण के ऐसे ही आंदोलनों से लापोड़िया को लक्ष्मण सिंह जैसा नेतृत्व क्षमता वाला नायक मिला. उनकी इन्ही क्षमताओं के कारण आज लापोड़िया के आसपास के 300 गांव अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं. शहरों की ओर पलायन में निरंतर गिरावट आई है.

पुस्तक का प्रभाव उत्तरांचल में भी हुआ. यहां पौड़ी-गढ़वाल के उफरेखाल क्षेत्र के दूधातोली लोक विकास संस्थान के श्री सच्चिदानंद भारती ने पुस्तक से प्रेरणा पाकर पहाड़ी क्षेत्रों की विस्तृत चालों(पानी बचाने के लिए पहाड़ी तलाई) को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया. इस दौरान पिछले 13 सालों में उन्होंने 13 हजार चालों को बचाया-बनाया. उनके इन्हीं प्रयासों से उजड़े हिमालय के शीश पर फिर से हरियाली का मुकुट दिखने लगा है.

गैर हिंदी भाषी राज्य कर्नाटक में इस पुस्तक का सीधा प्रभाव राज्य सरकार पर पड़ा. कर्नाटक सरकार ने तालाब बचाने का काम सीधे अपने ही हाथ में ले लिया और वहां एक जल ‘संवर्धन योजना संघ’ बनाया गया तथा विश्व बैंक की मदद से पूरे राज्य के तालाब बचाने की योजना तैयार की गई है. इसी राज्य की ही इंफोसिस कंपनी के मालिक श्री नारायणमूर्ति की पत्नी सुधामूर्ति ने इस पुस्तक का कन्नड़ में अनुवाद किया है और 50 हजार प्रतियां छपवाकर कर्नाटक की प्रत्येक पंचायत में भिजवाने की योजना बनाई है.

हरित क्रांति के जेहादी नारे के बाद निरंतर रेगिस्तान की ओर अग्रसर पंजाब में इस पुस्तक का नाद सुनाई दिया. सर्वप्रथम इसका पंजाबी अनुवाद मालेरकोटला से प्रकाशित ‘तरकश’ नामक पत्रिका में शुरू हुआ. फिर इसका एक संक्षिप्त पंजाबी संस्करण छपा जो मुफ्त में बांटा गया. कुछ वर्षों बाद इसके अनुवाद के साथ पंजाब के सुख-दुख जोड़कर एक पुस्तक की शक्ल दी गई. इस नए अनुवाद का व्यापक प्रभाव रहा. पंजाब के साहित्यकारों, आलोचकों, लोकगायकों, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं के साथ-साथ प्रमुख संतों, यहां तक कि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों पर भी इसका खासा प्रभाव पड़ा. पंजाबी अनुवाद का श्री गुरुनानक देवजी की नदी का उद्धार करने वाले संत बलवीर सीचेवालजी ने बेहद रचनात्मक उपयोग किया. वे अब नदी किनारे होने वाले वार्षिक साहित्यिक सम्मेलनों में पुस्तक खरीद कर रचनाधर्मियों को भेंट करते हैं. पंजाब के लोकगायकों ने इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अपने तरीके से जलस्रोतों को बचाने की मुहिम शुरू की है. देश के अधिकतर लेखक तथा प्रकाशक पुस्तकें न पढ़ने वाले पाठकों का रोना रोते हैं. पर वे शायद ये भूल जाते हैं कि पुस्तकों का सच्चा अर्थ समाज के नाम लिखा प्रेम-पत्र होता है. और कितनी पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिनमें समाज के लिए प्रेम भरा होता है? श्री अनुपम मिश्र की इस कृति ने यही काम किया है. ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है.

बंगाल का किस्सा भी मजेदार है. जहाज से हथियार गिराए जाने के बाद सूर्खियों में आए पुरुलिया नामक कस्बे की एक घुमक्कड़ पत्रकार निरुपमा अधिकारी वहां के एक अकाल क्षेत्र का दौरा करती-करती अचानक हरियाली देखकर ठिठक गईं. गांव वालों से पता चला कि उस गांव में कुछ तालाब जिंदा थे, इसलिए वहां धरती के भीतर की नमी अभी शेष थी. तालाबों की उपयोगिता के बारे में निरुपमा की दृष्टि साफ होती चली गई. इसी बीच निरुपमा के एक मित्र ने उन्हें तालाब पुस्तक भेंट की. निरुपमा का जीवन पुस्तक पढ़ते-पढ़ते बदलता गया. रोजी-रोटी का पक्का प्रबंध न होने के बावजूद निरुपमा ने इसका बांग्ला अनुवाद किया. अब इस अनुवाद का दूसरा संस्करण भी छप चुका है.

कई राज्यों से गुजरते हुए पुस्तक के किस्से महाराष्ट्र भी पहुंचे. कभी जलसंसाधन मंत्रालय के सचिव रह चुके औरंगाबाद के प्रसिद्ध इंजीनियर माधव चितले की आंखों के सामने से जैसे ही यह पुस्तक गुजरी, उन्होंने इसके मराठी अनुवाद की तत्काल जरूरत महसूस की. बेशक यह पुस्तक आज की इंजीनियरिंग शिक्षा पद्धति को आईना दिखाता है, फिर भी माधवजी ने इसका मराठी अनुवाद ‘औरंगाबाद संस्कृति मंडल’ के सौजन्य से छापा.

भूकंप में ध्वस्त हो चुके गुजरात में भी इस पुस्तक का अनुवाद किया गया. श्री दिनेशभाई संघवी ने पुस्तक का अनुवाद किया तथा गुजराती समाचार पत्र ‘जन्मभूमि प्रवासी’ ने इसे धारावाहिक रूप में छापा.

देशभर में अमृत छिड़कने के बाद यह पुस्तक फ्रांस की एक लिखिका एनीमोंतो के हाथ लगी. एनीमोंतो ने इसे दक्षिण अफ्रीकी रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के लिए तड़पते लोगों के लिए उपयोगी समझा. फिर उन्होंने इसका फ्रेंच अनुवाद किया. ताजा जानकारी के अनुसार पुस्तक के प्रभाव के कारण इस क्षेत्र में पानी की संभाल में काफी तेजी आई है.

भारत ज्ञान-विज्ञान परिषद् ने इसकी 25 हजार प्रतियां छापकर मुफ्त में बांटी. मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग ने भी 25 हजार प्रतियां छापकर प्रदेश की प्रत्येक पंचायत तक पहुंचाया. भोपाल के राज्य संसाधन केंद्र ने इसकी 500 प्रतियां 500 गांवों में बांटी. अहमदाबाद की ‘उत्थान माहिती’ नामक संस्था ने 500 प्रतियां छापकर सामाजिक संस्थाओं में मुफ्त बांटी. नागपुर के स्वराज प्रकाशन ने 5 हजार प्रतियां छापकर मुफ्त में बांटी. बिहार के जमालपुर की संस्था ‘नई किताब’ ने भी इसकी 11 सौ प्रतियां बांटी. देशभर के 16 रेडियो स्टेशन पुस्तक को धारावाहिक रूप में ब्रॉडकास्ट कर चुके हैं. कपार्ट की सुहासिनी मुले ने इस पुस्तक पर बीस मिनट की फिल्म भी बनाई है. सीमा राणा की बनाई फिल्म दूरदर्शन पर आठ बार प्रसारित हो चुकी है.

भोपाल के शब्बीर कादरी ने पुस्तक का उर्दू अनुवाद किया और मध्यप्रदेश के मदरसों में मुफ्त में बांटी. उर्दू तथा पंजाबी अनुवाद पाकिस्तान भी पहुंच चुके है.

गुजरात की एक संस्था ‘समभाव’ के श्री फरहाद कांट्रैक्टर पर इस पुस्तक का गहरा प्रभाव पड़ा. श्री फरहाद राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, अलवर, जोधपुर, महाराष्ट्र तथा गुजरात के कई हिस्सों में पुराने जल स्रोतों को बचाने के एक विराट काम में जुटे हैं. गुजरात की ही श्रीमती डेजी कांट्रेक्टर इस पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद कर रही हैं.

सदियों से ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जाति का विकास मीठे जल-स्रोतों के मुहानों पर ही हुआ. जीवन के राग-विराग मनुष्य ने वहीं पर सीखे, लेकिन विकास की अंधी होड़ में मनुष्य के चारों ओर अंधेरा बढ़ता जा रहा है. इस अंधेरे की बाती को हम सब तथा हमारी तरह-तरह की नीतियां-प्रणालियां दिन-ब-दिन बुझाने की कोशिश में लगी हुई हैं.

देश के अधिकतर लेखक तथा प्रकाशक पुस्तकें न पढ़ने वाले पाठकों का रोना रोते हैं. पर वे शायद ये भूल जाते हैं कि पुस्तकों का सच्चा अर्थ समाज के नाम लिखा प्रेम-पत्र होता है. और कितनी पुस्तकें ऐसी होती हैं, जिनमें समाज के लिए प्रेम भरा होता है?

श्री अनुपम मिश्र की इस कृति ने यही काम किया है. ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक न केवल धरती का, बल्कि मन-माथे का अकाल भी दूर करती है.

सुरेंद्र बांसल

http://www.tehelkahindi.com
और अब अनुपम मिश्र ने 'आज भी खरे हैं तालाब' निकाली है. यह संपादित नहीं है. अनुपम ने ख़ुद लिखी है. नाम कहीं अन्दर है छोटा सा, लेकिन हिन्दी के चोटी के विद्वान् ऐसी सीधी सरल, आत्मीय और हर वाक्य में एक बात कहने वाली हिन्दी तो ज़रा लिखकर बताएं. जानकारी की तो बात कर ही नहीं रहा हूँ. अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है. समझा है. अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है. कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता है. लेकिन भारतीय इंजीनियर नहीं, शोधक विद्वान् नहीं, भारत के समाज और तालाब से उसके सम्बन्ध को सम्मान से समझने वाला विनम्र भारतीय. ऐसी सामग्री हिन्दी में ही नहीं अंग्रेज़ी और किसी भी भारतीय भाषा में आपको तालाब पर नहीं मिलेगी. तालाब पानी का इंतज़ाम करने का पुण्य कर्म है जो इस देश के सभी लोगों ने किया है. उनको, उनके ज्ञान को और उनके समर्पण को बता सकने वाली एक वही किताब है. आप चाहें तो कलकत्ता का राष्ट्रीय सभागार देख लें. यह किताब भी दूसरी किताबों की तरह ही निकली है. पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है. उसके जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं. यह उसका और हमारा दोनों का सौभाग्य है.

प्रभाष जोशी (17.10.1993)

अनुपम मिश्र की तालाब साधना

साभार- visfot.com

पर्यावरणविद अनुपम मिश्र बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि सीएसई की स्थापना में अनुपम मिश्र का बहुत योगदान रहा है. इसी तरह नर्मदा पर सबसे पहली आवाज अनुपम मिश्र ने ही उठायी थी.

साध्य साधन और साधना लेख को लिखते हुए वे कहते हैं यह न अलंकरण है न अहंकार. अलंकरण और अहंकार से मुक्त अनुपम मिश्र का परिचय देना हो तो प्रख्यात कहकर समेट दिया जाता है. उनके लिए यह परिचय मुझे हमेशा अधूरा लगता है. फिर हमें अपनी समझ की सीमाओं का भी ध्यान आता है. हम चौखटों में समेटने के अभ्यस्त हैं इसलिए जब किसी को जानने निकलते हैं तो उसको भी अपनी समझ के चौखटों में समटेकर उसका एक परिचय गढ़ देते हैं. लेकिन क्या वह केवल वही है जिसे हमने अपनी सुविधानुसार एक परिचय दे दिया है? कम से कम अनुपम मिश्र के बारे में यह बात लागू नहीं होती. वे हमारी समझ की सीमाओं को लांघ जाते हैं. उनको समझने के लिए हमें अपनी समझ की सीमाओं को विस्तार देना होगा. अपने दायरे फैलाने होंगे. असीम की समझ से समझेंगे तो अनुपम मिश्र समझ में आयेंगे और यह भी कि वे केवल प्रख्यात पर्यावरणविद नहीं हैं.

