विश्व का तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद पिघल रहे हैं

पर्यावरण के संरक्षण के लिए सक्रिय संगठन, ग्रीनपीस ने कहा है कि तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे एशिया के लाखों लोगों को पानी की आपूर्ति कम हो सकती है और बाढ़ आने की आशंका भी बढ़ती जा रही है । ग्रीनपीस ने चीन और अन्य देशों से कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए तुरंत कदम उठाने का अनुरोध किया है ताकि विश्व के बढ़ते हुए तापमान की समस्या का सामना किया जा सके ।

ग्रीनपीस की चीनी शाखा ने कहा है कि पिछले दो सालों में किंगहाई-तिब्बती पठार की तीन यात्राओं के दौरान हिमालय के हिमनदों के उसके अध्ययन से पता चला है कि तापमान बढ़ने की वजह से वे पीछे हटते जा रहे हैं ।

बुधवार को ग्रीनपीस ने बीजिंग में पत्रकारों को सिकुड़ते हुए हिमनदों की तस्वीरें और तिब्बती ग्रामीणों के साक्षात्कार दिखाए, जिनसे संकेत मिलता है कि पानी की आपूर्ति और खेतों में फसलें प्रभावित होने लगी हैं ।

ग्रीनपीस चाइना के लिए मौसम और ऊर्जा कार्यकर्ता ली यान ने कहा है कि पिघलते हुए हिमनदों से बनी झीलों में संभवतः वह पानी इकट्ठा हो रहा है, जो आमतौर पर नीचे बहकर गांवों में चला जाता है और इस वजह से पानी की तंगी हो रही है । उन्होंने कहा कि जब इन झीलों में बहुत ज्यादा पानी भर जाएगा और वह अचानक पहाड़ों से नीचे बहेगा तो बहुत घातक होगा । सुश्री ली ने कहा कि हाल ही में हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान ग्रीनपीस को बर्फ तेजी से पिघलने का पता चला था ।

सुश्री ली ने कहा कि हिमालय पर्वत चीन के औसत से दुगनी गति से और विश्व की गति से लगभग तीन-गुनी ज्यादा गति से गर्म हो रहा है ।

ग्रीनपीस ने चीनी वैज्ञानिकों का हवाला दिया, जिन्होंने कहा है कि जिस दर से विश्व का तापमान बढ़ता जा रहा है, उससे 2035 तक हिमालय के सारे हिमनद गायब हो जाएंगे और अगर मौसम में परिवर्तन की प्रवृत्ति और बिगड़ी तो यह संकट इससे भी जल्दी पैदा हो सकता है ।

हिमनद के गायब होने का अर्थ है, एशिया के लाखों लोगों के लिए पानी का अभाव । तिब्बती पठार के हिमनद प्रमुख नदियों का स्रोत हैं, जिनमें चीन की याग्तज़ी और येलो नदी तथा भारत की गंगा और सिंधु नदी और दक्षिण-पूर्व एशिया की मेकोंग नदी शामिल हैं ।

ग्रीनपीस ने तापमान बढ़ने के लिए कार्बन उत्सर्जन और अन्य ग्रीनहाउस गैसों को जिम्मेदार बताया है और कहा है कि चीन तथा अन्य देशों की सरकारों को उत्सर्जन रोकने के लिए ज्यादा कदम उठाने की जरूरत है ।

समझा जाता है कि इस साल ही कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में चीन अमेरिका से आगे निकल जाएगा ।

ग्रीनपीस ने कहा है कि चीन पर्यावरण में परिवर्तन की गति धीमी करने के लिए कदम उठा सकता है और ऊर्जा क्षमता में सुधार करके तथा पुनः नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ावा देकर अपनी आर्थिक वृद्धि को बरकरार भी रख सकता है ।

यूरोपीय संघ चीन को समझाने की कोशिश कर रहा है कि उसे कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन रोकने के लिए ज्यादा बड़े कदम उठाने चाहिए ।

परंतु बीजिंग ने उत्सर्जन का स्तर बढ़ने के बावजूद कहा है कि विकसित देशों को विश्व का तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए ।

ग्रीनपीस

राजधानी के आसपास की नदियां बनी कचडे की अंबार

झारखंड की राजधानी के आस पास जितनी नदियां है चाहे वह स्वर्णरेखा हो, हरमू हो या पोटपोटो नदी इन दिनो सभी कचडे का अंबार बनती जा रही है. गौर करने की बात यह है कि यहां नदी तालाबों को साफ करने की बात केवल छट पर्व के अवसर पर ही सामने आती है वह भी बस लोगो को संतृष्ट करने के लिये. सही मायने में कहा जाये तो नदी, तलाबों को साफ करने का कोई नियम यहां है ही नहीं. अगर कुछ है भी तो उसे सही ढंग से लागू नहीं किया जाता है. जिस वजह से आज यहां की नदियां गंदे नाले में तब्दील होती जा रही है.

नदियों के इर्द गिर्द बनने वाले फलैट बस्तियां यहां के पानी को प्रदूषित करने का काम कर रही है. वैसे तो सरकार अपने हिसाब से हमेशा यही कहती है कि प्रदूषण रोकने के उपाय किये जा रहें है. अधिकतर सरकार एक दूसरे पर प्रत्यारोप करने में ही समय काट देती है. केंद्र सरकार के अनुसार राज्य सरकार सही तौर पर नदियों को साफ करने के लिये सहयोग नहीं करती है. या फिर नदियों को साफ करने से संबंधित प्रोजेक्ट चलाने में राज्य ही सबसे बडी रूकावट डालती है. पर्यावरण मंत्रालय नदियों को व्याप्त प्रदूषण की रोकथाम के लिये एनबीसीसी,सीपीसीबी आदि सरकारी संस्थाओं को काम में लगाती है. पर इसका नतीजा सबके सामने है.

रीभर एक्शन प्लांट के अन्तर्गत कूडा साफ करने वाले प्लांट तैयार करने पर करोडों रूपये खर्च किये जाते हैं लेकिन को* उत्साहवर्द्धक परिणाम सामने नहीं आ रहा है. पर्यावरण और वन मंत्रालय प्रदूषण को रोकने के लिए निर्णायक बनाता है लेकिन नदियों के किनारे बढती आबादी की वजह से वित्तीय संसाधन की उपलब्धता और कामों के बीच हमेशा अंतर रहता है. यह अंतर राजधानी रांची के नदियों के किनारे धडल्ले से खडे हो रहे फैल्टों के कारण भी है. पिछले दिनों एक संगठन द्वारा किये गये सर्वे के अनुसार राजधानी की अधिकतर नदियां डेड रिवर बनने के कगार पर है. सर्वणरेखा, हरमू , पोटपोटो, हिनू सभी नदियों में प्रदूषण की मात्रा बहुत अधिक है. कहीं मरकरी , कीटनाशक या लोहा की मात्रा बहुत अधिक है तो किसी नदी के पानी में ऑक्सीजन मात्रा बहुत कम. उद्योग, बढते शहरीकाण, और कृषि नदियों में प्रदूषण के तीन प्रमुख कारण है. प्रदूषित जल के प्रयोग से, त्वचा संबधी स्नायु तंत्रीय स्मस्यायें तथा कैंसर संबंधी भयावह बीमारियां पनपती है. संयुक्त राष्ट्र संघ का कहना है कि यदि जल प्रदूषण के निदान के समूचित प्रयास नहीं हुये तो आगामी समय में स्वच्छ पेयजल के अभाव में विविध कारणों से विश्व में लगभग १७.५ लाख लोग अपनी जान से हाथ धो देंगे.ऐसे में आज भी अगर कुछ सोचा न जाये तो परिणाम भुगतने के लिये हमें खुद ही तैयार रहना पडेगा.
अभय कुमार / संवाद मंथन
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दिबांग परियोजना का कड़ा विरोध

जन सुनवाई में अधिकारी नहीं पहुंच सकेअरूणाचल प्रदेश में प्रस्तावित दिबांग बहुद्देशीय परियोजना के लिए होने वाली जनसुनवाई जबरदस्त स्थानीय विरोध के कारण आयोजित नहीं की जा सकी। भारत सरकार की सार्वजनिक ईकाई नेशनल हाईड्रोइलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन (एनएचपीसी) द्वारा विकसित की जाने वाली इस 3000 मेगावाट स्थापित क्षमता की जलविद्युत परियोजना के लिए आयोजित की जाने वाली जनसुनवाई 12 मार्च को राज्य के दिबांग वैली जिले में न्यू अनाया में प्रस्तावित थी।

परियोजना का स्थानीय स्तर पर इतना विरोध था कि जनसुनवाई स्थल को जाने वाले दो मार्गो को 12 मार्च को सुबह से ही पूरी तरह अवरूध्द कर दिया गया था। परियोजना की जनसुनवाई करने वाले अरूणाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण्ा नियंत्रण बोर्ड (एपीएसपीसीबी), एनएचपीसी एवं राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद (एनपीसी) से जुड़े अधिकारियों ने जिस मार्ग से सभा स्थल पर पहुंचने की कोशिश की वहां उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा और अंतत: उन्हें वापस लौटना पड़ा। स्थानीय संगठन आल इदु मिशिमी स्टूडेंट यूनियन (ऐमसु) के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने उन पर जबरदस्ती थोपे जा रहे जनसुनवाई का खुलकर विरोध करने की घोषणा कर दिया था।

ऐमसु का कहना है कि इस परियोजना में प्रस्तावित 288 मीटर ऊंचे बांध से स्थानीय स्तर पर गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय असर पड़ेंगे। स्थानीय लोगों एवं विशेषज्ञों का मानना है कि इस परियोजना के लिए जो पर्यावरण्ा असर आकलन (इआईए) रिपोर्ट तैयार की गई है वह बहुत ही निम्नस्तरीय है, और इसमें प्रभावित होने वाले इलाके के कई महत्वपूर्ण संसाधनों व अध्ययनों को शामिल नहीं किया गया है, साथ ही कई आंकड़े गलत पेश किये गये हैं। इस तरह इस अध्ययन के आधार पर स्थानीय लोगों की उचित राय नहीं ली जा सकती।

12 मार्च को अनाया, कानो, आरजू, शुक्लानगर एवं आस-पास के गांवो के लोगों ने रोइंग से अनीनि को जोड़ने वाली सड़क को इथी नदी पर बने पुल के पास सुबह से ही अवरूध्द कर दिया। मार्ग पर खड़े सैकड़ो ग्रामवासियों ने एनएचपीसी वापस जाओ के नारे लगाये। लोगों के व्यापक विरोध को देखते हुए एनएचपीसी, एपीएसपीसीबी एवं एनपीसी से जुड़े अधिकारियों को वापस लौटना पड़ा। अनिनि के उपायुक्त एवं अन्य अधिकारीगण जो अन्य रास्ते से सभा स्थल तक पहुंचने में कामयाब रहे थे, उन्हें भी वापस लौटना पड़ा। प्रदर्शनकारी दिन के 12 बजे तक वहां डटे रहे और एपीएसपीसीबी के अधिकारियों के वापस लौटने के बाद लोगों ने मार्ग से अवरोध हटा लिया। ऐमसु के महासचिव तोन मिकरोव ने कहा कि, ''जब सरकार स्वयं निर्धारित नियम-कानूनों का पालन नहीं कर रही है तो लोगों पर जबरन लादे जा रहे इस परियोजना का विरोध करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था''।

देश के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने अरूणाचल दौरे के दौरान 31 जनवरी 2008 को परियोजना का शिलान्यास किया था। परियोजना से प्रभावित लोगों और राष्ट्रीय अखबारों ने लोगों की सहमति के बगैर परियोजना से 600 किमी दूर हुए शिलान्यास पर आश्चर्य जताया था। जब इस परियोजना में बाध्यकारी जनसुनवाई पूरी नहीं हुई है, और परियोजना को पर्यावरण व वन मंत्रालय से मंजूरी मिलना बाकी है तो परियोजना का शिलान्यास कैसे किया जा सकता है? सबसे दुखद बात यह है कि प्रधानमंत्री के पास पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की जिम्मेदारी है। दिबांग नदीघाटी पर्यावरणीय तौर पर बहुत ही संवेदनशील घाटी है। यह तो अजीब बात है कि एक तरफ प्रधानमंत्री देश में बाघों की घटती संख्या पर चिंता जताते हैं दूसरी तरफ दिबांग नदीघाटी में बाघों के निवास क्षेत्र को बांध बनाकर डुबोना चाहते हैं।

ऐमसु का कहना है कि परियोजना के लिए 29 जनवरी को रोइंग में हुयी पहली जनसुनवाई में स्थानीय लोगों ने इआईए रिपोर्ट की तमाम खामियों को उजागर किया था। लेकिन उस इआईए रिपोर्ट में कोई सुधार किये बगैर ही फिर उसी रिपोर्ट के आधार पर दूसरी बार जनसुनवाई आयोजित करने का कोई आधार नहीं बनता है।

बांधो, नदियों एवं लोगों का दक्षिण एशिया नेटवर्क (सैण्ड्रप)
15 मार्च 2008

जल संरक्षण की चुनौती : माइक पांडे

आज पूरे भारत में पानी की कमी पिछले 30-40 साल की तुलना में तीन गुनी हो गई है। देश की कई छोटी-छोटी नदियां सूख गई हैं या सूखने की कगार पर हैं। बड़ी-बड़ी नदियों में पानी का प्रवाह धीमा होता जा रहा है। कुएं सूखते जा रहे है। 1960 में हमारे देश में 10 लाख कुएं थे, लेकिन आज इनकी संख्या 2 करोड़ 60 लाख से 3 करोड़ के बीच है। हमारे देश के 55 से 60 फीसदी लोगों को पानी की आवश्यकता की पूर्ति भूजल द्वारा होती है, लेकिन अब भूजल की उपलब्धता को लेकर भारी कमी महसूस की जा रही है। पूरे देश में भूजल का स्तर प्रत्येक साल औसतन एक मीटर नीचे सरकता जा रहा है। नीचे सरकता भूजल का स्तर देश के लिए गंभीर चुनौती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आजादी के बाद कृषि उत्पादन बढ़ाने में भूजल की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इससे हमारे अनाज उत्पादन की क्षमता 50 सालों में लगातार बढ़ती गई, लेकिन आज अनाज उत्पादन की क्षमता में लगातार कमी आती जा रही है। इसकी मुख्य वजह है बिना सोचे-समझे भूजल का अंधाधुन दोहन। कई जगहों पर भूजल का इस कदर दोहन किया गया कि वहां आर्सेनिक और नमक तक निकल आया है। पंजाब के कई इलाकों में भूजल और कुएं पूरी तरह से सूख चुके है। 50 फीसदी परंपरागत कुएं और कई लाख ट्यूबवेल सुख चुके है। गुजरात में प्रत्येक वर्ष भूजल का स्तर 5 से 10 मीटर नीचे खिसक रहा है। तमिलनाडु में यह औसत 6 मीटर है। यह समस्या आंध्र प्रदेश, उत्तार प्रदेश, पंजाब और बिहार में भी है। सरकार इन समस्याओं का समाधान नदियों को जोड़कर निकालना चाहती है। इस परियोजना के तहत गंगा और ब्रह्मंापुत्र के अलावा उत्तार भारत की 14 और अन्य नदियों के बहाव को जोड़कर पानी को दक्षिण भारत पहुंचाया जाएगा, क्योंकि दक्षिण भारत की कई नदियां सूखती जा रही है।
इस परियोजना को अंजाम तक ले जाने के लिए 100 अरब डालर से लेकर 200 अरब डालर तक की आवश्यकता होगी। परियोजना के तहत लगभग 350 डैम, वाटर रिजर्व और बैराज बनाने होंगे। 12000 से लेकर 13000 किलोमीटर लंबी नहरे होगी, जिसमें प्रति सेकेंड 15 क्युबिक मीटर की गति से पानी का प्रवाह हो सकेगा। हमने लाखों साल से जमा भूजल की विरासत का अंधाधुन दोहन कर कितने ही जगहों पर इसे पूरी तरह से सुखा दिया। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जिन जगहों पर नदी के पानी को रोककर डैम, बैराज और वाटर रिजर्व बनाया जाता है वहां से आगे नदी का प्रवाह सिकुड़ने लगता है। भारत का एक तिहाई हिस्सा गंगा का बेसिन है। इसे दुनिया का सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है, लेकिन इस नदी के ऊपर डैम बनने से यह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। गंगा की लगभग 50 सहायक नदियों में पानी का प्रवाह कम हो गया है। भारत की तीन प्रमुख नदियां-गंगा ब्रह्मपुत्र और यमुना लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। दिल्ली में यमुना के पानी में 80 फीसदी हिस्सा दूसरे शहर की गंदगी होती है। चंबल, बेतवा, नर्मदा, गोदावरी और कावेरी जैसी अन्य नदियों में भी लगातार पानी कम होता जा रहा है। इससे निपटने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना की चर्चा हो रही है, लेकिन पर्यावरणविद् और वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा करने से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि हर नदी में लाखों तरह के जीव-जंतु रहते हैं। हर नदी का अपना एक अलग महत्व और चरित्र होता है। अगर हम उसे आपस में जोड़ देंगे तो लाजमी है कि उन नदियों में जी रहे जीव-जंतु के जीवन पर विपरीत असर पड़ेगा। हम हिमालय क्षेत्रों के पानी को दक्षिण भारत में पहुंचा देंगे तो क्या इससे पानी की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा?
जब इस पानी को दक्षिण भारत ले जाया जाएगा तो कितने ही जंगल डूब जाएंगे। नदी जोड़ योजना की सबसे पहले बात 1972 में हुई थी, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसे टाल दिया गया था। मेरा मानना है कि आर्थिक दृष्टि से यह योजना जायज है, पर इस योजना में बहुत सोच-समझकर कदम उठाने की आवश्यकता है, क्योंकि इससे कुदरत के चक्र को क्षति पहुंच सकती है। अगर हम अपने पूर्वजों के विरासत की ओर लौटे तो हम पानी की किल्लत को आसानी से पूरा कर सकते है। महाभारत में सरोवर की चर्चा है। उस जमाने में भी पानी को संचय करने की व्यवस्था थी। हमारे गांवों में तालाब-पोखर आज भी हैं। दिल्ली जैसे शहर में सैकड़ों तालाब थे। उसमें पानी जमा होता था और वहां से धीरे-धीरे रिस-रिस कर भूजल के स्तर को बनाए रखता था। हमने विकास की अंधी दौड़ में पोखरों को नष्ट कर मकान बना दिए, खेत बना दिए और उद्योग लगा दिए। दूसरी ओर भूजल का लगातार दोहन करते रहे। नतीजा आज हमारे सामने है। हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अनुकरण जरूर करते है, लेकिन उनकी सोच को लेकर हम अनभिज्ञ है। हम सुबह-सुबह नहाकर सूर्य को जल जरूर चढ़ाते है, लेकिन इसके पीछे जो सोच है उसे समझने की कोशिश नहीं करते। वैदिक युग में सूर्य को जल चढ़ाते हुए प्रार्थना की जाती थी कि हे सूर्य भगवान, मैं आभारी हूं कि मुझ पर ऊर्जा, हवा और पानी की कृपा हुई। मैं आप तीनों का आदर करता हूं।
विडंबना यह है कि आज हम हवा और पानी को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। हमारी हवा और पानी प्रदूषित हो चुका है। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कैसी प्रगति की ओर बढ़ते जा रहे है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए जब हम नदियों को आपस में जोड़ेंगे तो एक नदी का जहरीला पानी दूसरी नदी में भी जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि कोई नदी सूख जाए। बेहतर हो कि इन्हीं पैसों को खर्च कर परंपरागत स्त्रोतों को फिर से जिंदा किया जाए। जल संरक्षण में पेड़ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। पेड़ों के कारण जमीन में नमी बरकरार रहती है। क्या यह सही नहीं होगा कि नदियों को आपस में जोड़ने के अलावा दूसरे विकल्प तलाशे जाएं? जरूरत तो सिर्फ इच्छाशक्ति की है।
[माइक पांडे, लेखक जाने-माने पर्यावरण विद् हैं]
साभार - http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_4170413.html