वे लोकजीवन और लोकज्ञान के साधक हैं. अब न लोकजीवन की कोई परिधि या सीमा है और न ही लोकज्ञान की. इसलिए अनुपम मिश्र भी किसी सीमा या परिचय से बंधें हुए नहीं हैं. हालांकि उन्हें हमेशा ऐतराज रहता है जब कोई उनके बारे में बोले-कहे या लिखे. उन्हें लगता है कि उनके बारे में लिखने से अच्छा है उनकी किताब "आज भी खरे हैं तालाब" के बारे में दो शब्द लिखे जाएं. कितने लाख लोग अनुपम मिश्र को जानते हैं इससे कोई खास मतलब नहीं है कितनी प्रतियां इस किताब की बिकी हैं सारा मतलब इससे है. तो क्या अनुपम मिश्र अपनी रॉयल्टी की चिंता में लगे रहनेवाले व्यक्ति हैं जो अपनी किताब को लेकर इतने चिंतित रहते हैं? शायद. क्योंकि उनकी रायल्टी है कि समाज ज्यादा से ज्यादा तालाब के बारे में अपनी धारणा ठीक करें. पानी के बारे में अपनी धारणा ठीक करे. पर्यावरण के बारे में अपनी धारणा ठीक करे. भारत और भारतीयता के बारे में अपनी धारणा शुद्ध करे. अगर यह सब होता है तो अनुपम मिश्र को उनकी रायल्टी मिल जाती है. और किताब पर लिखा यह वाक्य आपको प्रेरित करे कि इस पुस्तक पर कोई कॉपीराईट नहीं है, तो आप इस किताब में छिपी ज्ञानगंगा का अपनी सुविधानुसार जैसा चाहें वैसा प्रवाह निर्मित कर सकते हैं. यह जिस रास्ते गुजरेगी कल्याण करेगी.

1948 में अनुपम मिश्र का जन्म वर्धा में हुआ था.पिताजी हिन्दी के महान कवि. यह भी आपको तब तक नहीं पता चलेगा कि वे भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं जब तक कोई दूसरा न बता दे. मन्ना (भवानी प्रसाद मिश्र) के बारे में लिखे अपने पहले और संभवतः एकमात्र लेख में वे लिखते हैं"पिता पर उनके बेटे-बेटी खुद लिखें यह मन्ना को पसंद नहीं था." परवरिश की यह समझ उनके काम में भी दिखती है. इसलिए उनका परिचय अनुपम मिश्र हैं. भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम मिश्र कदापि नहीं. यह निजी मामला है. मन्ना उनके पिता थे और वैसे ही पिता थे जैसे आमतौर पर एक पिता होता है. बस. पढ़ाई लिखाई तो जो हुई वह हुई. 1969 में जब गाँधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े तो एम.ए. कर चुके थे. लेकिन यह डिग्रीवाली शिक्षा किस काम की जब अनुपम मिश्र की समझ ज्ञान के उच्चतम धरातल पर विकसित होती हो. अपने एक लेख पर्यावरण के पाठ में वे लिखते हैं"लिखत-पढ़तवाली सब चीजें औपचारिक होती हैं. सब कक्षा में, स्कूल में बैठकर नहीं होता है. इतने बड़े समाज का संचालन करने, उसे सिखाने के लिए कुछ और ही करना होता है. कुछ तो रात को मां की गोदी में सोते-सोते समझ में आता है तो कुछ काका, दादा, के कंधों पर बैठ चलते-चलते समझ में आता है. यह उसी ढंग का काम है-जीवन शिक्षा का.

अनुपम मिश्र कौन से काम की चर्चा कर रहे हैं? फिलहाल यहां तो वे पर्यावरण की बात कर रहे हैं. वे कहते हैं "केवल पर्यावरण की संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधरता. वैसे ही जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो जाते." यानी एक मजबूत समाज में पर्यावरण का पाठ स्कूलों में पढा़ने के भ्रम से मुक्त होना होगा. और केवल पर्यावरण ही क्यों जीवन के दूसरे जरूरी कार्यों की शिक्षा का स्रोत स्कूल नहीं हो सकते. फिर हमारी समझ यह क्यों बन गयी है कि स्कूल हमारे सभी शिक्षा संस्कारों के एकमेव केन्द्र होने चाहिए. क्या परिवार, समाज और संबंधों की कोई जिम्मेदारी नहीं रह गयी है? अनुपम मिश्र के बहाने ही सही इस बारे में तो हम सबको सोचना होगा. अनुपम मिश्र तो अपने हिस्से का काम कर रहे हैं. जरूरत है हम भी अपने हिस्से का काम करें.

अनुपम मिश्र की जिस "आज भी खरे हैं तालाब" किताब का जिक्र मैं ऊपर कर आया हूं उसने पानी के मुद्दे पर बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन किये हैं. राजस्थान के अलवर में राजेन्द्र सिंह के पानीवाले काम को सभी जानते हैं. इस काम के लिए उन्हें मैगसेसे पुरस्कार भी मिल चुका है. लेकिन इस काम में जन की भागीदारी वाला नुख्सा अनुपम मिश्र ने गढ़ा. राजेन्द्र सिंह के बनाये तरूण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे. शुरूआत में राजेन्द्र सिंह के साथ जिन दो लोगों ने मिलकर काम किया उसमें एक हैं अनुपम मिश्र और दूसरे सीएसई के संस्थापक अनिल अग्रवाल. सच कहें तो इन्हीं दो लोगों ने पूरे कार्य को वैचारिक आधार दिया. राजेन्द्र सिंह ने जमीनी मेहनत की और अलवर में पानी का ऐसा वैकल्पिक कार्य खड़ा हो गया जो आज देश के लिए एक उदाहरण है. लेकिन अनुपम मिश्र केवल अलवर में ही नहीं रूके. वे लापोड़िया में लक्ष्मण सिंह को भी मदद कर रहे हैं, पहाड़ में दूधातोली लोकविकास संगठन को पानी के काम की प्रेरणा दे रहे हैं और न जाने कितनी जगहों पर वे यात्राएं करते हैं और भारत के परंपरागत पर्यावरण और जीवन की समझ की याद दिलाते हैं. बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि सीएसई की स्थापना में अनुपम मिश्र का बहुत योगदान रहा है. इसी तरह नर्मदा पर सबसे पहली आवाज अनुपम मिश्र ने ही उठायी थी.

हाल फिलहाल वे इंफोसिस होकर आये हैं. इंफोसिस फाउण्डेशन ने उनको सिर्फ इसलिए बुलाया था कि वे वहां आयें और पानी का काम देखें. अनुपम जी गये और कहा कि आपके पास पैसा भले बाहर का है लेकिन दृष्टि भारत की रखियेगा. भारत और भारतीयता की ऐसी गहरी समझ के साक्षात उदाहरण अनुपम मिश्र ने कुल छोटी-बड़ी 17 पुस्तके लिखी हैं जिनमें अधिकांश अब उपलब्ध नहीं है. एक बार नानाजी देशमुख ने उनसे कहा कि आज भी खरे हैं तालाब के बाद कोई और किताब लिख रहे हैं क्या? अनुपम जी सहजता से उत्तर दिया- जरूरत नहीं है. एक से काम पूरा हो जाता है तो दूसरी किताब लिखने की क्या जरूरत है.

अनुपम मिश्र को भले ही लिखने की जरूरत नहीं हो लेकिन हमें अनुपम मिश्र को बहुत संजीदगी से पढ़ने की जरूरत है.



अनुपम मिश्र

संपादक, गांधी मार्ग

गांधी शांति प्रतिष्ठान
दीनदयाल उपाध्याय रोड
(आईटीओ)
नई दिल्ली - 110002
फोन-011 23237491, 23236734

अनुपम मिश्र की उपलब्ध पुस्तकें

1. आज भी खरे हैं तालाब
2. राजस्थान की रजत बूंदे
3. साफ माथे का समाज (यह लेख संग्रह पेंगुइन ने प्रकाशित किया है.)

एक और चोट गंगा पर

प्रदीप कुमार शुक्ल
विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि हाइवे के संरक्षण क्षेत्र में पालतू पशु तथा पक्षियों में कौवा व गोरैया पाये जाते हैं। इसी क्रम में आगे बताया गया है कि हाईवे के 10 कि.मी. की परिधि में कोई पुरातात्विक महत्व का स्मारक व संरक्षित सम्पत्तियां नहीं हैं। इन तथ्यों की सत्यता का अनुमान हर शिक्षित नागरिक लगा सकता है।

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के गंगा एक्सप्रेस हाईवे के स्वप्न को साकार करने के लिए सरकारी मशीनरी के द्वारा पर्यावरण संरक्षण कानून तथा पर्यावरण एवं वन मंत्रलय की नीतियों की धज्जियां उड़ाकर रख दी गई हैं। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य विभागों द्वारा जारी किए गए अनापत्ति प्रमाण-पत्र और उससे जुड़ी कार्यवाहियां पर्यावरण संरक्षण के लिए शासन-प्रशासन दोनों की प्रतिबध्दता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। देश के पर्यावरणविद् इस बात से चिन्तित हैं कि नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने वाला शासन-प्रशासन आखिर कब और कैसे पर्यावरण संरक्षण के प्रति ईमानदारी से अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करेगा?

प्रदेश शासन की बागडोर संभालने के कुछ ही महीने बाद मायावती ने प्रशासन पर अपनी धौंस जमाकर परियोजना की प्रारम्भिक कार्यवाहियों को शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने का फरमान जारी किया। इसी दबाव के बोझ तले राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रलय की अधिसूचना संख्या 1533, दिनांक 14 नवम्बर, 2006 के अनुपालन में क्षेत्रीय नागरिकों की ओर से आपत्ति, टिप्पणी, विचार एवं सुझाव आमंत्रित करने हेतु 20 जुलाई, 2007 को दैनिक जागरण समाचार पत्र में आम सूचना प्रकाशित कराई गई। सूचना में एक महीने पश्चात 20 अगस्त को गंगा से लगे सभी जनपदों में लोक सुनवाई की खबर के साथ परियोजना के अभिलेख क्षेत्रीय नागरिकों के अवलोकनार्थ कुछ जनपदीय कार्यालयों में उपलब्ध होने हेतु सूचना दी गई। लेकिन, अभिलेख देखने व प्राप्त करने के लिए नागरिक तथा गैर सरकारी संगठनों के पदाधिकारी जब गए तो किसी भी विभाग में कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं था। इतना ही नहीं कुछ-एक विभागों को तो कार्यवाही की खबर भी नहीं थी। इससे क्षुब्ध कुछ संगठनों ने बोर्ड को इसकी शिकायती सूचना देकर तत्काल अभिलेख उपलब्ध करवाने की मांग की परन्तु लोक सुनवाई की तिथि तक किसी कार्यालय में अभिलेख नहीं उपलब्ध करवाया गया। इसके चलते अधिकतर नागरिक परियोजना के संबंध में अपने सुझाव, विचार एवं आपत्तियां व्यक्त करने की प्रबल इच्छा होने के बावजूद कुछ नहीं कर पाए। आवश्यक अभिलेख न प्राप्त होने की दशा में उनके लिए अपने विचार व्यक्त कर पाना असंभव हो गया। इसके बाद मांग की गई कि लोक सुनवाई के लिए अगली तिथि निश्चित की जाए और उस बीच आवश्यक अभिलेख उपलब्ध करवाए जाएं। बहुत टाल-मटोल के बाद अभिलेख तो उपलब्ध करवाया गया किन्तु सुनवाई के लिए अधिसूचना के प्रावधानों के अनुरुप समय नहीं दिया गया। बोर्ड का यह प्रयास ठीक वैसे ही है जैसे परीक्षार्थी को परीक्षा में बैठने के समय की सूचना दे दी जाए और उत्तर पुस्तिका समेटने के समय प्रश्न पत्र का वितरण किया जाए। जरा सोचिए, कि यह कितना न्यायसंगत है।

बोर्ड के इस कृत्य से मंत्रलय के शिकायत प्रकोष्ठ को भी अवगत कराया गया, लेकिन कोई भी कार्यवाही नहीं की गई। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि मानवाधिकार का हनन करने वाले ये काम शासन-प्रशासन की मिलीभगत से हुए। लोक सुनवाई के दौरान आपत्ति करने के उपरान्त कार्यदायी लोक निर्माण विभाग, उ.प्र. के द्वारा अनापत्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त करने हेतु तैयार की गई 'पर्यावरणीय प्रभाव आकलन' रिपोर्ट में भी कई कमियां हैं। इसमें उन तथ्यों का उल्लेख ही नहीं किया गया है जो पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक हैं और जिनके सुरक्षा एवं संरक्षण को ध्यान में रखकर बोर्ड द्वारा किसी भी प्रस्तावित परियोजना को अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी किया जाता है।

विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि हाइवे के संरक्षण क्षेत्र में पालतू पशु तथा पक्षियों में कौवा व गोरैया पाये जाते हैं। इसी क्रम में आगे बताया गया है कि हाईवे के 10 कि.मी. की परिधि में कोई पुरातात्विक महत्व का स्मारक व संरक्षित सम्पत्तियां नहीं हैं। इन तथ्यों की सत्यता का अनुमान हर शिक्षित नागरिक लगा सकता है। उल्लेखनीय है कि गंगा पूरे राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक रेखा है। इसके किनारे कई महत्वपूर्ण शहरों का विकास हुआ है। अनादि काल से ही इसके किनारे भारतीय संस्कृति संपोषित होती रही है। गंगा और उसके मैदान की पारस्थितिकी में अनेक प्रजातियों के वन्य प्राणी एवं पक्षी समुदाय अपनी जिन्दगी व्यतीत कर रहे हैं। फिर किस आधार पर लोक निर्माण विभाग ने ऐसे तथ्यों को नकारने का प्रयास किया?

शासन द्वारा आयोजित लोकसुनवाई कोरी औपचारिकता ही थी। इसके ठीक 10 दिन बाद आनन-फानन में कैबिनेट की बैठक बुलाकर परियोजना को स्वीकृति प्रदान करने की घोषणा कर दी गई। इसके उपरान्त सिंचाई एवं लोक निर्माण विभाग के अधिकारी व कर्मचारी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार गंगा के बायें तट पर बसे गांवों का सर्वे करने में लग गए हैं।

उ.प्र. सरकार द्वारा गंगा नदी से लगे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं पारिस्थितिकीय बाहुल्य क्षेत्र में एक्सप्रेस हाईवे निर्माण की मंजूरी के बाद देश के पर्यावरणविद् गहरी चिन्ता में पड़ गए हैं। उनके सामने कई गम्भीर प्रश्न खड़े हो गए हैं। इससे एक ओर जहां क्षेत्रीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की समस्या है, वहीं दूसरी ओर शासन की पर्यावरण संरक्षण की अपनी प्रतिबध्दता भी सवालों के घेरे में आ गयी है। इस पर्यावरण विरोधी योजना से प्रकृति को काफी नुकसान पहुंचने की संभावना है।

गंगा एक्सप्रेस परियोजना जिस भौगोलिक क्षेत्र पर बननी है, वह गंगा नदी से लगा हुआ उपजाऊ मैदानी क्षेत्र है। बलुई, दोमट व ''यूमस मृदा से निर्मित यह क्षेत्र दलहनी, तिलहनी फसलों के अच्छे उत्पादन के लिए जाना जाता है। साथ ही इस क्षेत्र में अनादि काल से बहुमूल्य वनस्पतियों एवं जीवों का पोषण भी हो रहा है।

लोक निर्माण विभाग और सिंचाई विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक हाईवे की कुल लम्बाई नरौरा से बलिया तक 1000 कि.मी. होगी। इसकी चौड़ाई 100 मी. होगी। इस मानक के अनुसार इस हाईवे के निर्माण से गंगा के उपजाऊ इलाके का बड़ा क्षेत्रफल प्रभावित होगा। विशेषज्ञों के लिए यह काफी विचारणीय पहलू है कि सरकार जहां राष्ट्रीय कृषि नीति के आधुनिकीकरण के द्वारा फसलों का उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रयत्नशील है, वहीं दूसरी ओर हाईवे निर्माण के द्वारा एक महत्वपूर्ण कृषि क्षेत्र को हमेशा के लिए नष्ट करने जा रही है।

हम सभी जानते हैं कि गंगा का तटवर्ती क्षेत्र अपने शांत व अनुकूल पर्यावरण के चलते रंग-बिरंगे पक्षियों का संसार अपने आंचल में संजोए हुए है। यहां की उत्कृष्ट पारिस्थितिकी संरचना में कई प्रजाति के वन्य जीवों जैसे नीलगाय, सांभर, खरगोश, नेवला, चिन्कारा के साथ सरीसृप-वर्ग के जीव-जन्तुओं को भी आश्रय मिला हुआ है। इस इलाके में ऐसे कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियां हैं जो दुर्लभ होने के कारण संरक्षित घोषित की जा चुकी हैं। आठ लेन का हाइवे बनने के बाद जीव-जन्तुओं के लिए अपना अस्तित्व बनाए रख पाना मुश्किल हो जाएगा। उन्हें पानी के स्रोत तक पहुंचने के लिए काफी जद्दोजहद करनी होगी। यातायात जनित धवनि प्रदूषण से इनका जीवन एवं स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होगा। संक्षेप में कहें तो हाइवे निर्माण के साथ ही इन जीव-जंतुओं का जीवन संकटग्रस्त होता चला जाएगा और अंतत: कुछ वर्षों के बाद इनका नामोनिशान मिट जाएगा।

हाइवे निर्माण के बाद गंगाजल के प्रदूषण की समस्या और गंभीर हो जाएगी क्योंकि हाइवे के किनारे बनने वाले शहरों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों का सारा कचरा गंगा में ही उड़ेला जाएगा। गौरतलब है कि आज भी नगरों-महानगरों से निकलने वाले मल-जल तथा औद्योगिक इकाईयों से विसर्जित विषाक्त गंदे जल को गंगा में बेरोक-टोक मिलाया जा रहा है। इस प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार गंगा निर्मलीकरण योजना के अन्तर्गत प्रति वर्ष करोड़ों रुपए फूंक रही है। पर गंगा की हालत बिगड़ती जा रही है। ऐसी हालत में यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि जब वर्तमान शहरों के प्रदूषण को ही सरकार संभाल नहीं पा रही है तो संभावित नए शहरों के कारण होने वाले प्रदूषण से भला वह कैसे निपटेगी।

हाइवे की योजना बनाने के पहले इस बात पर बिल्कुल विचार नहीं किया गया है कि यदि गंगा ने अपना प्रवाह बदल लिया तो क्या होगा। नदियों के प्रवाह मार्ग पर काफी लम्बा अध्ययन करने के उपरान्त विशेषज्ञों द्वारा यह माना जा चुका है कि कालान्तर में नदी अपना मार्ग 4 कि.मी. के दायरे में परिवर्तित करती रहती है। विश्व की कई नदियों का इतिहास इस बात का गवाह है। इस परियोजना में नदी तट से डेढ़ कि.मी. की दूरी पर मार्जिनल बांध एवं हाईवे बनाया जाना प्रस्तावित है। यह नदी के प्राकृतिक प्रवाह मार्ग से बहुत बड़ी छेड़खानी है। इसके चलते भविष्य में कई हानिकारक भौगोलिक परिवर्तनों का सामना करना पड़ सकता है।

बांध एवं हाईवे निर्माण की प्रक्रिया में एक ओर जहां सैकड़ों गांवों को विस्थापित करना पड़ेगा, वहीं गंगातट पर स्थित सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक सम्पत्तियों को भी भारी क्षति पहुंचेगी। इतना ही नहीं नदी की बायीं ओर ऊंचे बांध के चलते जल स्तर तथा प्रवाह बढ़ने पर पूरा दबाव दाहिने किनारे की ओर पड़ेगा। इससे इधर तट का कटाव काफी तेज हो जाएगा। परिणामस्वरूप दाहिने तट पर स्थित नगरों-गांवो को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। इन गांवों-नगरों में स्थित कई पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व के स्थान कटान के चलते तहस-नहस हो जाएंगे। इनका अस्तित्व देश के मानचित्र से हमेशा के लिए मिट जाएगा। हमारे नेता यह बात भूल जाते हैं कि विश्व में आबादी की दृष्टि से दूसरे स्थान वाले इस देश की दिन-प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या तथा उसकी असीमित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भूमि सबसे बुनियादी चीज है। धरती पर जीवन के प्रबल अधिकारी अन्य जीव-जन्तुओं की बात तो अलग है, आज के हालात में तो मनुष्य के लिए भी भूमि कम पड़ती जा रही है। भौतिक विलासिताओं को पूरा करने के लिए अगर ऐसी योजनाओं को मंजूरी मिलती रही तो निकट भविष्य में हम सभी एक ऐसी भयावह पारिस्थितिकी एवं पर्यावरणीय दुष्चक्र में घिर जाएंगे,जिसके समाधान की कोई तकनीक मानव के पास उपलब्ध नहीं है।

संपर्क : त्रिवेणी परिसर, बरेवां, भरेहठा, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेशhttp://www.bhartiyapaksha.com

गंगा को जन-जन से जोड़ने की मुहिम

रवि टांक
प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, बांध और व्यवसायीकरण जैसे खतरे मां गंगा पर मंडरा रहे हैं। देश का जागरूक समाज चिंतित भी है और व्यथित भी परन्तु जब तक समाज इस विषय से नहीं जुड़ेगा तब तक मां गंगा के अस्तित्व की रक्षा करना संभव नहीं हो सकता है। इसी दृष्टि से एक फरवरी 2008 से छह मार्च के दरम्यान गंगासागर से गंगोत्री तक 'गंगा महासभा' द्वारा गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा का आयोजन किया जा रहा है।

गंगा हमारी संस्कृति भी है और प्रकृति भी। इसलिए गंगा को एक नदी मात्र नहीं माना जा सकता। बल्कि यह भारतवासियों की उपासना का केंद्र भी है। पर मां गंगा का अस्तित्व आज संकट में है। प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, बांध और व्यवसायीकरण जैसे खतरे मां गंगा पर मंडरा रहे हैं। देश का जागरूक समाज चिंतित भी है और व्यथित भी परन्तु जब तक समाज इस विषय से नहीं जुड़ेगा तब तक मां गंगा के अस्तित्व की रक्षा करना संभव नहीं हो सकता है। इसी दृष्टि से एक फरवरी 2008 से छह मार्च के दरम्यान गंगासागर से गंगोत्री तक 'गंगा महासभा' द्वारा गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा का आयोजन किया जा रहा है। इस आयोजन की औपचारिक घोषणा गंगा महासभा द्वारा दिसम्बर 2007 में प्रयाग में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में की गई थी।

इससे पूर्व सितम्बर 2006 में गंगा महासभा द्वारा हरिद्वार में हिमालय-गंगा मुक्ति चिन्तन शिविर आयोजित किया गया था। इस शिविर में गंगा की अविरल और निर्मल धारा एवं हिमालय को आतंकवाद से मुक्त कराने के संकल्प के साथ विभिन्न प्रस्तावों को मंजूरी दी गई थी। इसी शिविर में राष्ट्रीय गंगा मुक्ति अभियान समन्वय समिति के गठन का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। गंगा महासभा द्वारा 18 जनवरी 2007 को प्रयाग में चारों पीठों के शंकराचार्यों एवं समस्त आचार्य महामण्डलेश्वरों के सान्निधय में राष्ट्रीय गंगा मुक्ति सम्मेलन आयोजित किया गया था। जिसमें गंगा के अविरल प्रवाह को प्राप्त करने, प्रदूषण को रोकने एवं गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने जैसे प्रस्तावों को पारित किया गया था। इसी सम्मेलन में प्रस्ताव पारित कर यह भी निर्णय लिया गया कि यदि इन प्रस्तावों को अमल में नहीं लाया गया तो निर्णायक आंदोलन किया जायेगा। इसी दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए गंगा महासभा ने दिसम्बर 2007 में प्रयाग में एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में आंदोलन के स्वरूप के तौर पर गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा की रूपरेखा को स्पष्ट किया गया था। अब यह रूपरेखा कागजों और विचारों से निकलकर जमीनी रूप ले चुकी है।

गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा पहली फरवरी 2008 को गंगासागर से प्रारंभ होकर छह मार्च 2008 को गंगोत्री पर जाकर समाप्त होगी। यात्रा के स्वरूप पर नजर डालें तो कार्यक्रम बड़ा ही व्यवस्थित और नियमित है। गंगासागर से प्रारंभ होकर यह यात्रा गंगा के किनारों पर बसे विभिन्न नगरों से होते हुए गुजरेगी। गंगा के किनारे 35 प्रमुख स्थानों पर प्रतिदिन मां गंगा का षोडशोपचार पूजन किया जाएगा। इसके साथ हर विश्राम स्थल पर स्थानीय माताओं-बहनों द्वारा कलश यात्रा निकाली जाएगी। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर अन्य किसी कार्यक्रम, कथा, प्रवचन, मेला आदि का भी आयोजन किया जाएगा। मां गंगा की काशी एवं हरिद्वार की तरह भव्य आरती की जाएगी। यात्रा के दौरान विभिन्न स्थलों पर वर्तमान संकटों का प्रोजेक्टर द्वारा प्रदर्शन किया जाएगा। यात्रा का एक प्रमुख आकर्षण होगा विश्वविख्यात कलाकार सत्यनारायण मौर्य 'बाबा' द्वारा गंगे मातरम् की प्रस्तुति। यात्रा के दौरान रात्रि में तय स्थल पर विश्राम की व्यवस्था की गई है तथा प्रात: अगले स्थान से लिए चलने से पूर्व नगर के प्रमुख शिवालय में गंगोत्री के जल से शिवाभिषेक का कार्यक्रम भी यात्रा का एक प्रमुख अंग रहेगा।