बेगाना होता बसंत : राजकुमार


वसंत और कवियों का रिश्ता पुराना है। लेकिन आज जिस तरह पर्यावरण की पैतरेबाजी चल रही है उससे कवि भी ऋतुभ्रमित हैं। आज विद्यापति जैसा कोई समर्थ कवि भी नहीं दिखता जो इस 'नवजात ऋतुराज' पर छाए संकट को रूपक बनाकर हमारी आज की समस्या को उठाता। एक दो कवियों ने कहीं- कहीं इस पर चिंता जाहिर की है। रघुवीर सहाय ने लिखा है- 'और ये वसंत की हवाएं। दक्षिण से नहीं चारों ओर खुली चौड़ी-चौड़ी सड़कों से आएं। धूल और एक जाना हुआ शब्द।' वसंद मंद-मंद बयार के लिए जानी जाती रही हे। धूप में गुनगुनेपन के लिए। लेकिन पर्यावरण में उलट- फेर के कारण इतना बदलाया आया है कि यह अहसास ही नहीं रहा कि वसंत का मौसम कब गुजरा।
मुंशी द्वारका प्रसाद 'उफक' लखनवी ने लिखा है- 'साकी कुछ आज तुमको खबर है बसंत की/ हर सू बहार पेशे नजर है बसंत की।' नजीर लुधियानवी ने लिखा- 'देखो बसंत लाई है गंगा पे क्या बहार/ सरसों के फूल हो गए हर स्िमि आभाकार।'
भले ही 'फैयाज' कहते रहें- 'गुलाबी सर्दियां आईं, हवा में नर्मियां आई/ सुनहरी साअतें लेकर बसंती नमियां आईं, लेकिन इस वर्ष ऐसा कुछ भी नहीं लगा। इस वर्ष 'फल्गुन के गुलाबी छीटों से, हर सू सब्जे नहीं उगे हैं।' खेतों में हवा के चलने से जौ की हरियाली नहीं लहरा रही। न तो मटर के फूल महके न ही सरसों में फूल ही लगे। कत्ले ठीक से फूटे भी नहीं, आलू उखड़ने से पहले ही बारिश और शीत लहर की भेंट चढ़ गए। गेहूं और चने की फसलें खेतों में बर्बाद हो गईं। अब ऐसे में क्या कोई फाग और चांचर गाएगा। तापमान शून्य के आसपास जाकर स्थिर हो गया। 'चेहरे पर बसंती आलम' और 'लौंग की बेल को छूती-छूती मलिया गिर की मस्त पवन' केवल कवियों के यहां मौजूद है। बाहर दमघोंटू विषैली, हवाएं भरी हैं जो बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण का नतीजा है। श्रीकांत वर्मा ने लिखा है- 'वसंत की प्रतीक्षा में /कविताओं का जुलूस/रुका हुआ है।' अब प्रेम और रोमांस का जुलूस रुका रहे तो अच्छा ही है। कवियों को चाहिए की आज की विनाश लीला भी देख लें।
कभी मुन्नवर ने कहा था- वृंदावन की कुर्बत में यह सुंदर-सुंदर जो धरती है/ यमुना अपने जल से उसको मनसब पाक अता करती है। लेकिन आज तो यमुना ही संकट में है। एक तो शहरीकरण के बढ़ते दबाव ने उसे सिकोड़कर नाले में बदलना शुरू कर दिया है, दूसरी तरफ शहर के सारे कचरे- गंदे पानी और कल- कारखाने से निकले वाले रासायनिक अवशिष्टों को गिराकर उसे इतना जहरीला बना दिया है कि अब वह स्वयं पाक नहीं हो सकती तो दूसरे को क्या पाक अता करेगी? यमुना और वसंत का रूपक बहुत पहले ही अप्रासंगिक हो गया है। यह और बात है कि कवियों ने इस टूटने को दर्ज नहीं किया है इस रूप में।
आज यमुना के पानी में आर्सेनिक, कैडियम जैसे विषैले तत्वों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि यह न सिर्फ मनुष्यों, पशु पक्षियों के लिए जहर बन चुकी है, पेड़- पौधों के लिए भी। ज्यादातर नदियों का यही हाल है। शहर का सारा जहर इन नदियों को निगल चुका है। हम जिस पॉलीथीन युग में जी रहे हैं, क्या वहां बसंत बचा रह सकता है, यह महत्वपूर्ण सवाल है। पॉलीथीन न सिर्फ पेड़- पौधे पानी के लिए नुकसानदेह हैं, हवा को भी विषैला बना रहे हैं। धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर रहे हैं। ये कैंसर जैसी घातक बीमारियों के भी जन्मदाता होते हैं। जलाने पर इससे निकले वाला हाइड्रोजन साइनाइट इतना विषैला, दमघोंटू होता है कि मौत का कारण बन सकता है। ऊपर से कीटनाशक दवाएं तितलियों, भौरों व अन्य कीट- पतंगों को नष्ट कर रहे हैं। क्या ऐसे परागकणों का पल्लवन- पुष्पण और फूलों का जीवंत, मुस्कुराता जीवन संभव है। फूल, तितली और वसंत के रिश्ते संभव है? जिस तरह से तितलियों की अनेक प्रजातियों के पिछले कुछ वर्षों से विलुप्त हो गई हैं, वसंत जीवित रह पाएगा : उद्यान में उड़ रही है तितलियां/ वसंत के प्रेम पत्र।
वसंत से जुड़े शायद ही कवि हों जिनके यहां 'डाली- डाली पर मतवाली कोयल कूकती' और मीठी तान सुनाती न हो।' कोयल की कूक से ही विरहनी नारियों की विरह आर्द्रता बढ़ जाती थी। लेकिन यह जंगल और पेड़ का ही विनाश हो रहा है तो कोयल कहा कूकेगी? बढ़ता भोगवाद, अनंत सुख-संपन्नता जमा जमा करा करने की चाहत, शहरीकरण, औद्योगीकरण ने प्रकृति का ऐसा दोहन किया है कि जंगल साफ हो रहे हैं। धरती बंजर होती जा रही है। ऐसे में कहां कोयल की तान और विरही हृदय की तीव्रता। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र के जलस्तर में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। हम भूकंप, सुनामी, भयानक किस्म के समुद्री तूफान, अतिवृष्ट, अनावृष्टि, बाढ़, शीतलहर, बर्फबारी आदि के शिकार हो रहे हैं। कार्बन मोनो आक्साइड, कार्बन ऑक्साइड, सल्फर डाठ आक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन सल्फाइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन, नाईट्रोजन डाई बेरेलियम के अतिरिक्त रेडियोधर्मी रासायनिक यौगिकों, यूरेनियम, थोरियम आदि का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। इस कारण ओजोन परत का सुराख बढ़ते-बढ़ते अमेरिका के भूगोल के दुगुने से बड़ा हो गया है। वातानुकूलित गाड़ियों, घरों, फ्रीज, हवाई जहाज आदि से निकलने वाली गैंसे इतने हानिकारक हैं कि एक तरफ धरती को गर्म कर रही हैं तो दूसरी तरफ ओजोन परत, जो हम मनुष्य समुदायों की छत है, को तोड़-फोड़ रहे हैं उसके टूटने पराबैंगनी किरण्ों सीधे धरती तक आ रही है। यह आंख और त्वचा के लिए बेहद हानिकारक है। कैंसर रोग में बढ़ोत्तरी का एक महत्वपूर्ण कारक यही है। क्लोरो फ्लोरोकार्बन का एक- एक अणु इतना घातक है कि इस सभ्यता को नष्ट कर देगा। अमेरिका, जापान और यूरोप के कुछ देश पूरे विश्व के क्लोरो फ्लोरो कार्बन का लगभग 75 फीसदी उत्पादन उर्त्सजन कर रहे हैं और तीसरी दुनिया के देशों पर अवांछित बीमारियां लाद रहे हैं। करोड़ों लोग त्वचा कैंसर से ग्रस्त हैं तो एक अरब से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें स्वच्छ हवा नसीब नहीं है। बेंजीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सीसा आदि प्रजनन तंत्र से लेकर हृदय गति और रक्तचाप तक को गहरे प्रभावित करते हैं। जस्ता तो इतना खतरनाक है कि बच्चों की याददाश्त छीन लेता है। मानसिक रूप से विकलांग बना देता है। पर्यावरणविद लगातार इन खबरों से सचेत कर रहे हैं, लेकिन कविगण अब भी 'वसंत राग' गा रहे हैं।
गरीब आदमी को जीवित रहने के लिए तो अमीर आदमी अनंत सुखोपभोग ओर जीवन स्तर को ऊंचा उठाए रखने के लिए पर्यावरण का दोहन कर रहा है। समुद्रतटीय इलाकों से मैनग्रोव के जंगल जिस तरह साफ हुए हैं, सुनामी के खतरे से कौन रोकेगा? प्रकृति को उपनिवेश बनाकर, उसका दोहन कर हम वसंत को भी सुरक्षित रख पाएंगे- यह आज महत्वपूर्ण सवाल है। यह ठीक है कि पर्यावरणविदों के दबाव में पृथ्वी को बचाने के लिए 'वन महोत्सव' मनाया जा रहा है। इक्कीस मार्च को विश्व वानिकी दिवस, बाई अप्रैल को पृथ्वी दिवस, पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। बावजूद इसके इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एग्रोफोरेस्ट्री के महानिदेशक बार-बार घोषणा कर रहे हैं कि आने वाले दिन परिस्थितिकी के लिए बेहद खतरनाक होें। यह सच्चाई है कि पेड़ लगाने के अभियान में गति आई है, लेकिन हमारे यहां जो विदेशी पेड़ लगाए जा रहे हैं न उनमें फूल लगते हैं न फल। पीपल, आम, कटहल, जामुन, बरगद, नीम जैसे पेड़ जो लंबी उम्र जीते हैं, पर्यावरण के लिए बेहद अच्छे हैं। ये मनुष्य के साथ-साथ पशु-पक्षियों के लिए भी उपयोगी हैं। फल और औषधि दोनों रूपों में काम आते हैं शहरों में तकरीबन ये पेड़ गायब हो गए हैं। शहरों में आम के पेड़ जिस तरह लुप्तप्राय हैं, उसमें छिपी कोयल की कूक का रूपक शायद ही किसी कवि की कविता में जगह बना पाए। देखते ही देखते भूमंडलीय दुनिया में पेड़-पौधे, फूल, वसंत, कोयल, तितली, वर्चुअली रियलिटी बचते जा रहे हैं।

पानी की फिक्र

पिछले कुछ सालों में जिस तरह सिंचाई और पेयजल की समस्या लगातार बढ़ती गई है उससे जल संसाधनों के संरक्षण को लेकर चिंता स्वाभाविक है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने इस समस्या से निपटने के लिए भूजल के औद्योगिक उपयोग पर कर लगाने और कुछ नदियों को राष्ट्रीय संपदा के रूप में चिन्हित करने का इरादा जताया है। जमीनी पानी के अंधाधुंध दोहन पर लगाम लगाने के सुझाव लंबे समय से दिए जाते रहे हैं। दिल्ली जैसे कुछ शहरों में सरकारों ने निजी नलकूपों पर कर लगाए भी हैं। मगर शीतल पेय, बोतलबंद पानी, कपड़े की बुनाई- रंगाई जैसे कारोबार में लगी औद्योगिक इकाइयां अभी तक भूजल कर के दायरे से बाहर हैं, जबकि इन इकाइयों में पानी की काफी खपत होती है और ये मुख्य रूप से भूजल का इस्तेमाल करती हैं। अनेक अध्ययनों से यह तथ्य उजागर हो चुका है कि जिन इलाकों में ऐसी फैक्टरियां हैं वहां का भूजल स्तर बहुत तेजी से नीचे गया है। इसके चलते वहां सिंचाई या पेयजल के मकसद से लगाए गए ज्यादातर नलकूप बेकार हो गए हैं। लेकन भूजल दोहन पर कर लागने से इस समस्या पर कितना काबू पाया जा सकता है, कहना मुश्किल है। कर के भुगतान को लेकर इन कंपनियों को शायद ही एतराज हो, मगर इनके लिए जमीन से निकाले जाने वाले पानी की मात्रा निर्धारित करना और उन पर नजर रखना खासा पेचीदा मसला हो सकता है। कंपनियां भूजल कर को अपनी लागत में शुमार कर उत्पादन की कीमत में इजाफा करते हुए अपनी भरपाई कर सकती है, मगर जमीनी पानी का क्या होगा।
नदियों में मिलने वाले औद्योगिक कचरे को रोकना और उनकी जल संग्रह क्षमता को बनाए रखना राज्यों की जिम्मेदारी है। मगर ज्यादातर राज्य इस मामले में लापरवाह हैं। गंगा कार्य योजना के तहत केंद्र की तरफ से अब तक एक हजार करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए जा चुके हैं, पर स्थिति में इसलिए कोई उल्लेखनीय बदलाव नजर नहीं आ पाया है क्योंकि इसमें राज्य सरकारों की भूमिका निराशाजनक ही रही है। केंद्र अगर गुछ नदियों को राष्ट्रीय संपदा के रूप में चिन्हित करना चाहता है तो इससे यह उम्मीद बनती है कि इनकी साफ-सफाई और जल संग्रह क्षमता बढ़ाने की दिशा में चलाई जा रही परियोजनाओं में गति आएगी। सरकार का मानना है कि इससे राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर पैदा होने वाले विवादों पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। संविधान के मुताबिक नदियों का मामला चूंकि राज्य का विषय है इसलिए इस प्रस्ताव पर कुछ राज्यों के विरोध की आशंका के मद्देनजर सरकार ने पहले ही साफ कर दिया है कि राज्यों का अधिकार बरकरार रहेगा। केंद्र केवल इन नदियों के संरक्षण और विकास संबंधी परियोजनाओं के मामले में हस्तक्षेप करेगा। लेकिन राज्य सरकारों के सहयोग के बिना इस दिशा में कोई कदम बढ़ा पाना उसके लिए आसान नहीं होगा। लिहाजा इस दिशा में कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि केंद्र किस तरह राज्यों के साथ तालमेल बिठा पाता है।