यों तो यात्रा के आयोजन को एक आंदोलन माना जा सकता है। फिर भी यात्रा को आंदोलन के साथ-साथ जन-जागरण अभियान के रूप में भी देखा जा सकता है। वैसे यात्रा आयोजन के अनेक कारण हैं। इसी में एक टिहरी बांध में कैद मां गंगा को मुक्त कराकर उनकी अविरल और निर्मल धारा को प्राप्त करना भी है। वैसे तो हम जानते हैं कि गंगा मैया को बांधकर रखने का यह कार्य पहली बार नहीं हो रहा है। पृथ्वी पर आने से पूर्व ही गंगा को देवताओं ने रोकने का प्रयास किया था परन्तु तब भागीरथ की तपस्या से गंगा बंधनों से मुक्त हो पाई थी। आधुनिक समय में भी अंग्रेजों नें गंगा को कैद में रखने की कोशिश की थी परन्तु महामना मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में सन् 1916 में अंग्रेज सरकार को प्रबल जन आंदोलन का सामना करना पड़ा था। जिसके परिणामस्वरूप उसे समझौता करना पड़ा। 1916 के उस समझौते में दो बातें तय हुई थीं। पहला यह कि गंगा की अविरल, अविच्छिन्न धारा कभी रोकी नहीं जाएगी (अनु. 32, पैरा-1ध्द और दूसरा यह कि इस समझौते के विपरीत कोई भी कदम हिन्दू समाज से पूर्व परामर्श के बिना नहीं उठाया जाएगा (अनु. 32, पैरा-2ध्द। यह समझौता आज भी भारतीय संविधान की धारा-363 के अन्तर्गत सुरक्षित है। टिहरी बांध प्राधिकरण ने यह स्वीकार कर लिया है कि गंगा मशीनों से प्रवाहित की जा रही है। इससे यह प्रमाणित हो चुका है कि 1916 के समझौते का उल्लंघन हुआ है और साथ ही धारा 363 का भी उल्लंघन हो रहा है।

यहां 'टिहरी बांध से विकास या विनाश' विषय पर भी चर्चा आवश्यक है। टिहरी बांध परियोजना को बिजली बनाने के नाम पर शुरू किया गया था। यह कहा गया था कि इससे 1000 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाएगा। यहां उल्लेखनीय है कि अभी तक देश में कोई भी पनबिजली परियोजना पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाई है। टिहरी परियोजना भी 197 करोड़ की अनुमानित लागत से शुरू की गई थी लेकिन अब तक लगभग 8500 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो चुका है। और अभी तक यह परियोजना पूर्ण नहीं हुई है। वैज्ञानिक आकलन के अनुसार टिहरी ढलान परिक्षेत्र में होने के कारण यहां के जलाशय ऊंचे पर्वतों से आने वाली मिट्टी, बालू और चट्टानों से वक्त से पहले ही भर जाएंगे। कहने का अर्थ यह है कि यह बांध 30-32 वर्षों से ज्यादा नहीं चलेगा। 46 वर्ग कि.मी. में फैली झील के कारण लाखों पेड़ और दुर्लभ जड़ी-बूटियां समाप्त हो गई हैं। इस बांध ने हिमालय की अमूल्य वन सम्पदा को अत्यधिक हानि पहुंचाई है। इन सबके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण तथ्य पर नजर डालें तो पता चलता है कि टिहरी बांध हिमालय के उस हिस्से में है जो संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। अत: अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूकंप प्रभावित क्षेत्र में यह बांध कितना सुरक्षित है? चीन की सीमा से अत्यधिक निकट होने के कारण यह भी माना जा सकता है कि इस बांध से देश की सुरक्षा को भी खतरा है। वैश्विक आकलन यह तो साबित कर ही चुका है कि टिहरी बांध संवेदनशील भूकम्प क्षेत्र में है। अत: भूकम्प या युध्द की स्थिति में इस बांध के टूटने पर भयानक प्रलय होना तय है। कहना न होगा कि उस हालत में गंगा सुनामी लहरों को भी मात देगी। माना जाता है कि डेढ़ घंटे से भी कम समय में हरिद्वार पर 232 मी. उंची लहरे चलेंगी। और बुलंद शहर तक की आबादी बरबाद हो जाएगी। इस विनाश लीला की भयावहता का आकलन आसानी से किया जा सकता है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार यह भी माना जा रहा है कि गंगा का 72 प्रतिशत जल भूमिगत होता जा रहा है। इस रिसाव की मात्रा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि टिहरी बांध प्राधिकरण बिजली उत्पादन की समय सीमा को निरन्तर आगे बढ़ाता जा रहा है। इस प्रकार के तथ्यों से तो यही सिध्द होता है कि यह परियोजना न केवल असफल है बल्कि आने वाले समय में देश के लिए एक गंभीर खतरा भी है।

आज सम्पूर्ण विश्व पर ग्लोबल वार्मिंग के काले बादल मंडरा रहे हैं। गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा के उद्देश्य में यह तथ्य भी शामिल किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से पिघलते ग्लेशियरों को बचाने की मुहिम छेड़ी जाए। हम जानते हैं कि गंगा तटीय नगरों की अपनी एक विशिष्ट पहचान है और उनकी अपनी ही संस्कृति भी है। आज जब गंगा मैया को टिहरी में कैद कर दिया गया है तो संस्कृति को लेकर कई सवाल ऐसे हैं जो प्रत्येक भारतीय के मन में कौंधा रहे हैं। हमारी संस्कृति की भव्यता और सामाजिक समरसता का दर्शन कराते कुंभ के मेले गंगा के किनारे ही लगते हैं। कुंभ के मेले की परम्परा अनादि काल से चलती आ रही है। कुंभ को छोड़कर विश्व में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां 30 लाख से ज्यादा लोग एक साथ एकत्रित हो सकें। वर्ष 2001 में तो प्रयाग के महाकुंभ में सात करोड़ लोगों के एकत्र होने का विश्व रिकार्ड है। परन्तु इन कुंभ के मेलों का आधार रही मां गंगा ही जब नहीं रहेगी तो कहां लगेंगे ये कुंभ के मेले और कहां एकत्र होंगे इतने लोग? उसी के साथ यहां इस बात का भी उल्लेख करना होगा कि हम अपने पूर्वजों की अस्थियां गंगा में विसर्जित करते हैं। मां गंगा के लुप्त हो जाने की स्थिति में कहां होगा अस्थियों का विसर्जन? ऐसे ही अनेकों प्रश्न आज आम जनमानस की चिंता बढ़ा रहे हैं। बिहार का सर्वाधिक लोकप्रिय छठ पर्व गंगा के किनारे ही मनाया जाता है और जब टिहरी से आगे मां गंगा की धारा उपलब्धा ही नहीं होगी तो बिहार में कहां मनेगा छठ पर्व? इस प्रकार जब संस्कृति के उत्सव ही नहीं बचेंगे तो संसकृति कहां बचेगी? गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा गंगा जल की अद्वितीय विशेषता की रक्षा के लिए एवं इसके व्यवसायीकरण को रोकने के लक्ष्य को लेकर भी आयोजित की जा रही है। वैज्ञानिकों ने यह तो सिध्द कर ही दिया है कि गंगा के जल में आक्सीजन की मात्रा अत्यधिक होने और इसमें कुछ विशिष्ट जीवाणुओं के मौजूद होने के कारण यह अत्यधिक विशिष्ट है। इसके जल में कीड़े भी नहीं पड़ते हैं और यदि पड़ते भी हैं तो इसके जल में उन्हें दूर करने की क्षमता है जो कि अन्य नदियों में नहीं पाई जाती है। इन्हीं कारणों से गंगाजल को पूर्वजों ने औषधि माना था। हम जानते हैं कि गंगा को इसके जल के व्यवसायीकरण से भी खतरा उत्पन्न हुआ है। आज वैश्वीकरण के दौर में विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में आई हैं। ये कम्पनियां गंगाजल का उपयोग बोतल बंद जल उद्योग स्थापित करने में कर रही हैं। इसी प्रकार अन्य उद्योग भी स्थापित किए जा रहे हैं जिनमें गंगा जल का दुरूपयोग हो रहा है। इसके अतिरिक्त आज गंगा भयंकर प्रदूषण की चपेट में भी है। गंगोत्री से गोमुख तक पर्यटकों की भारी भीड़ के कारण इसके किनारे जैविक-अजैविक कूड़े के ढेर प्राय: मिल जाते हैं। इसके फलस्वरूप हिम क्षेत्र के वातावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। साथ ही गंगोत्री ग्लेशियर भी पीछे खिसकता जा रहा है। एक अधययन के मुताबिक गंगोत्री ग्लेश्यिर 2.5 किमी. पीछे खिसक चुका है। यदि यही रफ्रतार रही तो आने वाले 40 वर्षों में ग्लेशियर समाप्त हो जाएगा और मां गंगा भी सरस्वती की तरह लुप्त हो जाएंगी।

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि यह यात्रा देशभर में गंगा पर छाये इन संकटो के निदान के लिए काम करने वाले लोगों और संगठनों की असरदार आवाज बनने जा रही है। गंगा महासभा को विभिन्न लोगों और संगठनों से मिल रहे सहयोग को देखकर यह बात और फख्ता हो जाती है। गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा के आयोजकों के मुताबिक उन्हें राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, हिमालय परिवार, भारत भक्ति संस्थान, भारत सेवाश्रम संघ, इस्कान और गायत्री परिवार समेत कई संगठनों का सहयोग मिल रहा है। देश के शंकराचार्यों के संरक्षण में निकल रही इस यात्रा को प्रमुख धर्मगुरुओं, आंदोलनकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी समर्थन मिल रहा है।
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इंदौर में दम तोड़ते तालाब

हम नहीं संभाल पा रहे रजत बूंदों को, ध्वस्त होती तालाबों की चैनल व्यवस्था

सचिन शर्मा

इंदौर। पानी की मनुष्य के जीवन में क्या महत्ता है इसे बताने की शायद किसी को जरूरत नहीं है। यह सभी जानते हैं कि पुराने समाज में पानी को रजत बूंदों के माफिक संभालकर रखा जाता था। इंदौर भी इस मामले में अपवाद नहीं था और होल्कर स्टेट में इसके लिए काफी काम हुआ। दक्षिणी इंदौर में रेन वॉटर हारवेस्टिंग पर एेसा काम हुआ है कि वहां के तालाबों का पानी शहर आज तक पी रहा है। लेकिन अब दिन पर दिन हालत खस्ता होती जा रही है। तालाब दम तोड़ रहे हैं और स्थानीय जनता के साथ-साथ शासन और प्रशासन भी उनकी दुर्दशा की ओर आंख उठाकर नहीं देख रहा है।

एेसी थी तालाबों की चैनल व्यवस्था.....
तालाबों के चैनल में कुल सात तालाब और अंत में खान नदी हुआ करती थी। मुंडी तालाब में पहाड़ों का पानी बहकर आता था। मुंडी के भरने के बाद पानी लिंबोदी तालाब और फिर बड़े बिलावली तालाब में पहुंचता था। इसका ओवरफ्लो पाल के दूसरी तरफ बने छोटे बिलावली तालाब में पहुँचता था। यहां से पिपल्यापाला और फिर इसके पूरा भरने के बाद ओवरफ्लो (पानी) नहर भंडारा में चला जाता था। चैनल का अंत खान नदी में जाकर होता था, यहां नहर भंडारा से बहने वाला पानी आकर मिलता था। अब ज्यादातर तालाब संघर्ष कर रहे हैं और खान नदी नाला बन चुकी है।

फायदा....
-पूरी योजना नेचुरल ग्रेडिएन्ट के आधार पर डिजाइन की गई थी।
-जमीन की स्वाभाविक ढलान (स्लोप) को आधार बनाकर तालाब बने थे।
- तालाब कुओं को रिचार्ज कर उनका वॉटर लेवल बढ़ाते थे।

ये हैं वर्तमान हालात....
- मुंडी तालाब पर खेती हो रही है। यह सिर्फ दो-तीन माह तक भरा रहता है।
- लिंबोदी ज्यादातर समय सूखा पड़ा रहता है। इसके कुछ भाग पर खेती होती है बाकी भाग पर नमी की वजह से उगी घास को मवेशी चरते रहते हैं। कई बार तालाब के सिर्फ एक छोटे से हिस्से में पानी भरकर रह जाता है।
-बड़ा बिलावली और छोटा बिलावली तालाब इन गर्मियों में थोड़ा-बहुत भरा हुआ है। लेकिन कुछ सालों में इसकी तह में पड़ी दरारों को लोग देख चुके हैं।
- पिपल्यापाला में भी कई साल सिर्फ थोड़ा सा पानी आकर रह जाता है। लोग इसे भी जब-तक सूखा हुआ देख चुके हैं।
- नहर भंडारा में पानी रोकने के लिए नगर निगम ने स्टॉप डैम बनाया है।
- तालाबों को कड़ी के तौर पर पिरोने के लिए बनाया गया राऊ चैनल गाद से ग्रसित है। पांच साल पहले तत्कालीन महापौर कैलाश विजयवर्गीय ने इस चैनल के साथ-साथ राऊ से लेकर बिलावली तक की पैदल यात्रा की थी। उन्होंने आश्वासन दिया था कि चैनल को गाद से मुक्त कराएँगे लेकिन आज भी यह चैनल कई जगह गाद से भरा हुआ है। कुछ जगह अतिक्रमण भी है।