गरीबों के आशियाने हटे, भू- माफिया अभी भी जमे : श्रवण कुमार

फतेहपुर। लगातार गिरते भूजल स्तर से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने सात साल पहले राज्य सरकारों को तालाबों से अतिक्रमण हटाने और नए तालाबों का निर्माण कराकर संचयित जल से भूजल स्तर नियंत्रित करने संबंधी आदेश जारी किए थे। लेकिन उत्तर प्रदेश प्रशासन ने तालाबों से अतिक्रमण हटाने में व्यावहारिक रूप से कितनी सफलता पाई है, इसके लिए फतेहपुर जिले का संदर्भ सूबे की स्थ्िति का अंदाजा लगाने के लिए काफी है।
मिले आकड़ों के मुताबिक फतेहपुर जिले में कुल छोटे-बड़े तालाबों की संख्या 26 हजार है। इनमें से अतिक्रमण से अपना अस्तित्व खोने वाले तालाबों की संख्या करीब 17 हजार है। ये वे तालाब हैं, जिन्हें अतिक्रमण करके या तो खत्म कर दिया गया या उनका क्षेत्र संकुचित रह गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इनतालाबों में से लगभग नौ हजार तालाबों से अतिक्रमण हटाया जा चुका है। अब मात्र साढे सात हजार तालाब ही अतिक्रमित हैं, लेकिन जमीनी हकीकी कुछ और ही है। तालाबों से अतिक्रमण के नाम पर उन परिवारों को हटाया गया है, जिन्होंने गांव के तालाबों के किनारे कच्ची-पक्की फूस की झोपड़ियां डाली थीं। लेकिन जिला मुख्यालाय सहित तहसील मुख्यालयों में अधिकारियों की नाक के नीचे शहरी तालाबों की भूमि पर काबिज भूमाफिया या उस पर बनी इमारतों के प्रभावशाली मालिकों पर अतिक्रमण हटाओ अभियान का कोई असर नहीं दिखता।
ग्रामीण क्षेत्रों में भी तालाबों की जमीन पर दबंग व प्रभावशाली लोग आज भी काबिज हैं। गरीब और पिछड़े ही उजाड़े गए हैं। सदर तहसील के कस्बा गाजीपुर में मुख्य मार्गों से जुड़े तालाबों की बेशकीमती भूमि पर भूमाफिया और दबंगों ने कब्जा करके आलीशान मकान और दुकानें बना ली हैं। जिला मुख्या सहित तहसील व ब्लॉक मुख्यालयों और छोटे कस्बों में अपना स्वरूप खो चुके तालाबों की मुक्ति का कहीं कोई उदाहरण नहीं मिल रहा है।
राजस्व विभाग के आंकड़ों के मुताबिक जिले में अतिक्रमित तालाबी क्षेत्र के रूप में चिन्हित भूक्षेत्र 1322.700 हेक्टेयर में से अब तक 932.217 हेक्टेयर क्षेत्र ही कब्जा हटाने के लिए बचा है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जनपद की सदर समेत तीनों तहसीलों- फतेहपुर, खागा, बिंदगी, तेरह विकास खंडों व नगर पंचायतों सहित छोटे-छोटे गांवों में तालाबों में आज के अतिक्रमण की स्थिति यह बताने के लिए काफी है कि सात साल पहले दिया गया सुप्रीम कोर्ट के आदेश का इतने समय बाद भी अनुपालन नहीं हो सका है।
जिले में तालाबों के कब्जों को हटाने का कार्य कागजों में भले ही 70 फीसद तक पूरा कर लिया गया हो, लेकिन हकीकत में प्रभावशाली भूमाफिया और दबंगों की अतिक्रमित तालाबी जमीन कहीं भी मुक्त नहीं हुई है। अतिक्रमण, हटाने के काम में आकड़ों और हकीकत, गरीब और अमीर व शहर और ग्रामीण का अंतर साफतौर पर देखा जा सकता है।

तीर्थ का एक अनमोल प्रसाद : श्री पद्रे

कर्नाटक राज्य के गडग में स्थित वरी नारायण मंदिर बहुत प्रसिध्द है। कहा जाता है कि कुमार व्यास ने इसी मंदिर में बैठक महाभारत की रचना की। यह ऐतिहासिक मंदिर आज एक बार फिर से इतिहास रच रहा है। कई वर्षों में इस मंदिर के कुंए का पानी खारा हो गया था। इतना खारा कि यदि उस पानी में ताबें का बरतन धो दिया जाए तो वह काला हो जाता था। तब मंदिर के निस्तार के लिए वहां एक बोरवैल खोदा गया। उस कुंए में पानी होते हुए भी उसका कोई उपयोग नहीं बचा था। बोरवैल चलता रहा। और फिर उसका पानी भी नीचे खिसकने लगा। कुछ समय बाद ऐतिहासिक कुंए की तरह यह आधुनिक बोरवैल भी काम का नहीं बचा। कुंए में कम से कम खारा पानी तो था। इस नए कुंए में तो एक बूंद पानी नहीं बचा। मंदिर में न जाने कितने कामों के लिए पानी चाहिए। इसलिए फिर एक दूसरा बोरवैल खोदा गया। कुछ ही वर्षों में वह भी सूख गया। उसके बाद तीसरा। वह भी व्यासजी के ऐतिहासिक मंदिर का इतिहास बन गया।

इस तरह दस वर्षों के भीतर मंदिर में चार बोरवैल खोदे गए। बस अब चौथे में ही थोड़ा बहुत पानी बचा था। यही पानी मंदिर में नैवेद्य, प्रसाद व भोजन पकाने के काम में इस्तेमाल किया जाता था। पुराने कुंए को फिर से जीवित करने की ओर किसी का कभी ध्यान ही नहीं गया। गडग जिले में बहुत कम वर्षा होती है। राज्य के इस जिले के अधिकांश हिस्सों में हमेशा गहरा जल संकट बना रहता है।
वर्ष 2005 की गर्मी में जिला पंचायत ने काम के बदले अनाज योजना से मंदिर के कुंए के बगल में एक बड़ा गङ्ढा भूजल संरक्षण के लिए खोदा था। गङ्ढा मानसून के पहले तक तैयार हो गया। यह गङ्ढा 12 फुट लंबा, 8 फुट चौड़ा और 6 फुट गहरा था। गङ्ढे की तली में दो फुट ऊपर तक मिट्टी भरी गई। इसे यहां जाली कहते हैं। ऐसी जाली का उपयोग सड़क बनाने में किया जाता है। इस जाली में दो तरह के पत्थर थे। गङ्ढे में सबसे नीचे बड़े आकार वाली जाली की तह बिछाई गई और फिर उसके ऊपर छोटे आकार वाली जाली डाली गई। सबसे ऊपर बालू की एक तह और। यह तह बरसाती पानी के साथ बह कर आई गंदगी साफ करती है। जाली की सबसे निचली तह तेजी के साथ पानी को भूमि में प्रवेश के लिए पर्याप्त खुली जगह उपलब्ध कराती है।
मंदिर प्रांगण 9000 वर्ग फुट में फैला हुआ है। दो साल पहले इस पूरे मंदिर क्षेत्र पर कीमती पत्थर का फर्श बिछा दिया गया था। उसके बाद से मंदिर परिसर में गिरने वाला बरसात का पानी पूरी तरह बहकर बाहर निकल जाता था। लेकिन इस गङ्ढे के बन जाने के बाद परिसर के पानी का बहाव गङ्ढे की ओर मोड़ दिया गया।
अब मंदिर परिसर में गिरने वाली वर्षा की एक-एक बूंद उस गङ्ढे में चली जाती है। 2005 की वर्षा के साथ कुंआ पानी से भर गया और फिर बाद में उसका जल स्तर उसी बिंदु पर जाकर स्थिर हो गया जिस बिंदु पर पहले रहता आया था। गर्मी के आखिरी दिनों में भी इसमें छह फुट पानी था। मंदिर के लोग इस बात से चकित हैं कि इस पानी में अब न तो जरा भी खारापन है और न कोई दूसरी तरह का बुरा स्वाद ही। मंदिर में भगवान के अभिषेक से लेकर प्रसाद पकाने जैसे कामों में इसी पानी का उपयोग करने लगा है। मंदिर प्रबंधक प्रहलाद आचार्य कहते हैं कि इस साल से हम कुंए के पानी का भरपूर उपयोग करने लगा है। मंदिर प्रबंधक प्रहलाद आचार्य कहते हैं कि इस साल से हम कुंए के पानी का भरपूर पानी का उपयोग कर रहे हैं। अब हमें पूरा विश्वास है कि गर्मी के आखिरी दिनों में भी इसमें पानी बराबर बना रहेगा।
अब इस जल मंदिर के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए मंदिर की तरफ से वहां एक बोर्ड भी लगाया गया है। इसमें बताया गया है कि मंदिर का यह सूखा कुंआ कैसे हरा हो गया है।
गडग जिले के इस हिस्से में अब कुछ ही निजी कुंए बचे हैं। मंदिर के आसपास कुल 12 कुंए हैं। तीन-तार कुंओं को तो उनके मालिकों ने पाट डाला था। सिर्फ श्रीधर आचार्य के कुंए को छोड़ बाकी सभी कुंओं का पानी खारा था। मंदिर के अर्चक निजी उपयोग के लिए और नैवेद्य तैयार करने के लिए इसी कुंए का पानी लाते थे। आज जल मंदिर के कारण 12 अन्य कुंओं में से चार का पानी मीठा हो गया है। उनका जलस्तर भी बढ़ गया है।
वीर नारायण मंदिर के कुंए से कुछ ही दूरी पर नरसिंहा तीर्थ कुंड है। कहा जाता है कि कुमार व्यास इसी कुंड में नहाकर गीले कपड़ों में ही, महाभारत की रचना करते थे। वहां स्थित एक स्तंभ के पास बैठ उन्होंने अपनी रचना पूरी की थी। उस स्तंभ को 'कवि कुमार व्यास स्तंभ' कहते है॥ यह ऐतिहासिक कुंड भी हाल के वर्षों में सूखा पड़ा था, लेकिन आज इसमें भी दस फुट तक पानी भर आया है।
आज देश के अनेक मंदिरों के परिसरों में आधुनिक चमक-दमक के नाम पर ग्रेनाइट पत्थरों का फर्श बिछाया जा रहा है। इस कारण इन मंदिरों की कहानी भी वीर नारायण मंदिर जैसी ही हो चली है। कच्चे फर्श होने के पर परिसर में गिरा वर्षा जल रिसकर जमीन के भीतर चला जाता था, परिसर में बने पुराने कुंओं को हरा रखता था। आज चमक-दमक ने मंदिरों की सादगी मिटाई है और साथ ही उनका पानी भी। उन मंदिरों में स्थित वर्षों पुराने कुंए सूख गए हैं। फिर वहां बोरवैल खोदे जाते हैं और मंदिर के देवता बोरवैल के पानी से स्नान करने लगते हैं।
ऐसे बोरवैलों की खर्चीली ओर कठिन प्रक्रिया के बदले यदि हमारे मंदिर अपने परिसर में गिरने वाले वर्षा जल को भूमि के भीतर रिसने की सहज व्यवस्था कर दें तो वहां के कुंए अनवरत मीठा जल उपलब्ध कराएंगे। मंदिर का कच्चा और पवित्र परिसर तथा जल संभरण के लिए कुछ गङ्ढे पानी की समस्या का दैनिक समाधान दे देंगे। यदि जगह की समस्या हो तो कोई जरूरी नहीं कि जल रोकने के ये गङ्ढे गडग के व्यास मंदिर जितने बड़े ही खोदे जाएं। कम लंबाई-चौड़ाई वाले गहरे गङ्ढे भी इस काम को पूरा कर देते हैं।
वर्षा जल के बहाव को सीधे कुंओं की ओर मोड़ देना भी ठीक नहीं है। गडक के त्रिकूटेश्वर मंदिर का खुला परिसर वीर नारायण मंदिर से भी बड़ा है। बहुत पहले इस परिसर में गिरने वाले वर्षा जल को पास के दो कुंओं में सीधे उड़ेल दिया जाता था। इस कारण ये दोनों कुंए कभी सूखे तो नहीं लेकन इनका पानी स्वच्छ नहीं बचा है। आसपास की सारी गंदगी वर्षा के पानी में बहकर इन कुंओं में उतर गई है। इसलिए वर्षा जल के बहाव को सीधे कुंए की ओर नहीं मोड़ना चाहिए। इसे मिट्टी की मोटी तह से छनकर साफ होने देना चाहिए।
गडग के ऐतिहासिक वीर नारायण मंदिर में आने वाले श्रध्दालुओं को आज तीर्थ का एक अनमोल प्रसाद भी अपने साथ घर ले जाने के लिए उपलब्ध है। यह प्रसाद है जल मंदिर का। यदि हम अपने घर के इर्द-गिर्द गिरने वाले वर्षा जल की धरती मां की गोद में डाल देते हैं तो हमें आने वाली गर्मी के मौसम में पानी की कमी से जूझना नही पड़ेगा। मंदिर में प्रसाद में वरूण देवता का प्रसाद भी जुड़ जाएगा।