इसलिए नहीं आ रहा तालाबों में पानी...
जो तालाब पहले सूखने का नाम नहीं लेते थे अब उनमें से कईयों में लगभग पूरे साल खेती होती है। इसके लिए जनता की कार्यप्रणाली दोषी है। पानी की कमी के कुछ कारण इस प्रकार हैं।

- बरसात कम हो रही है। ४० साल पहले इंदौर में ४०-५० इंच बारिश होती थी। अब लगातार दो-दो साल तक २५-३० इंच तक ही पानी गिरता है।
- शहर के आसपास के पहाड़ उजाड़ हो रहे हैं। पहले पहाड़ों की हरियाली ना सिर्फ बरसात को आकर्षित करती थी बल्कि पानी का बहाव भी अच्छा बनाती थी। अब पानी के साथ मिट्टी ज्यादा बहती है। यह तालाबों में पहुंचकर गाद बन जाती है और उनकी गहराई कम करती है। पहले पानी छोटे-छोटे नालों के माध्यम से तालाबों तक पहुँचता था अब उन नालों और तालाबों के कैचमेंट एरिया अतिक्रमण की चपेट में आते जा रहे हैं, इससे तालाबों में पानी पहुँचना भी दूभर होता जा रहा है।

बोरिंग पर हो कड़ी नजर...
कम हो रहे जंगल और अतिक्रमण के अलावा जनता भी जमीन से पानी खींचने में कोताही नहीं बरत रही है। बेतरतीब खुद रहे बोरिंग भी तालाबों और कुओं में पहुँचने वाले पानी को बिखेरकर खत्म कर देते हैं। इनकी मंजूरी प्रशासन को सोच-समझकर देनी चाहिए।
श्री नरेन्द्र सुराणा, पूर्व सिटी इंजीनियर, नगर निगम, इंदौर

तालाबों को जोड़ने की योजना पर काम....
राऊ चैनल के माध्यम से उक्त सभी तालाबों को जोड़ने की योजना पर हम काम कर रहे हैं। इसके अलावा घरों में रेन वॉटर हारवेस्टिंग का जो भी उपाय करता है उसे नगर निगम की ओर से संपत्तिकर में पहली बार में ६ प्रतिशत की छूट दी जाती है।
श्री एनएस तोमर, सिटी इंजीनियर, नगर निगम, इंदौर

तालाबों का प्रमुख विवरणः

बड़ा बिलावली छोटा बिलावली लिंबोदी पिपल्यापाला
निर्माण का वर्ष १९०६ १९०६ १९०६ १९००
क्षेत्रफल ३.३५ वर्ग किमी ....... ०.२६ वर्ग किमी ०.६३२ वर्ग किमी
अधि.जलस्तर ५७२ आरएल ५६४ आरएल ५७३.४७ आरएल .........
गहराई ३२.७५ फीट १२.५० फीट १४ फीट १६.५० फीट
कैचमेंट एरिया ४७ वर्ग किमी समान समान ०.६३२ वर्ग किमी
जल ग्रहण क्षमता ४१५ एमसीएफटी ....... १५ एमसीएफटी ...........
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प्रदूषण यानी पलक्कड

पी एम रवींद्रम, केरल से
पलक्कड – यानी ईश्वर के अपने देश का प्रवेशद्वार.

कोला का जश्न
हिंदुस्तान कोका कोला बेवरेजेस द्वारा प्लाचीमाड़ा में किए जा रहे प्रदूषण की कहानी हमें बताती है कि कैसे कथित विकसित देश तीसरी दुनिया के निवासियों के साथ उनकी अक्षम और भ्रष्ट सरकारों की मदद से बुरा बर्ताव करते हैं. सेटेलाईट तस्वारों की मदद से पलक्कड़ के दूरस्थ गावों में मौजूद भूमिगत जल संसाधनों की प्रचुरता का पता लगाके, इस बहुराष्ट्रीय कंपनी ने यहां पर एक फैक्ट्री सन 1999 के अंत में लगाई. इस फैक्ट्री में उत्पादन शुरु होने के छह महीने के भीतर ही लोगों ने अपने कुओं में पानी कम होने और उपलब्ध पानी के प्रदूषित होने की शिकायत दर्ज की. यहां ये बताना लाज़िमी है कि कोला के नमूने को हैदराबाद में जिला उपभोक्ता विवाद निपटान फोरम के आदेश पर जाँचने के बाद पता चला कि नमूने में कैडमियम जैसे भारी धातु वाले 42 प्रदूषक तत्व हैं, जिनका स्त्रोत अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है.



कई लोग इसे पलघट कहते हैं– पश्चिमी घाटों में एक दर्रा, जो केरल को बाकी देश से जोड़ता है.

दक्षिण रेलवे यानी तब की पहली रेल लाइन जब बिछाई जाने लगी तो सवाल उठा कि तत्कालीन शासकों के उत्तरी किनारे स्थित मद्रास (अब चेन्नई) में प्रशासकीय मुख्यालय को उनके पश्चिमी किनारे में स्थित व्यापारिक बंदरगाह मैंगलोर से जोडने का रास्ता कहां से हो.
इसका उत्तर मिला – पलघट.
पलक्कड की पहचान खो गई


इलाके की नदियां सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं. बरसात के दिनों में भी इलाके की तीनों प्रमुख नदियां पानी को तरसती हैं

जिन्होंने कोयंबटूर से पलक्कड़ की रेल यात्राएं की हों, उनके लिए यह स्वर्ग से कम नहीं है. इन यात्राओं में आप तमिलनाडु के शुष्क मौसम को पीछे छोड़ कर एक ऐसे मौसम में प्रवेश करते थे, जिसे केवल महसूस किया जा सकता है. वालायार की हरी-भरी छटाएं, अंदर कहीं गहरे तक उतर जाती थीं.

लेकिन अब यह सब पुरानी बाते हैं.


आज वालायार की हरी भरी छटाएं केरल सरकार के मालाबार सिमेंट से फैल रही सिमेंट की परत से अटी पड़ी हैं. इस इलाके में रहने वाले लोग हर सांस के साथ सिमेंट की एक मोटी परत अपने फेफड़े में भरते हैं और हांफते-खांसते अपनी किस्मत को कोसते हैं, जिससे मुक्त होना उनके बस में नहीं है. उनके फेफड़ों को सिमेंट कणों को सहने की आदत हो गई है. और फेफड़े ? वे तो शायद सिमेंट जैसे ही सख्त हो गए हैं.

मालाबार सिमेंट फैक्ट्री ने इस इलाके की तस्वीर ही बदल कर रख दी है. इस फैक्ट्री ने इलाके की नदियों ओणसपूझा और काल्लमपूझा के पानी का रुख मोड़ दिया है, जिससे चूना पत्थर के उत्खनन में सुविधा हो. इन दोनों नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोकने के अलावा चूना पत्थर से निकले कचरे को तीसरी नदी सीमांथीपूझा में बहा दिया जाता है.

नदिया तरसे पानी को

विनाश के कगार पर पहुंच चुकी इन नदियों के कारण, मानसून के समय जब सारी नदियां और बांध लबालब हो जाते हैं तब भी इलाके की जीवनदायिनी मालमपूझा नदी पानी को तरसती रहती है. मालमपूझा से 42,330 हेक्टेर जमीन को सिंचाई उपलब्ध होती रही है और पलक्कड नगर निगम के अंतर्गत 15 लाख और उससे जुड़ी हुई सात पंचायतों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध होता रहा है.

लेकिन पानी की कमी के कारण मालमपूझा सूखने लगी और हालत ये हुई कि मालमपूझा के सूखते इलाके में लोगों ने खेती करनी शुरु कर दी. जमीन जोतने से उसका अवसादन हो गया और फलस्वरूप बांध की क्षमता कम हो गई और खेती में कीटनाशकों के प्रयोग से पानी प्रदूषित होता चला गया.

परंतु यह इस भयावह कथा का अंत नहीं है.

पलक्कड तो जैसे इसी तरह के विनाश के लिए बना है. इंडियन मेडिकल एसोशियेशन गोस इको-फ्रेंडली (इमेज) के नाम से एक चिकित्सकीय कचरे के प्रशोधन की इकाई लगाने की बात हुई तो उसके लिए जगह तय की गई- पलक्कड.

सन 2007 के स्टॉकहोम संगोष्ठी, जिसमें भारत भी एक हस्ताक्षरक है, के अनुसार किसी भी भट्टी की स्थापना चिकित्सा संबंधी कचरे को जलाने के लिए नहीं की जाएगी एवं मौजूदा भटिटयों को भी चरणबद्ध तरीके से हटाया जाएगा.

पलक्कड के लिए कहा जाता है कि जब यहां के लोगों को जोर से छींक भी आती है तो लोग कोयंबटूर या त्रिसूर की ओर चिकित्सीय मदद लेने के लिए भागते हैं. जाहिर है, पलक्कड में चिकित्सकीय कचरा नाममात्र का है. ऐसे में राज्य के 14 में से 11 ज़िलों का कचरा निपटाने के लिए पलक्कड़ का चयन दर्शाता है कि राज्य सरकार पलक्कड़ के विनाश को लेकर न केवल आंखें बंद किए हुए है, वह इस विनाश में मदद भी कर रही है.

इमेज के सचिव डॉ. जी राजागोपालन नैयर कहते हैं – “पलक्कड की ये इकाई राज्य में परिकल्पित चार इकाईयों में पहली है. एक टन कचरे में से बमुश्किल 5 किलो राख झड़ती है जिसे वैज्ञानिक रूप से प्रसंस्कृत किया जाता है. ”

कचराघर
हालांकि रिपोर्टें बताती हैं कि पलक्कड में लगभग 10 टन कचरे का प्रसंस्करण होता है जो कि स्वीकृत 3 टन से कहीं ज्यादा है. और इस कचरे को अधिकारिक तौर पर फैक्ट्री परिसर में मौजूद कांक्रीट चैंबरों में दबा दिया जाता है.

रही-सही कसर इस उपक्रम के पड़ोस में शुरु हुए स्पांज आयरन की फैक्ट्री ने पूरी कर दी. फिर जंगल की जमीन पर कब्जा करके एक और सिमेंट फैक्ट्री शुरु कर दी गई.

पूर्व यू.एन., एफ.ए.ओ विशेषज्ञ डॉ. एम. एन. कुट्टी, मालमपूझा जलाशय में मछलियों के बड़े पैमाने पर मरने के हादसे के बाद लिखते हैं, “एक टन मछलियों से ज्यादा, जिनमें हरेक का वजन एक किलोग्राम से ज्यादा था, जलाशय के पानी में मरी और तैरती हुई पाई गईं. ये पानी का अशुद्ध होने के संकेत हैं. ये संभव है कि उद्योगों से निकलने वाले रसायनिक कचरे और अन्य विषैले तत्व, जिनमें नए बने बायो-मेडिकल प्रसंस्करण संयंत्र का बना कचरा भी शामिल है, के कारण इन समुद्रीय जीवों की मौतें हो रही हैं.”

भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के पूर्व जल संसाधनों के वैज्ञानिक और ऑस्ट्रेलिया स्थित ग्रिफिथ विश्वविद्यालय के सिंगापुर में अतिथि प्रोफेसर डॉ. ए. पी. जयारामन ने भी यह चेतावनी दोहराई “मालमपूझा बांध के जलग्रहण क्षेत्र में भारतीय मेडिकल एसोसियेशन द्वारा निर्मित बायो-मेडिकल कचरा प्रसंस्करण करने के संयंत्र में भट्टी के कारण यहां के रहवासियों के स्वास्थ्य पर निश्चित ही बुरा असर पड़ेगा.”

बायो-मेडिकल कचरे के निपटान की जगह के चुनाव के बारे में भारतपूझा संरक्षण समिति के डॉ. पी एस पणिक्कर कहते हैं – “आईएमए ने पहले ही तोडूपूझा और कन्नूर का चुनाव इस इकाई के लिए किया था. पर स्थानीय रहवासियों के विरोध से ये इरादा छोड़ना पड़ा. अब कन्नूर जैसे सुदूर इलाकों से भी खतरनाक चिकित्सीय कचरे को लाकर पलक्कड में खपाया जा रहा है.”