सुरंगों का गुरुकुल : श्री पद्रे


अनुवाद - मीनाक्षी अरोरा
कर्नाटक के दक्षिण कन्न जिले का मनिला गांव और केरल का कासरगोड जिला आजकल सुरंगों के गुरुकुल बन रहे हैं। मनिला में अच्युथ भट पानी की गुफाएं तैयार कर रहे हैं। हालांकि उनकी उम्र 79 साल हो गई है लेकिन पानी की गुफाए बनाने के लिए उनके जोश ने उन्हें आज भी युवाओं से ज्यादा जवान बना रखा है। उनकी पानी की सुरंगे पानी की आपूर्ति करती हैं। अच्युथ भट में सिर्फ सुरंगे बनाने का ही जोश नहीं है बल्कि वे स्थानीय किसानों और युवकों को सुरंग खोने का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। इस किसान परिवार ने एक बार फिर से जमीन से पानी निकालने के परम्परागत तरीकों को पुनर्जीवित किया है। दक्षिण कन्नड जिले के आस-पास रहने वाले किसानों को अब पानी की कोई कमी नहीं है।
अच्युथ भट के परिवार ने अपनी जमीन में ही 20 सुरंगे बना रखी हैं, जिनमें से 14 सुरंगें उनकी जरूरत को पूरा कर रही हैं। इनसे उन्हें केवल सिंचाई के लिए ही नहीं बल्कि पीने और रोजमर्रा के घरेलू कामों के लिए भी पर्याप्त मात्रा में पानी मिल जाता है। इतना ही नहीं उन्हें पानी लेने के लिए कोई बिजली या एक पैसा तक खर्च नहीं करना पड़ता क्योंकि वहां पानी को बहने के लिए बिजली-पानी नहीं गुरुत्वाकर्षण चाहिए। है न आश्चर्यजनक! कि पानी अपने आप गुरुत्वाकर्षण से बहता है।
कई साल पहले इस परिवार को 15 एकड़ का बंजर पहाड़ी ढाल मिला जहां आप भी 5 एकड़ पर नारियल और .... के पेड़ लहलहा रहे हैं, यही बंजर पहाड़ी ढाल आज सुरंगों से भरा है। दरअसल यहां की मिट्टी और ढाल की वजह से कुंए जैसी कोई भी व्यवस्था पानी के लिए नहीं बनाई जा सकती। अच्युथ भट के बेटे काविन्दा भट ने बड़े ही उत्साह से कहा कि अगर कभी पानी की कमी महसूस होगी तो हम और एक नई सुरंग बना लेंगे।
अच्युथ भट के परिवार की लगन और साहस को देखते हुए गांव वाले भी यह कहते नहीं थकते कि वे तो हर साल एक नई सुरंग बना लेते हैं। दूसरी ओर अच्युथ भट भी गांव वालों को सम्मान देते हुए कहते हैं कि यह तो उनका बड़प्पन है। असल में तो हम हर चौथे साल एक सुरंग बना लेते हैं।
मनिला गांव के मनिमूले नाम के इस क्षेत्र में किसानों और खेतिहर मजदूरों के करीब 20 परिवार रहते हैं और सभी के पास सुरंग हैं जो पर्याप्त मात्रा में पानी देती हैं।
वहां की जमीन ढालू होने की वजह से खेती के लिए अलग-अलग ऊंचाई पर लेवल बनाने पड़ते हैं। ऐसे में अच्युथ भट ने सिंचाई का जो तरीका खोजा है वह वाकई सुनियोजित और विकेंद्रीकृत तकनीक है। जमीन का लेवल करने से पहले वे एक सुरंग खोदते हैं जो प्लॉट से करीब 25 फुट ऊपर होती है जब उसमें पानी आने लगता है तब लेवलिंग शुरू कर दी जाती है। सुरंग से बाहर पानी आते ही उसे मिट्टी के टैंक में इकट्ठा कर लिया जाता है और फिर उपेज रमजे से सिंचाई की जाती है। फिलहाल उनके पास पानी के 6 टैंक हैं, जिनमे ंसे कुछ तो आपस में जुड़े हुए हैं।
पहले अच्युथ भट का घर निचाई पर था, जहां सुरंग से बड़ी आसानी से पानी मिल जाता था लेकिन नया घर बनते ही सुरंग से पानी का दबाव कम हो गया तो उन्होंने ऊंचाई पर एक सुरंग बनाई जिससे उनके पूरे घर के नलों में बड़ी आसानी से हमेशा ताजा पानी आता रहता है। तभी वह गर्व से कहते हैं- हमें 50 कोल, (2.5 फुट त्रएक कोलु) पर ही पानी मिल जाता है वो भी किफायती खर्चों में। क्योंकि एक 50 कोलु सुरंग के लिए वर्तमान मजदूरी दर को देखते हुए सिर्फ 15,000 रुपये की लागत लगती है इसके बाद कोई खर्चा नहीं करना पड़ता न डीजल लाना पड़ता है और न ही बिजली जाने की कोई चिंता करनी पड़ती है। एक बार थोड़ा सा खर्चा फिर 'नो टेंशन'ं।
अच्युथ भट ने कभी बचपन में केरल के मलयाली मोपलाओं को पहली बार सुरंग खोदते देखा था। अच्युथ भट और उसे पिता इससे प्रभावित हुए, इस तरह भट परिवार ने सुरंग खोदने की तकनीक सीखी और फिर सबको सिखाते चले गए, आज तक उनके कदम इस राह पर नहीं थमे। उन्होंने एक-एक करके तकनीक से हट पहलू पर महारथ हासिल की यहां तक कि खतरा जानकर सुरंगों की दिशा मोड़ देने की कला भी उन्होंने हासिल कर ली है।
आज मनिला गांव में 300 से भी ज्यादा सुरंगे हैं। यहां केवल 480 घर हैं और आधे घरों के पीने के पानी के लिए कम से कम एक सुरंग तो है ही। अच्युथ भट का मानना है कि सुरंग खोदना कोई ऐसी कला नहीं है जिसे हर कोई सीख सके। बल्कि इसके लिए कड़ी मेहनत और जरूरी ज्ञान की जरूरत है। सबसे मजे की बात तो यह है कि उसने इस काम के लिए कभी भी व्यवसायियों से बात नहीं की बल्कि सामान्य कामगारों को ही मजदूरी पर इस काम के लिए लगाया, इससे फायदा यह हुआ कि अब तक तकरीबन 24 खेतिहर मजदू इस कला को सीख गए हैं। जिन लोगों ने यहां सुरंग खोदना सीखा है वे और ज्यादा सुरंगे बनाएंगे। सचमुच मनिला गांव आज 'सुरंगों का गुरुकुल' बन गया है।
पानी कहा है और सुरंग कहां खोदनी है, इसका पता पेड़ों और दीमक की बांबी को देखकर लगाते हैं। इतनी उम्र में भी उनमें इतना जोश है कि जब मजदूर सुरंग का काम खत्म करके बाहर निकलते हैं तो अच्युथ भट उनके बाद सुरंग में जाकर करीब आधा घंटा खुदाई करते हैं। उनका यह जोश और लगन गांव में कभी पानी की कमी नहीं होने देगा।
लेकिन अफसोस! सुरंग खोदने की यह पुरानी कला आज कई गांवों में मौत के कगार पर खड़ी है। विज्ञान और तकनीकी के इस युग में बड़ी-बड़ी बोरिंग मशीनें आ गई हैं जो केवल एक दिन में ही कुंआ खोद देती हैं। सुरंग खोदने की कला जानने वाले कामगारों की तादाद घटती जा रही है, क्योंकि उन्हें 'रबड़ वृक्षारोपण' जैसे कामों में अच्छा पैसा मिल रहा है। सुरंग खोदने में खतरे भी हैं, पहले भी सुरंगों के ढहने से कई मौतें हो चुकी हैं। फिर भी केरल के मनिला और बायरू गांव में यह कला नया जीवन पा रही है। गोविन्द भट को भी यकीन है कि यह कला कभी नहीं मर सकती और सुरंग खोदने वालों की कमी की वजह से तो कभी मर ही नहीं सकती। इन गांवों की खास बात यह है कि यहां आधे से ज्यादा घरों के या तो पीछे या आगे पहाड़ियां हैं जो सुरंग खोदने के लिए बहुत अच्छी स्थिति है और भी सुरंगे खोदी जा सकती हैं।
अच्युथ भट इस बात पर हैरान हैं कि बैंक इस काम के लिए कर्ज क्यों नहीं देते। अगर बैंक पैसा देना शुरू कर दें तो और ज्यादा लोग इस पुरानी परम्परा को जीवित करने में जुट जाएंगे। बैंक को बोरिंग मशीनों से कुंए बनाने के बाजय इस टिकाऊ और किफायती तकनीक पर पैसा लगाना चाहिए। मनिला का उदाहरण देते हुए गोविंद भट ने बताया कि यहां तकरीबन 200 बोरिंग हैं, लेकिन उनमें से केवल करीब 12 से ही पानी मिल पाता है।
सचमुच विज्ञान और तकनीकी के इस युग में पुरानी परम्परा को जीवित करके अच्युथ भट ने आने वाली कई पीढ़ियों का वरदान दिया है। एक ऐसी तकनीक जहां न बिजली का खर्चा है ना डीजल का, सिर्फ गुरुत्व काम करता है- कई लोगों को सुरंग खोदना सिखाकर भट परिवार ने यह साबित कर दिया कि उनका गांव 'सुरंगों का गुरुकुल' है। हालांकि इस कला को जीवित रखने के वैज्ञनिक तौर पर अध्ययन- अध्यापन किया जाना चाहिए। ताकि भारत एक किफायती तकनीक को जीवित रखने के साथ-साथ बिजली, पानी के खर्चे से भी बचा सके। सुरंगों की कला को सीखने और जीवित रखने के लिए जरूरत है- मनिला, पाहे और कासरगोड के 'सुरंगों के गुरुकुल' में।
हालांकि पश्चिमी घाटों पर वर्षा की कोई कमी नहीं है फिर भी कई इलाकों में आज भी पानी की कमी है। इस समस्या का समाधान करने में एक ओर जहां मनिला के लोग जुटे हैं, वहीं केरल के कासरगोड जिले में भी पानी के लिए जद्दोजहद चल रही है। कासरगोड में साल भर में 3500 मिमी वर्षा होती है यानी प्रति एकड़ 14 मिलियन लीटर। इतनी बारिश के बावजूद भी यहां एक ऐसा इलाका भी है जिसे 'ब्लैक जोन' कहा जाता है। यहां भी पानी के लिए सुरंग बनाने की मुहिम जारी है।
जमीनी पानी को एक जगह रोककर सुरंग के जरिए निकाला जाता है। इसके बाद गुफा की सतह पर बने ढाल के द्वारा आगे ले जाया जाता है। यह ढाल सुरंग के मुंह की तरफ होता है। इससे फायदा यह है कि पानी बिना किसी पम्प की सहायता से बाहर आ जाता है। किसी भी तरह की अनहोनी से बचने के लिए कभी-कभी पाइपों को सुरंगों के सामने वाले हिस्से से लगा दिया जाता है। इन सुरंगों से इस क्षेत्र में बिल्कुल साफ पानी आता है। इसे सिंचाई के साथ-साथ पीने में भी इस्तेमाल किया जाता है।
वर्षा ऋतु में जब पानी का बहाव तेज और ऊंचाई पर होता है तब जहां सुरंगों से सीधे पानी लिया जाता है, वहां पानी को मिट्टी के एक टैंक में इकट्ठा कर लिया जाता है। इन टैंकों में खेतों की सिंचाई के लिए नालियां बना दी जाती हैं या फिर स्प्रिंकलर जेट का इस्तेमाल किया जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि कुंए और सुरंग दोनों से ही जमीनी पानी को निकाला जा सकता है तो फिर लोग सुरंगों को ही क्यों प्राथमिकता दे रहे हैं? दरअसल! यह सब जमीन पर निर्भर करता है। पहाड़ी और ढालू क्षेत्रों में सुरंगे बनाना ही प्राकृतिक रूप से उचित है। तलहटी में रहने वाले लोग सुरंग बनाकर पानी ले सकते हैं, लेकिन चोटी पर रहने वाले लोग सुरंग नहीं बना सकते, क्योंकि उनके लिए ऊपर कोई ढाल नहीं है। जहां से पानी नीचे आ सके।
कुंए और सुरंगों के बीच पैसा भी एक बड़ा कारण है। कुंआ खोदने में मजदूरों की जरूरत होगी, जिसके लिए बहुत सारा धन खर्च करना पड़ता है लेकिन सुरंग को तो बाप-बेटा या दो भाई भी मिलकर बना सकते हैं वे इस काम को अपने फालतू वक्त या रात में भी कर सकते हैं। अगर गरीब किसान या खेतिहर अपने घर के लेवल से ऊपर पहाड़ी पर सुरंग नहीं खोद सकता तो वो नीचे लेवल से ऊपर पहाड़ी पर सुरंग खोदकर पानी को ऊपर ला सकता है।
सुरंगों की दीवारों पर लैटराइट मिट्टी की वजह से सुंदर ढंग दिखाई देते हैं उस पर सजावट नहीं की जाती है, लेकिन कुल्हाड़ी और चोट से उन पर खुद ब खुद सुन्दर डिजाइन उभरने लगता है। सुरंगों की लंबाई को कोलु में मापा जाता है। यहां एक सुरंग 150 कोलु (375 फुट) की है।
सुरंगों के लिए लैटराइट मिट्टी का होना जरूरी है। इस पर ताममान का असर नहीं होता। कड़ी गर्मी में भी यह सुरंग के अंदर वातानुकूलन बनाए रखती है। इससे सुरंग में गर्मी में भी ठंडक देती है। पानी भी ठंडा रहता है लेकिन सुरंगों में गर्मी में पानी का स्रोत या तो सूख जाता है या कम हो जाता है।
कासरगोड जिले में पाहे गांव में लगभग 100 घर हैं और 2000 से भी ज्यादा सुरंगों का इस्तेमाल किया जा रहा है यानी औसतन एक घर 2 सुरंगों का इस्तेमाल कर रहा है। हालांकि यह संख्या अलग-अलग है। करीब 200 परिवारों के पास 4 से 6 सुरंगें हैं और कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास एक भी नहीं है।
कासरगोड जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर बायारू गांव में तो और भी ज्यादा सुरंगे हैं। गांव की 40 फीसदी सिंचाई सुरंगों से होती है। पूरे तौर पर देखें तो जिले में 6000- 7000 सुरंगें हैं।