पलक्कड में रहने वाले किसी बुजुर्ग से अगर आप पूछें कि पलक्कड को वे किस तरह याद करते हैं ? उसका जवाब मिलेगा- कौन सा पल्लकड ? कैसा पलक्कड ? पलक्कड तो अब अतीत है.
साभार - www.raviwar.com

गांवों में सूखती, सिकुड़ती जमीन

(अबकी छुट्टियों में मैं अपने गांव होकर लौटा हूं। शहरों में रहकर बमुश्किल ही ये अंदाजा लग पाता है कि गांव कैसे जी रहे हैं। वहां रहने वाले ऐसे क्यों होते हैं। शहर वालों जैसे क्यों नहीं रह पाते हैं। दोनों कहां जाकर बंटते हैं। गांवों में खासकर यूपी के गांवों में तो ऐसा ठहराव दिखता है जिसे, किसी को तोड़ने की भी जल्दी नहीं है। इसी ठहराव-बदलाव का मैं एक बड़ा चित्र खींचने की कोशिश कर रहा हूं। इसी श्रृंखला की ये पांचवी कड़ी। इस कड़ी में गांवों में सिकुड़ती, सूखती जमीन और इसकी वजहों की चर्चा। अच्छी बात ये कि बरबादी के बाद थोड़ी उम्मीद की रोशनी भी दिख रही है।)गांवों से लोग शहरों की तरफ बेतहाशा भाग रहे हैं फिर भी जमीन सिकुड़ती जा रही है। जमीन सिकुड़ती जा रही है यानी जोत का आकार छोटा होता जा रहा है। और, उस पर भी काम करने वाले लोग नहीं मिल रहे हैं। मेरे गांव के आसपास काफी उपजाऊ जमीन है। लेकिन, प्रतापगढ़ के ज्यादा इलाकों में ऊसर (बंजर) जमीन ज्यादा है। और, जिस तरह से जमीन के नीचे का जलस्तर तेजी से और नीचे जा रहा है। वो, भयावह स्थिति बना रहा है।

जलस्तर लगातार घटने के लिए ज्यादातर गांव के लोग ही जिम्मेदार हैं। पानी घटा तो, शहरों से जाकर गावों में जल संरक्षण की बात हो रही है, आंदोलन चल रहे हैं। एनजीओ संगठित तरीके से काम कर रहे हैं। जब पानी ही पानी था तो, जल का अपमान किस तरह हुआ इसका बेहतरीन उदाहरण मैंने देखा है। शायद ये हर किसी को अपने गांव की कहानी लगे। मेरे गांव में तीन कुएं थे। और, गांव के अगल-बगल तीन तालाब थे। एक मेरे घर के सामने की चकरोड के पार और दो गांव के पिछले हिस्से में। तीन कुओं में से एक मेरे दरवाजे पर ही था। लेकिन, पता नहीं कौन से बंटवारे के लिहाज से पूरी जमीन तो हमारी थी लेकिन, हमरे दुआरे का कुआं सुकुलजी क रहा। औ, सुकुलजी का घर हमारे घर के पीछे है। अब सुकुलजी न तो उस कुएं से कभी पानी भरने आते थे और कुआं कच्चा होने की वजह से न तो हम लोग ही उस कुएं का इस्तेमाल करते।

पता नहीं क्या वजह थी मैंने एकाध बार पिताजी से पूछा- ये कुआं हम्हीं लोग क्यों नहीं बनवा लेते। पता चला सुकुलजी को ऐतराज है। खैर, शायद हमारे घर वाले भी यही चाहते थे और, कच्चा कुआं धीरे-धीरे भंठ गया (कुआं रह ही नहीं गया)। बचा-खुचा कुआं, कुएं के आगे की हमारी बैठकी की मिट्टी से पट गया। हमारा घर पहले ही पक्का था। मिट्टी-गारे से बनी दोनों बैठकी भी धीरे-धीरे करके खत्म हो गई। दूसरी बैठकी की ही जगह पर दादा ने नया पक्का घर बनवाया है। अच्छे कमरे बने हैं। शहरातू लैट्रिन भी बन गई है। हैंडपंप घर के अंदर लग गया है (पहले हैंडपंप बाहर था। कोई बी प्यासा राहगीर दो हाथ चलाकर अपनी प्यास बुझा लेता था)। टुल्लू लगा है जो, लाइट रहने पर टंकी भर देता है और लैट्रिन का दरवाजा बंद करने पर नल से गिरता पानी शहर में होने का अहसास दिलाता है। पहले सुबह जल्दी उठकर खेत में दिशा-मैदान जाना शहर वालों को अचरज में डालता था। अब गांव वाले भी दिशा-मैदान नहीं जाते। लैट्रिन जाते हैं। दिशा-मैदान अब तो पता नहीं कितने लोग ही समझते होंगे।

कच्ची बैठकी-कुएं क साथ दुआरे प खड़ा महुआ औ मदीना क पेडौ समय क भेंट चढ़ि ग। महुआ सूखि ग तो, दूसर लगावा नाहीं ग। औ, पिताजी-दादाजी म बंटवारा के बाद मदीना क पेड़ कटवाए दीन ग। दूसरी कच्ची बैठकी में सिर्फ दो बहुत लंबे-लंबे कमरे ( कमरे क्या बड़े से एरिया को चारों तरफ से घेरकर बीच में एक और मिट्टी की दीवार बनाई गई थी) थे। कच्ची मिट्टी के कमरे खपरैल की छत। कुल मिलाकर इस बैठकी में एक साथ 50 से कुछ ज्यादा ही चारपाई बिछ जाती थी। और, ये ज्यादातर गांव की बारात का जनवासा बन जाती थी। अब तो एक दूसरे से इतने मधुर संबंध भी नहीं रहे कि अपनी बारात रुकवाने के लिए कोई किसी दूसरे की बैठकी मांगे। अब तो, गांव में भी बरात टेंट कनात में रुक रही है।

गरमी कितनी भी हो, कच्ची बैठकी में एयरकंडीशनर जैसी ठंडक का अहसास मिलता था। और, दो महीने की गरमी की छुट्टियों में खेलकूद से फुरसत मिलने पर इसी कच्ची बैठकी में गजब की नींद आती थी। लेकिन, धीरे-धीरे गरमी की छुट्टियों में सबका जाना कम हुआ। मिट्टी-गारा की दीवार और खपरैल की छत का रखरखाव महंगा (झंझटी) लगने लगा। क्योंकि, हर साल गोबर और पिड़ोर (नदी से निकली मिट्टी) से दीवारों की पुताई करनी पड़ती थी। जिससे दीवार कमजोर न पड़े और बाहर के तापमान को संतुलित किए रहे। खपरैल भी हर दूसरी बारिश के पहले फिर से बदलवानी पड़ती थी। लेकिन, खपरा छावै वाले औ मिट्टी-गारा क देवाल बनवै वाले कम होत गएन (ज्यादातर पंजाब से लैके महाराष्ट्र तक टैक्सी, रिक्शा चलाने, फैक्ट्री में काम करने चले गए)।

घर के सामने चकरोड के पार वाले तलाव म बेसरमा क फूल (पता नहीं कितने लोग अब बेशरमा क गोदा औ ओकर फूल देके होइहैं) इतना बढ़िया खिलत रहा कि मन खुश होए जाए। 1991 में मेरी छोटी दीदी की शादी की वीडियो रिकॉर्डिंग में ये तालाब ऐसे दिख रहा था जो, किसी फिल्म में खूबूसरत लोकेशन पर हीरो-हीरोइन के गाने के लिए तैयार की जाती है। इस खूबसूरत का अहसास भी हमें अच्छे से रिकॉर्डिंग का कैसेट टीवी पर देखते ही हुआ। यही तालाब था जिसकी वजह से पांडेजी लोगों के हिस्से (पड़ान) में जाने के लिए थोड़ा घूमकर जाना पड़ता था। लेकिन, इस बार मैं गया तो, चकरोड ने तालाब का कुछ और हिस्सा लील लिया था। और बचा हिस्सा जिनके सामने तलाव रहा उनकर दुआर बनि ग।

गांव के बीच के दोनों कुएं बचे तो हैं लेकिन, उनका इस्तेमाल अब ना के बराबर होता है। रस्सी में बाल्टी बांधकर पानी बांधने से बेहतर गांवावालों को हैंडपंप चलाना लगता है। गांव के पीछे के दोनों तालाब भी सूख गए हैं। इन तालाबों में मैंने भी खूब रंगबिरंगी गुड़िया पिटी है। बांसे क कैनी से गुड़ियां पीटै म खुब मजा आवत रहा।

वैसे, अब पड़ान घूमके जाए क जरूरत नाहीं तालाब पटि ग। दुआरे प मदीना क फूल से गंदगी नाहीं होत। महुआ बिनै वालेन से झगड़ा नाही करै क परत। मिट्टी-गारा क दीवार पोतावै औ खपरा छवावै से मुक्ति मिली। सब बड़ा अच्छा होइ ग। बस गरमी कुछ बढ़ि ग। नवा हैंडपंप म पानी अब 70 मीटर नीचे मिलत बा। 10 साल पहिले तक 30 मीटर पर बढ़िया मीठा पानी मिल जात रहा।

उम्मीद की रोशनी
मैं गांव गया तो, एक निमंत्रण में दिन में ही जाकर लौटा तो, एक बाघराय बाजार से एक नहर के रास्ते जाना था। इस तरफ कुछ ज्यादा ही बंजर जमीन है। दूर-दूर तक ऊसर जमीन की सफेद मिट्टी दिखती है। लेकिन, उसके बीच-बीच में कुछ छोटे-छोटे चौकोर गड्ढे खुदे दिख रहे थे। जहां सरकारी बोर्ड लगा हुआ था। मौसी के लड़के ने जो, रहता तो, इलाहाबाद में है लेकिन, अक्सर गांव आता-जाता रहता है। उससे मैंने पूछा तो, उसने बताया कि सरकारी नियम आए ग बा। जे तलाव भंठवाए के दुआर बनै लेहे रहेन या घर बनवाए लेहे रहे उनकै घर तोड़वाए क तलाव बनावावा जात बा। और, दूसरी जगहों पर भी छोटे-छोटे गड्ढे खुदवा दिए गए हैं कि बारिश में इन तालाबों में कुछ जल संरक्षण हो जाए।
जल संरक्षण के जरिए गांव की तकदीर बदलने की एक कहानी मैंने गुजरात के एक गांव में देखी है। अब गुजरात के मुकाबले तो, यूपी के खड़ा होने में बहुत टाइम लगेगा। लेकिन, अगर ये मुहिम कुछ रंग लाई तो, फिर से मीठा पानी तो तीस मीटर पर मिल सकेगा।
http://batangad.rediffiland.com/blogs/2008/05/04/.html

जागने से पहले ढल न जाए धूप

हिमालय के विशाल ग्लेशियरों से निकलकर पूर्वोत्तर के असम और अरुणाचल प्रदेश की सुदूर वादियों में बहने वाली कई नदियों में से एक है जिया भरोली. कुछ दिनों पहले इसकी धारा में 16 किलोमीटर तक राफ्टिंग के दौरान हमने तरह-तरह के पक्षियों, जानवरों और वनस्पतियों सहित प्रकृति के कई दुर्लभ नजारे देखे. हमारी यात्रा जहां खत्म हुई वो उन प्रस्तावित 168 जगहों में से एक है जहां भारत सरकार बांध बनाने जा रही है. इसका मतलब है कि जिस अनछुई सुंदरता का हमने आनंद उठाया था वो कुछ समय बाद अथाह जलराशि के नीचे दफन हो जाएगी .

भारत सरकार ने 2017 तक 50 हजार मेगावॉट अतिरिक्त ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य तय किया है. इसमें तीन लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा जो कि पिछले अनुभवों को देखा जाए तो 50 फीसदी तक बढ़ सकता है. पॉवर कट से परेशान भारत के तेजी से उभरते मध्यवर्ग के लिए ज्यादा बिजली उत्पादन की बात राहत भरी बात हो सकती है. मगर ये भी हो सकता है कि जब तक ऊर्जा की इस विशाल अतिरिक्त मात्रा को पैदा करने के लिए आखिरी बांध बन रहा हो तब तक हिमालय के तेजी से पिघलते ग्लेशियरों में नए टरबाइनों को चलाने लायक पानी ही न बचे.