नदी का पानी सूखने से हैंडपंप भी देने लगे जवाब

चित्रकूट। पयस्वनी नदी का प्रवाह रोक दिये जाने से नदी का पानी सूख गया। इससे कई गांवों में जलस्तर नीचे चले जाने के कारण हैंडपंप भी जवाब देने लगे हैं। क्षेत्र के दो दर्जन से अधिक गांव के लोगों के सामने पेयजल की किल्लत पैदा हो गई है।

सपा के पूर्व जिलाध्यक्ष राजबहादुर सिंह यादव ने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर बंधुइन डायवर्जन बांध की ऊंचाई बढ़ाकर पयस्वनी के जल प्रवाह को रोक दिये जाने से नदी के किनारे बसे दर्जनों गांवों में पानी की घोर किल्लत पैदा हो जाने की समस्या से अवगत कराया है।

उनका कहना है कि जहां एक तरफ पेयजल की समस्या खड़ी हो गयी है वहीं दूसरी तरफ बांध के कारण पयस्वनी का अस्तित्व बांध बंधुइन के बाद खत्म होता जा रहा है। उन्होंने बताया कि बंधुइन डायवर्जन के बाद सूर्यकुंड, खजुरिहा, हिनौता, रेहुंटा, खेर, मकरी पहरा, भंभौर, परसौंजा, पटिया, कहेटा, चौरा, देवल, अगरहुंडा, कलवारा, पनौटी, बरेठी, औदहा व महुवा आदि दर्जनों गांवों में पयस्वनी का पानी बंद हो जाने से ग्रामीणों में जबर्दस्त आक्रोश है। उन्होंने कहा कि पहली बार सिंचाई विभाग ने बांध को और ऊंचा कर पयस्वनी नदी के पानी को बांध के आगे आबाद गांवों तक पहुंचने से रोकने का काम किया है। इससे नदी किनारे आबाद गांवों में जलस्तर नीचे चले जाने के कारण हैडपंपों व कूपों का जलस्तर भी नीचे चला गया है। ग्रामीण व उनके मवेशियों के समक्ष पानी की किल्लत पैदा हो गई है। उन्होंने जिलाधिकारी से बंधुइन बांध को अविलंब खुलवा पयस्वनी नदी के अस्तित्व को बचाने का प्रयास कर ग्रामीणों को पानी मुहैया कराने की मांग की है।

..ऐसे में सूख जाएंगे प्राकृतिक जलस्त्रोत्र

हीरानगर, राजेंद्र माथुर :

रियासत में जहां अधिकतर आबादी पेयजल समस्या से जूझ रही है, वहीं सरकारी स्तर पर हो रहे प्रयास भी उंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रहे हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर इस समस्या का समाधान करने के किए जा रहे प्रयास भी नाकाफी साबित हो रहे हैं। लेकिन गांवों में मौजूद प्राकृतिक जल स्रोतों की तरफ ध्यान न दिए जाने से उनका आस्तित्व भी मिटने की कगार पर पहुंच रहा है। जबकि कुछ साल पूर्व यही स्रोत लोगों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध कराते थे। आजादी के साठ साल गुजर जाने के बाद भी जम्मू-कश्मीर में सिंचाई के उचित प्रबंध न होने के कारण किसानों को हर साल सूखे का सामना करना पड़ रहा है। हजारों कुएं, तालाब, बावलियां बिना देखरेख के जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच चुकी हैं। जबकि आजादी से पहले 80 प्रतिशत लोग कुओं, तालाबों के पानी से न केवल फसलों की सिंचाई करते थे, बल्कि पीने की जरूरतें भी इन्हीं स्त्रोतों से पूरा करते थे। आज जनस्वास्थ्य विभाग द्वारा लगाए गए ट्यूबवेल, हैडपंपों का पानी भी सूखने लगा है। पेयजल योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे है। उधर, ट्यूबवेल द्वारा आपूर्ति शुरू होने पर लोगों ने कुओं, तालाबों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और ना ही सरकार ने इनकी मरम्मत के लिए कोई योजना बनाई। जिस कारण गांवों में लगाए गए 50 प्रतिशत कुएं या तो बिल्कुल ही दब गए है या अभी वीरान पड़े हुए है। अगर इन्हीं बंद पड़े कुओं की मरम्मत कराई जाए तो शायद पानी के लिए मची हाय-तौबा कम हो सकती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इससे सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों ने पूरी तरह आंखें मूंद रखी हैं।

जानकारी के अनुसार तहसील हीरानगर में 1965 तक दो हजार के करीब कुएं, तीन सौ तालाब व सौ के करीब बावलियां थीं। ग्रामीण विकास विभाग द्वारा करवाए गए सर्वे के अनुसार हीरानगर ब्लाक में 258 कुएं, 112 तालाब व 36 बावलियां, ब्लाक बरनोटी में 76 कुंए, 96 तालाब व 41 बावलियां रह गई है। बरबाद हो रहे जल स्त्रोतों के बारे में जब कुछ बुजुगरें से बात की गई तो 80 वर्षीय ज्ञान चंद 90 वर्षीय करतार चंद, 100 वर्षीय मिलखी राम का कहना था कि 1965 से पहले तक जब पानी की आपूर्ति के लिए ट्यूबवेल नहीं थे तो लोग तालाबों व कुओं के पानी पर ही निर्भर थे। इस कारण कुओं पर दिन-रात रौनक रहती थी। खेतों में सिंचाई के लिए प्रत्येक गांव में चार-पांच कुएं होते थे। जिसके पानी से सिंचाई कर सब्जियां- अनाज पैदा किया जाता था। उन्होंने बताया कि कुएं खोदने में भी कई माह का समय लगता था। उस समय जिस व्यक्ति का कोई बच्चा नहीं होता था, वह अपनी याद बनाए रखने के लिए गांव में कुएं या पीपल का पेड़ लगा देता था। उसके बाद जब पेयजल आपूर्ति के लिए सरकार ने ट्यूबवेल और लोगों ने घरों में हैडपंप लगाने शुरू कर दिए तो कुएं बिना देखरेख के बरबाद हो गए। ट्यूबवेलों का पानी पूरा न होने से और कई हैंडपंपों का पानी खारा होने के कारण लोगों को एक बार फिर इन प्राकृतिक जलस्त्रोतों की याद आने लगी है।

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कुंआ बनाने के लिए लाहौर

से मंगवाया गया था सीमेंट

कूटा गांव में बने कुएं को सन 1944 में जब नेकां के जिला प्रधान अजीत कुमार शर्मा के पिता दिवंगत सेठ पाल शर्मा ने बनवाया था तो इसके निर्माण कार्य के लिए लाहौर से सीमेंट मंगवाया गया था। इसे खोदने के लिए दस साल का समय लगा था। कंडी क्षेत्र के लोग इसी कुएं के पानी पर निर्भर थे, लेकिन जब यहां ट्यूबवेल लग गया तो किसी ने कुएं की देखरेख नहीं की तथा उसे पत्थरों से भर दिया गया। टयूबवेल खराब हो जाने के बाद लोगों को पानी की जरूरत महसूस हुई तब इस पर दो लाख रुपये खर्च कर इसकी पिछले साल ही मरम्मत करवाई। आज पूरा गांव इस कुएं का पानी पी रहा है।

..ऐसे में सूख जाएंगे प्राकृतिक जलस्त्रोत्र

हीरानगर, राजेंद्र माथुर :

रियासत में जहां अधिकतर आबादी पेयजल समस्या से जूझ रही है, वहीं सरकारी स्तर पर हो रहे प्रयास भी उंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रहे हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर इस समस्या का समाधान करने के किए जा रहे प्रयास भी नाकाफी साबित हो रहे हैं। लेकिन गांवों में मौजूद प्राकृतिक जल स्रोतों की तरफ ध्यान न दिए जाने से उनका आस्तित्व भी मिटने की कगार पर पहुंच रहा है। जबकि कुछ साल पूर्व यही स्रोत लोगों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध कराते थे। आजादी के साठ साल गुजर जाने के बाद भी जम्मू-कश्मीर में सिंचाई के उचित प्रबंध न होने के कारण किसानों को हर साल सूखे का सामना करना पड़ रहा है। हजारों कुएं, तालाब, बावलियां बिना देखरेख के जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच चुकी हैं। जबकि आजादी से पहले 80 प्रतिशत लोग कुओं, तालाबों के पानी से न केवल फसलों की सिंचाई करते थे, बल्कि पीने की जरूरतें भी इन्हीं स्त्रोतों से पूरा करते थे। आज जनस्वास्थ्य विभाग द्वारा लगाए गए ट्यूबवेल, हैडपंपों का पानी भी सूखने लगा है। पेयजल योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद लोग पीने के पानी के लिए तरस रहे है। उधर, ट्यूबवेल द्वारा आपूर्ति शुरू होने पर लोगों ने कुओं, तालाबों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और ना ही सरकार ने इनकी मरम्मत के लिए कोई योजना बनाई। जिस कारण गांवों में लगाए गए 50 प्रतिशत कुएं या तो बिल्कुल ही दब गए है या अभी वीरान पड़े हुए है। अगर इन्हीं बंद पड़े कुओं की मरम्मत कराई जाए तो शायद पानी के लिए मची हाय-तौबा कम हो सकती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इससे सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों ने पूरी तरह आंखें मूंद रखी हैं।