जाने-माने ब्रिटिश अर्थशास्त्री लॉर्ड निकोलस स्टेर्न जलवायु परिवर्तन के खतरों से चेताने के लिए दुनिया भर में आवाज उठाने वाले कुछ प्रमुख लोगों में से एक हैं. जिया भरोली में राफ्टिंग के दौरान लॉर्ड स्टेर्न भी हमारे साथ थे. 19 अप्रैल को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई दिल्ली में उनकी अगवानी की. ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सलाहकार लॉर्ड स्टेर्न ने मनमोहन समेत बड़े-बड़े दिग्गजों के सामने भारत के लिए सबसे अच्छी संभावित जलवायु रणनीति का खाका खींचा. उन्हें सुनने वालों में वित्त मंत्री पी चिदंबरम, विज्ञान और तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, इंफोसिस के प्रबंध निदेशक नंदक निलेकनी, पूर्व यूएन अंडर सेक्रेटरी जनरल नितिन देसाई और शिक्षाविद और पांच भारतीय प्रधानमंत्रियों के आर्थिक सलाहकार रह चुके किरीट पारेख शामिल थे. लॉर्ड स्टेर्न की सलाह सीधी और सप्ष्ट थी—ज्यादा देर न करें. विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम से कम रखें और जलवायु परिवर्तन के हिसाब से खुद को ढाल लें.

लॉर्ड स्टेर्न की मानें तो अगर भारत और दुनिया ने वक्त रहते कोई कदम नहीं उठाया तो जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम भयानक होंगे. फसलों का उत्पादन घट जाएगा और पानी की समस्या और भी गंभीर हो जाएगी. समुद्र का बढ़ता स्तर भारी नुकसान का सबब बनेगा. बाढ़ और तूफान जैसी कई आपदाएं पहले से कई गुना ज्यादा कहर बरपाएंगी. स्टेर्न के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के सबसे भयंकर दुष्परिणामों को अगर हम टालना चाहते हैं तो अब भी हमारे पास थोड़ा सा समय बचा है. मगर बात तभी बन सकती है जब पूरी दुनिया बिना समय गंवाए एक साथ इसके लिए काम करना शुरू कर दे.


उपग्रह से मिली तस्वीरें इसकी पुष्टि करती हैं कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं. ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़ दें तो पृथ्वी पर मौजूद पेयजल का ज्यादातर हिस्सा इन ग्लेशियरों में ही जमा है. इनसे उपजी विशाल नदियां भारत के करोड़ों लोगों को जीवनदान देती हैं. दो दशक से भी कम समय में ऐसा होने वाला है कि पहले तो ग्लेशियरों के बहुत तेजी से पिघलने के कारण इन नदियों में बाढ़ आएगी और फिर बाद में उनमें पानी कम होता जाएगा. 25 सालों के भीतर ऐसा हो सकता है कि हिमालयी ग्लेशियर पूरी तरह से खत्म हो जाएं. और हां, इंडिया गेट के चारों तरफ मौजूद रेत के टीले अभी भले ही कोरी कल्पना लगते हों मगर यदि हम ऐसे ही बेपरवाह बने रहे तो ये कल्पना निकट भविष्य में हकीकत में बदल सकती है.

वैसे भारत सरकार यदि भयानक भविष्य की ये आहट पहचानकर फौरन इस दिशा में काम करना शुरू कर दे तो मुश्किलों को कुछ कम जरूर किया जा सकता है. मगर जिस हठधर्मिता से विकास की ये नीति जारी रखी जा रही है उससे कयामत का दिन तेजी से पास आता जा रहा है. अगर आप ये सोचते हैं कि समस्या अभी बहुत दूर है तो आप गलत हैं. हकीकत ये है कि भारत पर संकटों की शुरुआत तो असल में हो चुकी है. वायुमंडल में ग्रीन हाऊस गैसों की भारी मात्रा के चलते मौसम की अनिश्चितताएं अब आम हो चुकी हैं. बरसात के दौरान मुंबई में आने वाली बाढ़, भूमिगत जल का गिरता स्तर, खराब फसल के बाद किसानों की आत्महत्याएं और खाद्य सुरक्षा पर मंडराता संकट इशारे कर रहा है कि युद्धस्तर पर उपाय किए जाने की जरूरत है.

दुर्भाग्य से हमारी नीतियां कुछ ऐसी हैं कि उनमें प्रकृति के कहर से लोगों को बचाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था ही नहीं है. पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच स्थित सुंदरबन डेल्टा में रहने वाले कई लोगों ने नदी की अनियमित धारा और ज्वार की ऊंची लहरों के चलते अपने घर छोड़ने शुरू कर दिए हैं. ये लोग अब शरणार्थियों के नए वर्ग में आते हैं जिसे ‘क्लाइमेट रिफ्यूजी’ कहा जाता है.

ज्यादातर अध्ययन और अनुमान सीधा संकेत करते हैं कि जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े दुष्प्रभावों में से कुछ की मार भारत को झेलनी पड़ेगी. हिमालयी ग्लेशियर हर साल 10 से लेकर 15 मीटर तक पिघल रहे हैं. 1981 के बाद से सियाचिन ग्लेशियर का आकार तो हर साल 31.5 मीटर कम हो रहा है जबकि पिंडारी के लिए ये आंकड़ा 23.5 मीटर है. गंगा को जन्म देने वाले गंगोत्री ग्लेशियर का आकार 1935-76 तक 15 मीटर प्रति वर्ष की दर से पिघल रहा था मगर 1985 के बाद से इसमें तेजी आ गई और ये आंकड़ा 23 मीटर प्रति वर्ष हो गया. ग्लेशियरों के पिघलने की यही रफ्तार अगर जारी रही तो सिंधु और गंगा जैसी नदियों का पानी दो तिहाई तक कम हो सकता है. इससे 50 करोड़ लोग प्रभावित होंगे. प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में अगले चार दशकों के दौरान 30 फीसदी से भी अधिक की गिरावट आ जाएगी.

उधर, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इसी तरह से बढ़ता रहा तो 2080 तक भारत में तापमान बढ़कर 70 डिग्री सेल्सियस तक जा सकता है और बारिश में काफी कमी आ सकती है. इसकी वजह से भारत लगभग 12.5 करोड़ टन खाद्यान्न की पैदावार से हाथ धो बैठेगा. गेहूं की पैदावार 25 और चावल की पैदावार 40 फीसदी तक गिर सकती है और मौसमी अनियमितताओं के चलते बुआई का चक्र अनियमित हो सकता है.

गर्मी बढ़ने से मलेरिया और हैजा जैसी बीमारियों के मामलों में वृद्धि होगी. अधिक तापमान और आर्द्रता नई-नई बीमारियों को भी जन्म दे सकती है जिन पर कोई दवा असर नहीं करेगी. अगले सौ साल में समुद्र का स्तर 40 सेंटीमीटर तक उठ सकता है यानी जो स्थान कम ऊंचाई पर स्थित हैं वो डूब सकते हैं. अगर ये स्तर एक मीटर तक बढ़ जाता है 6000 वर्ग किलोमीटर के तटीय इलाके जलमग्न हो सकते हैं जिससे लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है. कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि तटीय इलाकों के जलमग्न हो जाने से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में नौ फीसदी तक की कमी आ सकती है. कुछ ऐसे भी हैं जो इस आंकड़े को 20 से 40 फीसदी तक बताते हैं.

मुंबई और चेन्नई जैसे शहरी इलाकों में आर्थिक नुकसान अभूतपूर्व होगा. अकेले मुंबई को ही समुद्र की विनाशलीला के चलते 48 अरब डॉलर के नुकसान का सामना करना पड़ सकता है. बाढ़ और सूखे का दुश्चक्र शहरों की तरफ आबादी के अभूतपूर्व पलायन को जन्म देगा जिससे उनके बुनियादी ढांचे पर बोझ बहुत बढ़ जाएगा. शहर बढ़ेंगे और सीमित संसाधनों पर कब्जे के लिए तीखे टकराव होंगे. मानसून की अवधि कम होती जाएगी और अरब सागर व बंगाल की खाड़ी में समुद्री तूफानों की संख्या बढ़ती जाएगी.
हालांकि इन भयावह हकीकतों का सामना पूरी दुनिया को ही करना पड़ेगा मगर दिलचस्प ये है कि इसके लिए जिम्मेदार देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और आस्ट्रेलिया को नुकसान कम होगा और दक्षिण एशियाई, अमेरिकी और अफ्रीकी देशों को सबसे ज्यादा. विकसित और विकासशील देशों में भी गरीबों पर इसकी पहली और सबसे ज्यादा मार पड़ेगी क्योंकि भोजन-पानी की कमी, बीमारियों, विस्थापन और बेरोजगारी जैसी सुरसाओं से बचने के लिए उनके पास सबसे कम संसाधन होते हैं.

जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए सारी शक्तियां भारत सरकार के पास ही निहित हैं. मगर वोट की राजनीति के इस दौर में संभावनाएं क्षीण ही लगती हैं कि इस दिशा में मजबूत इच्छाशक्ति के साथ कुछ किया जाएगा. प्रधानमंत्री द्वारा जलवायु परिवर्तन पर बनाई गई समिति को इस मुद्दे से निपटने के लिए नेशनल क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार करना है. जून तक समाप्त होने वाले इस काम पर अभी तक रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है. सरकार इस दिशा में कितनी गंभीर है ये इसी बात से समझा जा सकता है कि बेहतर रणनीति विकसित करने के लिए खुली चर्चा कराने की बजाय वो कह रही है कि योजना तैयार हो जाएगी तो वह उसे जारी कर देगी. ये देखते हुए संभावना कम ही है कि आर्थिक समृद्धि की संभावनाओं से मदहोश और गठबंधन की मजबूरियों से बंधा हमारा देश कड़े निर्णय करने का साहस जुटा पाएगा.

आश्चर्य नहीं होगा यदि रिपोर्ट में अमेरिका और चीन को इस दिशा में कदम उठाने के लिए कहा जाए और खुद उनकी बराबरी करने के लिए उसी रास्ते पर आगे बढने की प्रक्रिया जारी रखी जाए. ये एक घातक भूल होगी. भले ही औद्योगिक देशों की जिम्मेदारी ज्यादा बनती हो मगर भूलना न होगा कि जलवायु परिवर्तन से आने वाली आपदाओं के पहले पीड़ित भारतीय ही होंगे. अपनी भलाई के लिए ही सही, हमें एक उदाहरण स्थापित करना जरूरी है.

क्या हों कदम

दुनिया की कुल आबादी का छठवां हिस्सा भारत में बसता है और इस नाते जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बनने वाली योजना में भारत को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए. हमें युद्धस्तर पर कार्बन निर्भरता से हटने की शुरुआत करनी होगी. इसके लिए कोयला आधारित संयत्रों की जगह ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत विकसित करने होंगे. साथ ही हमें जैविक खेती और पारिस्थिकीय सुरक्षा और संरक्षण को भी बढ़ावा देना होगा. आखिर कोलकाता, नई दिल्ली और मुंबई तक बिजली पहुंचाने के लिए सुदूर पूर्वोत्तर के जंगलों को जलमग्न करने को न्यायसंगत कैसे ठहराया जा सकता है?
तमाम विकल्पों में से पांच का जिक्र यहां कर रहा हूं। मुझे यकीन है कि इन्हें अपना कर भारत सरकार पर्यावरण परिवर्तन के खिलाफ अपने अभियान की शुरुआत कर सकती है।

1- विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर जारी बहस में भारत को सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन उसके उत्तरी पड़ोसी के मुकाबले बहुत कम है। इसका फायदा उठा कर हम बाकी देशों पर प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा में कटौती का दबाव बना सकते हैं। अगर भारत इससे मजबूती से निपटने में सफल रहा तो वर्तमान में प्रति वर्ष 45 अरब टन ग्रीन हाउस उत्सर्जन को अगले पांच दशकों में आधा किया जा सकता है।

2- भारत को तत्काल जंगलों के कटान और पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश पर लगाम लगानी चाहिए। जंगल, नम प्रदेश, तटीय इलाके, खाड़ियां और घास के मैदान जैसे प्राकृतिक ढांचे पर्यावरण को सुधारने का काम करते हैं। सरकार विश्व के औद्योगिक देशों से एक फंड की मांग कर सकती है जिसकी सहायता से दोबारा जंगलों का प्राकृतिक रूप से निर्माण किया जा सके और संरक्षित इलाकों में कार्बन को भंडारित किया जा सके। हमें अपने अभ्यारण्यों, जंगलों, राष्ट्रीय पार्कों में कार्बन का भंडार करने के लिए औद्योगिक देशों से भुगतान की मांग करनी चाहिए। अगर इसके लिए किसी तरह की प्रोत्साहन राशि नहीं होगी तो ये कार्बन धुंए के रूप में पर्यावरण में घुलेगा। ये पैसा जंगलों के आस-पास रहने वाले समुदायों की पारिस्थितिकी को बचाने के एवज में प्रोत्साहन के रूप में दिया जाना चाहिए।