जानकारी के अनुसार तहसील हीरानगर में 1965 तक दो हजार के करीब कुएं, तीन सौ तालाब व सौ के करीब बावलियां थीं। ग्रामीण विकास विभाग द्वारा करवाए गए सर्वे के अनुसार हीरानगर ब्लाक में 258 कुएं, 112 तालाब व 36 बावलियां, ब्लाक बरनोटी में 76 कुंए, 96 तालाब व 41 बावलियां रह गई है। बरबाद हो रहे जल स्त्रोतों के बारे में जब कुछ बुजुगरें से बात की गई तो 80 वर्षीय ज्ञान चंद 90 वर्षीय करतार चंद, 100 वर्षीय मिलखी राम का कहना था कि 1965 से पहले तक जब पानी की आपूर्ति के लिए ट्यूबवेल नहीं थे तो लोग तालाबों व कुओं के पानी पर ही निर्भर थे। इस कारण कुओं पर दिन-रात रौनक रहती थी। खेतों में सिंचाई के लिए प्रत्येक गांव में चार-पांच कुएं होते थे। जिसके पानी से सिंचाई कर सब्जियां- अनाज पैदा किया जाता था। उन्होंने बताया कि कुएं खोदने में भी कई माह का समय लगता था। उस समय जिस व्यक्ति का कोई बच्चा नहीं होता था, वह अपनी याद बनाए रखने के लिए गांव में कुएं या पीपल का पेड़ लगा देता था। उसके बाद जब पेयजल आपूर्ति के लिए सरकार ने ट्यूबवेल और लोगों ने घरों में हैडपंप लगाने शुरू कर दिए तो कुएं बिना देखरेख के बरबाद हो गए। ट्यूबवेलों का पानी पूरा न होने से और कई हैंडपंपों का पानी खारा होने के कारण लोगों को एक बार फिर इन प्राकृतिक जलस्त्रोतों की याद आने लगी है।

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कुंआ बनाने के लिए लाहौर

से मंगवाया गया था सीमेंट

कूटा गांव में बने कुएं को सन 1944 में जब नेकां के जिला प्रधान अजीत कुमार शर्मा के पिता दिवंगत सेठ पाल शर्मा ने बनवाया था तो इसके निर्माण कार्य के लिए लाहौर से सीमेंट मंगवाया गया था। इसे खोदने के लिए दस साल का समय लगा था। कंडी क्षेत्र के लोग इसी कुएं के पानी पर निर्भर थे, लेकिन जब यहां ट्यूबवेल लग गया तो किसी ने कुएं की देखरेख नहीं की तथा उसे पत्थरों से भर दिया गया। टयूबवेल खराब हो जाने के बाद लोगों को पानी की जरूरत महसूस हुई तब इस पर दो लाख रुपये खर्च कर इसकी पिछले साल ही मरम्मत करवाई। आज पूरा गांव इस कुएं का पानी पी रहा है।

राष्ट्रीय. भूजल दोहन दो अंतिम

जल संसाधन मंत्रालय के सूत्रों ने कहा कि हालांकि भूजल की बहुत कमी वाले .डार्क एरिया. के रुप में वर्गीकृत क्षेत्र कुल ब्लाकों की संख्या की तुलना में काफी कम है1 लेकिन कृष िअर्थशास्त्र तथा नीतिगत अनुसंधान केन्द्र द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1980 के मध्य से लेकर 1990 के मध्य तक डार्क अथवा ..क्रिटिकल ब्लाकों.. की संख्या में प्रतिवर्ष 5.5 प्रतिशत की दर से वृध्दि हुई1 यदि वृदि्ध की यही दर बनी रहती है तो भी दो दशकों के अंदर देश के एक तिहाई ब्लाक डार्क ब्लाक श्रेणी में शामिल हो जायेंगे1 वर्ष 1995 में 50 प्रतिशत डार्क ब्लाक गुजरात. हरियाणा. पंजाब. तमिलनाडु. कर्नाटक और राजस्थान में स्थित थे

1960 से सघन खेती की वजह से भूजल का इतना ज्यादा दोहन हुआ है कि गुजरात के मेहसाणा जैसे क्षेत्रों तथा हरियाणा और पंजाब के कुछ भागों में किसानों द्वारा 500 मीटर तक की गहराई के ट्यूबवेल लगाना एक आम बात हो गयी है

प्रवक्ता ने कहा कि सिंचाई में भूजल का इस्तेमाल छोटे छोटे किसानों की मजबूरी है लेकिन जल प्रबंधकों के लिये भूजल की स्थायी उपलब्धता सुनिश्चित करना एक विराट चुनौती बनता जारहा है1 देश के कई हिस्सों खासकर शहरी हिस्सों में भूजल के स्तर में अत्यंत गिरावट एक प्रमुख समस्या बनती जा रही है1 पानी के कुल इस्तेमाल में शहरी जरुरत का हिस्सा लगभग आठ प्रतिशत है और देश के लगभग हर कस्बे और शहर के आसपास भूजल का स्तर गिर रहा है

भूजल- -इसका आकलन कैसे किया जाता है

भूजल सिंचाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है और वह देश की 50% से अधिक सिंचाई की पूर्ति करता है। खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भरता की स्थिति तक पहुंचने में पिछले तीन दशकों में भूजल सिंचाई का योगदान उल्लेखनीय रहा है। आने वाले वर्षों में सिंचित कृषि के विस्तार तथा खाद्य उत्पादन के राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए भूजल प्रयोग में कई गुना वृद्धि होने की संभावना है। हालांकि भूजल वार्षिक आधार पर पुनःपूर्ति योग्य स्रोत है फिर भी स्थान और समय की दृष्टि से इसकी उपलब्धता असमान है। इसलिए भूजल संसाधन के विकास की योजना तैयार करने के लिए भूजल संसाधन और सिंचाई क्षमता का एकदम सही आकलन करना एक पूर्वापेक्षा है।

भूजल की प्राप्ति और संचलन पर जल भू-वैज्ञानिक, जल-वैज्ञानिक और जलवायुपरक जैसे बहुविध तत्वों का नियंत्रण रहता है। पुनःपूरण और निस्सारण का सही आकलन करना दुष्कर होता है क्योंकि उनके प्रत्यक्ष मापन के लिए फिलहाल कोई तकनीक उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए भूजल संसाधन के आकलन के लिए प्रयुक्त सभी विधियां परोक्ष हैं। क्योंकि भूजल एक गतिशील और पुनःपूर्तियोग्य संसाधन है इसलिए इसका आकलन प्रायः वार्षिक पुनःपूरण के घटक पर आधारित रहता है जिसे उपर्युक्त भूजल संरचनाओं के बल पर विकसित किया जा सकता है।

भूजल संसाधनों के परिमाणन के लिए जलधारक चट्टान, जिसे जलभृत कहते हैं के निर्माण के व्यवहार और विशेषताओं की सही जानकारी जरूरी है। एक जलभृत के दो प्रमुख कार्य होते हैं (i) पानी का संक्रमण करना (नाली का कार्य) तथा (ii) संग्रह करना (भण्डारण का कार्य)। अबाधित जलभृतों के भीतर भूजल संसाधनों को स्थिर और गतिशील के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। स्थिर संसाधनों को जलभृत के पारगम्य भाग में जल स्तर उतार-चढ़ाव के क्षेत्र के नीचे उपलब्ध भूजल की मात्रा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। गतिशील संसाधनों को जलस्तर उतार-चढ़ाव के क्षेत्र में उपलब्ध भूजल की मात्रा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पुनःपूर्तियोग्य भूजल संसाधन अतिवार्यतः एक गतिशील संसाधन है जिसकी प्रतिवर्ष अथवा नियतकालिक आधार पर वर्षा, सिंचाई प्रत्यावर्ती प्रवाह, नहर रिसाव तालाब रिसाव, अन्तःस्रावी रिसाव आदि से पुनःपूर्ति होती है।

भूजल संसाधनों की गणना करने के लिए प्रयुक्त प्रविधियां आमतौर पर जल-वैज्ञानिक बजट तकनीकों पर आधारित होती है। भूजल अवस्था के लिए जल-वैज्ञानिक समीकरण जल सन्तुलन समीकरण का एक विशिष्ट रूप होता है जिसके लिए इन मदों के परिमाणन की जरूरत होती हैः भूजल जलाशय में अन्तर्वाह तथा उसमें से बहिर्वाह तथा जलाशय के भीतर मौजूद भण्डार में बदलाव। इनमें से कुछेक मदें सीधी मापी जा सकती हैं, कुछ का निर्धारण सतही जल की मापित मात्रा अथवा दरों के बीच के अन्तर के आधार पर किया जा सकता है तथा कुछ के आकलन के लिए परोक्ष विधियों की जरूरत रहती है। इन मदों का प्रतिपादन नीचे किया गया हैः

I. भूजल जलाशय को उपलब्ध कराई जाने वाली मदें

1. भूजल तल में वर्षा अन्तःस्यन्दन

2. नदी, झीलों और कुंडों से प्राकृतिक--पुनर्भरण

3. विचाराधीन क्षेत्र में भूजल अन्तर्वाह

4. सिंचाई, जलाशयों तथा कृत्रिम पुनर्भरण के लिए विशेष रूप से तैयार की गई अन्य स्कीमों से पुनर्भरण

II. भूजल जलाशय से निपटान की मदें

1. उथले भूजल तक के क्षेत्रों में केशिका, फ्रिन्ज से वाष्पीकरण तथा भूजल पोषितों और अन्य पौधों/वनस्पति द्वारा वाष्पोत्सर्जन

2. नदियों, झीलों और कुण्डों को रिसाव और वसन्तकालीन प्रवाह द्वारा प्राकृतिक निस्सारण

3. भूजल बहिर्वाह

पांच सालों में भूगर्भ के जलस्तर में आयी तेजी से गिरावट

हमीरपुर (उत्तर प्रदेश)। पिछले पांच सालों में चित्रकूट धाम मंडल में डेढ़ मीटर के भूगर्भ जलस्तर में गिरावट आयी है। सबसे अधिक जलस्तर महोबा में 1.83 मीटर गिरा है।

भूगर्भ के जलस्तर में पिछले पांच सालों में जबरदस्त गिरावट आयी है। जिसमें सबसे अधिक महोबा 1.83, चित्रकूट 1.82 मीटर जलस्तर गिरा है। जबकि हमीरपुर में 1.31 और बांदा में 1.14 मीटर जलस्तर में गिरावट आयी है। मगर पिछले 10 साल के आंकड़ों को देखा जाये, तो वे बहुत ही भयावह हैं। क्योंकि 10 साल में हमीरपुर जिले में 1.34 मीटर जलस्तर में गिरावट आयी है। जबकि अन्य जिलों में यह गिरावट आधा मीटर के आसपास रही है।

अधिशाषी अभियंता भूगर्भ जल विभाग ए एच जैदी बताते हैं कि बुंदेलखंड क्षेत्र में हरियाली क्षेत्र लगातार कम हो जा रहा है। वन की कमी और वृक्षों की मृत्युदर अधिक होने से वर्षा के घंटे और दिन कम होते जा रहे हैं। खेत का खेत पानी खेत में का संकल्प पूरा नहीं हो पा रहा है। शहरी क्षेत्रों में सीमेंट और कंकरीट का जंगल तैयार हो रहा है। शासनादेशों की मंशा के अनुसार इसे बंद होना चाहिए। हैंडपंपों के जरिए भूजल का अत्याधिक दोहन और दुरुपयोग हो रहा है। रीचार्ज पिट बनाने की जरूरत है।

बुंदेलखंड की धरती असमतल होने के कारण भूगर्भ की कम्पैक्टेड ग्रेनाइट की पर्तो के पाये जाने के कारण वर्षा के घंटे और दिन कम होते जा रहे हैं। क्योंकि भूजल की वांछित रिचार्जिग नहीं हो पा रही है। सूखे के कारण पेयजल व सिंचाई के लिए भूगर्भ जल भंडारों पर अत्यधिक दबाव बढ़ता जा रहा है। भूजल दोहन की मात्रा हर साल बढ़ रही है। इन्हीं सबका परिणाम है कि गोहांड के जिगनी और मौदहा के परछा व खंडेह में धरती फटने की घटनायें हुई। क्षेत्र में ग्राउंड वाटर की ओवर एक्प्लाइटेड कंडीशन का प्रबल संकेत है, जो चिंता का विषय है।