3- उपलब्ध वनस्पतियों से अधिकतम ऊर्जा हासिल करने के लिए सरकार को ऊर्जा कुशलता के क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहन देना चाहिए। बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में ये काफी सफल हो सकता है। उन्नत उत्पादन और वितरण, साफ सुथरी तकनीक और प्रदूषण नियंत्रण जैसे क़दम तत्काल उठाए जाने चाहिए। अधूरी पड़ी ऊर्जा परियोजनाओं को जल्द से जल्द पूरा किया जाना चाहिए। नहरों से हो रही पानी की बर्बादी को रोका जाना चाहिए और उपलब्ध बांधों की जल संचय क्षमता को और मजबूत किया जाना चाहिए।


4-सरकार को ऊर्जा के लिए कार्बन आधारित स्रोतों पर निर्भरता की बजाय वायु, सौर और टाइडल ऊर्जा (समुद्री लहरों से पैदा की जाने वाली बिजली) जैसे वैकल्पिक स्रोतों की ओर रुख करने की जरूरत है। राष्ट्रीय नीतियों में बदलाव करके व्यापार और उद्योग जगत को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। ये बात जानकर आप आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि भारत में परमाणु संयत्रों से ज्यादा ऊर्जा वैकल्पिक स्रोतों से पैदा होती है। इसके बाद भी इस विकल्प के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। इस तरह का बदलाव एक नई शुरुआत करेगा और साथ ही भारत को एक नैतिक मजबूती भी देगा ताकि वो दूसरे देशों से भी ऐसा ही करने को कह सके।

5- बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक परियोजनाएं बनाकर जलवायु परिवर्तन के असल प्रभावों का आंकलन करने की क्षमता सिर्फ सरकार के पास ही है। ये आंकड़े वास्तविक ख़तरे और उनकी तीव्रता का अनुमान लगाने के साथ ही इसके तार्किक समाधान की खोज में मदद कर सकते हैं। नीति निर्माताओं को व्यावहारिक समाधान खोजने के लिए हरसंभव वैज्ञानिक सहायता दी जानी चाहिए।

लेकिन ये विकल्प उसी हालत में कारगर हो सकते हैं जब इनके साथ-साथ कुछ बंदिशें भी हों। सरकार को अपना ढुलमुल रवैया त्यागना होगा। महत्वपूर्ण ये भी है कि उसे गोपनीयता की आड़ में जलवायु परिवर्तन की असलियत को लोगों से छिपाना नहीं चाहिए। वातावरण में आने वाले बदलावों के बारे में खुद प्रधानमंत्री को जनता के नाम संदेश देना चाहिए। ये संदेश नोबल शांति पुरस्कार विजेता डॉ. आर पचौरी की अध्यक्षता वाले अंतरराष्ट्रीय पैनल की रिपोर्ट पर आधारित हो सकता है। रिपोर्ट की छोटी से छोटी जानकारी आम लोगों तक पहुंचनी चाहिए। इसके साथ ही सरकार को तत्काल हिमालय की उंचाइयों पर बनने वाली खतरनाक विशाल बांध परियोजनाओं से हाथ खींच लेना चाहिए। इन बांधों की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में कहीं इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि जलवायु परिवर्तन का नदियों के बहाव पर क्या असर पड़ेगा। हमें समझना होगा कि जीवन का बुनियादी ढांचा, जो मैंग्रूव्स, कोरल्स, घास के मैदानों, नम इलाकों, जंगलों, नदियों, झीलों और रेगिस्तानों से मिलकर बनता है, अब और कुर्बानी नहीं दे सकता। जल आपूर्ति, मृदा और उसकी उपजाऊ क्षमता का संरक्षण, बाढ़ और सूखा नियंत्रण, समुद्री तूफानों से सुरक्षा जैसे तमाम फायदों के लिए जरूरी है कि जंगल बचे रहें।

सुंदरबन और हिमालय पर पहले से ही पर्यावरण परिवर्तनों का प्रभाव दिख रहा है। दिसंबर महीने में कोलकाता के अमेरिकन सेंटर में आयोजित एक वर्कशॉप में हिस्सा लेने आए अतिथि वहां मौजूद 24 परगना ज़िले से आए विस्थापितों की भयावह आपबीती सुनकर सन्न रह गए। इसकी पुष्टि छह सालों तक सुंदरबन में वतावरणीय बदलावों का अध्ययन करने वाली जादवपुर यूनिवर्सिटी के शोध दल ने भी की। सुंदरबन का अधिकतर हिस्सा समुद्र तल पर स्थित है। ग्रामीण खाड़ी से आने वाली लहरों से मिट्टी की दीवारों और तटबंधों के जरिए निपटते हैं। लोहाछारा नाम के एक टापू पर रहने वाले परिवारों को मजबूरी में रहने के लिए उतने ही संवेदनशील लेकिन थोड़े बड़े टापू 'सागर' पर स्थांतरित होना पड़ा। सागर टापू का भी करीब 10,000 एकड़ का हिस्सा समुद्र के बढ़े जलस्तर की चपेट में आ चुका है। यही कहानी कई दूसरे इलाकों की भी है।

पश्चिम बंगाल के अधिकारी विस्थापितों को सागर द्वीप पर बसाने की हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। उनकी चिंता सिर्फ इस बात को लेकर नहीं है कि खेत और गांव डूब जाएंगे बल्कि आने वाले समय में बेहद खराब मौसमी हालात पैदा होंगे जो पूरे इलाके में भयानक समुद्री लहरें ले आएंगे। ये ऊंची लहरें सुंदरबन के मीठे जल वाले संसाधनों को खारा बना देंगी। विशेषज्ञों की राय है कि इस इलाके और पड़ोसी बांग्लादेश में रहने वाले करीब पांच करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने को मजबूर होंगे। इसकी वजह से असम, मेघालय, मिजोरम और पश्चिम बंगाल के उंचाई वाले इलाकों की ओर पलायन करने वाली आबादी का आंकड़ा 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश के जन्म के समय पैदा हुई शरणार्थियों की संख्या को मात दे देगा। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी वजह से होने वाली आबादी के विस्थापन की संख्या 1947 के भारत के बंटवारे के दौरान हुए विस्थापन को पीछे छोड़ सकती है।


कुछ-कुछ इसी तरह की त्रासदी हिमालय की श्रेणियों में भी दिखने लगी है जहां मौजूद ग्लेशियर भारत, पाकिस्तान, चीन, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल में नौ नदियों के जरिए करीब 100 करोड़ लोगों का पालन-पोषण करते हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से पहले तो बाढ़ आएगी और फिर सूखा पड़ेगा। ये सूखा देश के अनाज के कटोरे (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश) को धूल के कटोरे में बदल देगा। मनुष्य की बनायी इस आपदा का पहला दुष्प्रभाव देखने को मिलेगा पेयजल की कमी के रूप में और आगे चलकर इसका नतीजा सिंचाई की असमर्थता के रूप में सामने आएगा।

वाशिंगटन डीसी स्थित पीटरसन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशन इकोनॉमिक रिसर्च के वरिष्ठ फेलो विलियम क्लाइन का मानना है कि इस तरह के हालात में भारत का कुल कृषि उत्पाद 40 फीसदी तक गिर सकता है। ऐसे में आज की खाद्यान्न की कमी का दौर भी आने वाले समय में "सुनहरे बीते हुए दिनों" की तरह याद किया जाएगा।
फिर से ऊर्जा क्षेत्र की ओर लौटते हैं जिसमें भारत जुनून के साथ भारी निवेश करने में जुटा है। 2007-08 के आर्थिक सर्वेक्षण में भी ये बात सामने आयी थी कि अप्रैल-दिसंबर के दौरान ऊर्जा उत्पादन निर्धारित लक्ष्य से नीचे रहा। ऊर्जा की सबसे ज्यादा मांग वाले समय में इसकी कमी का स्तर 14.8 फीसदी हो जाता है जबकि आम दिनों में इसकी कमी का औसत 8.4 फीसदी रहता है। जल, परमाणु और तापीय ऊर्जा में और ज्यादा निवेश का परिणाम ये होगा कि पर्यावरण में गर्मी बढ़ेगी। इस कारण शहरी लोगों को अपने रिहाइशों और व्यावसायिक स्थलों को ठंडा रखने के लिए और ज्यादा ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी। सतह का पानी सूख रहा है इसलिए ज़मीन के अंदर से पानी खींचने के लिए और अधिक पंपिंग सेट की जरूरत होगी। इससे भूगर्भीय जलस्रोत भी सूखेंगे। हिमालय में ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश की निर्रथकता के दर्शन हमें पहले ही हो चुके हैं।

पवन एवं सौर ऊर्जा और छोटी-छोटी जलविद्युत परियोजनाओं में निवेश करके भारत के हर घर में बिजली पहुंचायी जा सकती है। मगर क्योंकि अर्थशास्त्रियों की राय है कि इसकी लागत बहुत ज्यादा है इसलिए इन विकल्पों का लाभ पूरी तरह से उठाया नहीं जा रहा। सच्चाई ये है कि अगर हमने आज सही क़दम नहीं उठाए तो पर्यावरण में आने वाला बदलाव आने वाले कल से जीवन का आनंद खींच लेगा चाहे आप कितना भी पैसा खर्च करने को तैयार हों।

मगर इस दिशा में की जा रही कोशिशें कितनी अपर्याप्त हैं ये अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और 2007 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार जीत चुके अल गोर की इन पंक्तियों से साफ हो जाता है, "एक समय था जब वो कहते थे कि पर्यावरण का परिवर्तन सिर्फ एक मिथक है। आज एक दूसरा मिथक फैलाया जा रहा है कि दुनिया भर की सरकारें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बहुत कुछ कर रही हैं. "

बिट्टू सहगल

(लेखक जाने-माने पर्यावरणविद और सेंचुरी पत्रिका के संपादक हैं.)
http://www.tehelkahindi.com/InDinon/608.html

नदियों के बहाव का समुचित उपाय हो

नर्मदा घाटी के परिक्रमा पथ तथा उस पर यात्रियों के लिए सुविधाओं के निर्माण हेतु संबंधित विभागों के अधिकारियों की समिति गठित की गई है. परिक्रमा पथ के निर्माण के लिए यह समिति कार्य योजना तैयार करेगी. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में नदियों के संरक्षण की दिशा में भी निर्णय लिए गए. गौरतलब है कि नर्मदा विश्व की एकमात्र ऐसी नदी है, जिसकी परिक्रमा की जाती है, इसलिए नर्मदा नदी एक सांस्कृतिक धरोहर भी है. इसे प्रदूषण रहित बनाने से परिक्रमावासियों का कष्ट भी दूर होगा और सरकार के इस निर्णय को क्रियान्वित होने के बाद इसका असर दूरगामी होगा.
चौहान ने कहा कि राज्य में नदियों के संरक्षण का कार्य बड़े पैमाने पर होगा और इसकी शुरुआत नर्मदा नदी से प्रारंभ की जाएगी. प्रस्तावित परिक्रमा मार्ग के किनारे यात्रियों एवं परिक्रमावासियों के रुकने तथा भोजन आदि बनाने के लिए सुविधाजनक निर्माण कार्य भी प्रस्तावित है. यह निर्णय भी सराहनीय है कि कम खर्च में पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखते हुए सुविधाजनक निर्माण कार्य किये जाएं तथा नर्मदा किनारे हरियाली के लिए पेड़ लगाने की योजना तैयार की जाए. इससे नदी के किनारों पर भूमि के क्षरण पर रोक लगेगी.
नर्मदा नदी को लेकर सरकार के प्रयास का स्वागत है, लेकिन अन्य नदियों के संरक्षण-संवर्धन पर भी ध्यान देना उतना ही जरूरी समझा जाना चाहिए. नर्मदा प्रदेश की जीवन रेखा है तो अन्य नदियों की क्षेत्रीय स्तर पर जीवनदायिनी की भूमिका है. कई नदियों से भी नर्मदा को पानी मिलता है, लेकिन नदियों के बहाव पर भी ध्यान देने की जरूरत है. बारिश के दिनों में नदियों में पानी रुके इसकी समुचित व्यवस्था न होने से नदियां कुछ ही दिनों में खाली हो जाती हैं.
इसके मुकम्मल उपाय निकालने होंगे. इसके साथ ही नदियों के किनारे पेड़ लगाने की प्रवृत्ति भी विकसित करनी होगी. साथ-साथ उन्हें प्रदूषित होने से भी बचाना होगा. गांवों और नगरों के आसपास नदियों का प्रदूषण अत्यधिक है. कई महत्वपूर्ण नदियां तो अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं. इसका आकलन कर अगर कार्य योजना बनाई जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं. नदियों के संरक्षण-संवर्धन को लेकर सरकार की गंभीरता अच्छी बात है. इस पर अगर निष्ठापूर्ण और ईमानदार तरीके से काम हो तो इसमें कोई शक नहीं कि इसके बेहतर परिणाम मिलेंगे.
साभार-नवभारत भोपाल

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