अधिशाषी अभियंता जैदी ने इसके लिए पांच उपाय सुझाये हैं। उन्होंने कहा कि बुंदेलखंड के सातों जनपदों में एक-एक वर्षा जल केंद्र की स्थापना की जाये, ताकि सूचनायें एकत्रित कर एक छत के नीचे सेवा उपलब्ध हो सके। चेकडैम व अन्य जल संभरण के संसाधनों को बनाया जाये। भूजल की रसायनिक अशुद्धियों वाले क्षेत्र में नलकूपों का आप्टिमम यूज हो सकता है। वर्षा जल को संरक्षित, संचयन और भंडारण किया जाये।

नल सरोवर: सैलानी परिंदों की जन्नत

नल सरोवर भारत में ताजे पानी के बाकी नम भूमि क्षेत्रों से कई मायनों में भिन्न है। सरदियों में उपयुक्त मौसम, भोजन की पर्याप्तता और सुरक्षा ही इन सैलानी पक्षियों को यहां आकर्षित करती है। सरदियों में सैकडों प्रकार के लाखों स्वदेशी पक्षियों का जमावडा रहता है। इतनी बडी तादाद में पक्षियों के डेरा जमाने के बाद नल में उनकी चहचाहट से रौनक बढ जाती है।

नल में इन्हीं उडते सैलानियों की जलक्रीडाएं व स्वर लहरियों को देखने-सुनने के लिए बडी संख्या में पर्यटक यहां प्रतिदिन जुटते हैं। पर्यटकों के अतिरिक्त यहां पक्षी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, शोधार्थी व छात्रों का भी जमावडा लगा रहता है तो कभी-कभार यहां पर लंबे समय से भटकते ऐसे पक्षी प्रेमी भी आते हैं जो किसी खास पक्षी के छायाचित्र भी उतारने की तलाश में रहते हैं।

अनूठा है नल

नम भूमि क्षेत्र नल सरोवर अपने दुर्लभ जीवन चक्र के लिए जाना जाता है जिस कारण यह एक अनूठी जैवविविधता को बचाए हुए है। नल का वातावरण अनेक प्रकार के जीव जन्तुओं के लिए उपयुक्त है और एक भोजन श्रृंखला बनाता है। मूलत: यह वर्षा जल पर आश्रित एक नम क्षेत्र है। गर्मी में जब यह सरोवर सूखने के कगार पर होता है तो मानसूनी वर्षा इस सरोवर को नई जिंदगी देती है। इसके जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा इसे लबालब कर देती है। बरसात की समाप्ति के बाद लगभग मृत प्राय: इस सरोवर में धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर लौटने लगती है। प्रारंभ में पहले इसमें सूक्ष्मजीव पैदा होते हैं उसके बाद छोटे कीट-पतंगे पैदा होते हैं या आस-पास से आकर यहां शरण लेते हैं। वातावरण की अनुकूलता के साथ आस-पास से व जमीन में बचे रह गए अंडों से कई प्रकार का जलीय जीवन तेजी से विकसित होता है। इनमें अनेक प्रकार की मछलियां उत्पन्न होने लगती हैं जिनकी संख्या तेजी से बढने लगती है। मछलियों का लालच पक्षियों को यहां आकर्षित करता है। आरंभ में यहां छोटे पक्षी ही आते हैं किन्तु जब नवंबर में मछलियां बडी हो जाती हैं तो भोजन की प्रचुरता व उचित वातावरण पाकर प्रवासी जल पक्षी भी यहां आने लगते हैं। दिसंबर व जनवरी में इनकी संख्या अधिकतम होती है।

फरवरी के अंत में नल में भोजन व जलस्तर में कमी व गर्मी के बढने के चलते मेहमान पक्षी अपने मूल घरों को लौटने लगते हैं। मार्च में जब क्षेत्र में पारा 40 डिग्री तक पहुंच जाता है तो नल के जल स्तर तेजी से कम होने लगता है। मई का अंत आते सरोवर का क्षेत्रफल पानी के सूखने से काफी कम हो जाता है। इससे उसमें मौजूद जीवन समाप्त प्राय: होने लगता है। गर्मी के बाद प्रकृति बदलती है और एक बार फिर से वही जीवन चक्र शुरू हो जाता है।

नल एक खास प्रकार की जैवविविधता को बचाये है। इस सरोवर में पिछली पक्षी गणनाएं बताती हैं कि नल में पक्षियों की संख्या साल दर साल बढ रही है। वर्ष 2002 में हुई गणना के मुताबिक यह संख्या 1.33 लाख थी। वर्ष 2004 में यह 1.84 लाख रही तो वर्ष 2006 में यह संख्या 2.52 लाख रही। वर्ष 2006 में बत्तख व हंसों की संख्या 1.19 लाख व क्रेक्स, रेहस व कूट की संख्या 82 हजार थी। इस सरोवर में प्रसिद्ध फ्लेमिंगो की संख्या 5820 आंकी गई।

कल का सागर आज का सरोवर

गुजरात के अहमदाबाद व सुंदर नगर जिलों से सटा नल सरोवर अभयारण्य अहमदाबाद से लगभग 65 किमी की दूरी पर है। सरोवर क्षेत्र में छोटे-बडे कुल 300 तक टापू हैं जिनमें से 36 ऐसे बडे टापू है जिनके अपने स्थानीय नाम हैं। नल की संरचना के बारे में भूगर्भवेताओं का मानना है कि जहां पर आज नल सरोवर है वह कभी समुद्र का हिस्सा था जो खंभात की खाडी को कच्छ की खाडी से जोडता था। भूगर्भीय परिवर्तनों से जब समुद्र पीछे चला गया तो यह एक बन्द संरचना में बदल गया। वर्षाकाल में जब यह भर जाता है तो 120 वर्ग किमी क्षेत्रफल की विशाल उथली झील में बदल जाता है। आकार में तब भले ही यह विशाल लगता हो किंतु इस सरोवर की गहराई अपने सर्वाधिक विस्तार के समय भी 2.5 मीटर से अधिक नही होने पाती है। इसका कारण यह है कि इससे अधिक मात्रा में जल इस बेसिन से बाहर बह निकलता है। शीतकाल आते-आते यह स्तर घट कर 1 से 1.5 मीटर तक रह जाता है।

क्या और कैसे देखे

नल सरोवर का परिवेश विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियों, जल पक्षियों, मछलियों, कीट पतंगों व जीव-जंतुओं की शरण प्रदान करता है। 1969 में अभयारण्य का दर्जा मिलने के बाद से उठाए गए कदमों से इसमें मेहमान विदेशी व स्वदेशी पक्षियों की संख्या लगातार बढती जा रही है कभी कुछ हजार तक सीमित रहने वाली संख्या आज 2.5 लाख प्रतिवर्ष से ऊपर ही है। सरोवर क्षेत्र में 225 प्रकार के मेहमान पक्षी तक देखे गए हैं जिनमें से सौ प्रकार के प्रवासी जल पक्षी हैं। इसके अतिरिक्त सरोवर क्षेत्र में 19 प्रकार की मछलियां,11 प्रकार के सरीसृप, 13 स्तनपायी जानवर मिलने का पता चला है। इनमें से कुछ को घूमते हुए देखा भी जा सकता है। इन पक्षियों में हंस, सुर्खाब, रंग-बिरंगी बतखें, सारस, स्पूनबिल, राजहंस, किंगफिशर, प्रमुख हैं। इनकी बडी संख्या आपको सरोवर क्षेत्र में विचरित करती मिल जाएगी। कई बार यहां पर ऐसे पक्षी भी देखे गए हैं जिनको दुर्लभ की श्रेणी में रखा गया है।

सरोवर में मौजूद पक्षियों की जिंदगी में मानवीय आवागमन से अधिक हस्तक्षेप न हो इसके लिए एक निश्चित मार्ग से इस सरोवर में घूमने की अनुमति है। यही कारण है कि जैसे ही आप नल सरोवर के करीब पहुंचते है एक गहरी निशब्दता का अहसास होता है। नल के इर्द-गिर्द ऐसी गतिविधियों की इजाजत नहीं है जिनसे पक्षियों के विचरण में खलल पहुंचता हो। शोर न हो इसलिए सरोवर में मोटरबोट पूर्णतया प्रतिबंधित है। सरोवर की सैर के लिए यहां पर बांस के चप्पुओं से खेने वाली नावें सबसे उपयुक्त हैं जो हर वक्त उपलब्ध रहती है। ये नावें अलग-अलग क्षमता वाली होती है। जैसे ही आप सरोवर में आगे बढते है दूर-दूर मेहमान पक्षी नजर आने लगते हैं। पानी के अन्दर झांकने पर तलहटी में मौजूद जलीय जीवन भी आप देख सकते हैं। सरोवर में आपको निकटतम टापू तक ले जाया जाता है जिस तक आने जाने में दो से तीन घंटे तक लग जाते हैं। जाते समय पक्षियों की कलरव और नाव के पानी को चीरने की आवाज कानों को एक सकून सा प्रदान करती है।

सरोवर में नौका से भ्रमण से पहले अच्छा हो कि आप अभयारण्य प्रबन्धन द्वारा पार्क में लगे बोर्ड, अन्य डिस्प्ले माध्यमों से आगन्तुक पक्षियों व अभयारण्य के नक्शे आदि के बारे में जानकारी ले लें। अभयारण्य के प्रकाशनों से भी जानकारी ली जा सकती है। फिर भी अच्छा हो यदि नौका भ्रमण के समय एक गाइड भी साथ ले लें ताकि और जानकारी मिल सके। समीपवर्ती गांव के लोग ही यहां पर गाइड का काम करते हैं और एक विशेषज्ञ की तरह ही आपके प्रश्नों का उत्तर देते हैं।

यदि आप फोटोग्राफी के शौकीन हैं और यहां के पक्षियों की हलचल को कैमरे में कैद करना चाहते हैं तो इसके लिए आवश्यक है कि आपके पास टैलीलेंस युक्त कैमरा होना आवश्यक है। पक्षियों को करीब से देखने के लिए दूरबीन हो तो क्या बात है क्योंकि आगन्तुक पक्षी मनुष्य से कुछ दूरी बना कर रखते हैं। पर्यटक सरोवर के किनारे कुछ दूरी तक घुडसवारी का आनंद भी ले सकते है।

अंतरराष्ट्रीय पहचान दूर नहीं

नमक्षेत्र पशु-पक्षियों व वनस्पतियों के संरक्षण स्थल है जिनकी जैवविविधता को बचाने में अपनी अहम भूमिका होती है। वैश्विक जागरूकता के बाद से भारत में अब तक लगभग 600 नम भूमियों का पता लगाया जा चुका है। इनमें से अभी तक 25 नमभूमि क्षेत्रों को अंतरराष्ट्रीय मान्यता है शीघ्र ही इनमें गुजरात के दो नम भूमि क्षेत्र- नल सरोवर पक्षी अभयारण्य और कच्छ का छोटा रन जो भारतीय जंगली गधे का एकमात्र आवास स्थल है, भी सूची में जुडने जा रहे हैं। नल की मान्यता के बाद इसकी व्यवस्था में कुछ और सुधार होने की संभावना है। इसकी सीमा अधिक सुरक्षित हो सकेगी, झील पर आश्रित लोगों के पुनर्वास की दिशा में अधिक प्रगति होगी। झील के आसपास बसे गांवों की निर्भरता कम होने से पक्षियों को बेहतर वातावरण मिल सकेगा। इसके अतिरिक्त अभयारण्य को ग्रीष्मकाल में सूखने से बचाने की योजना भी है जिसके तहत इसमें नहर से सरदार सरोवर योजना से पानी देने की बात है।

ललित मोहन कोठियाल

नल सरोवर: कैसे पहुंचे

नल सरोवर आने के लिए आपको अहमदाबाद आना होता है जो देश के प्रमुख नगरों से अच्छी हवाई व रेल सेवा से जुडा है। वहां से बस या टैक्सी से नल सरोवर पहुंचा जा सकता है। साठ किमी दूरी को तय करने में डेढ घंटे लग ही जाते हैं। अभयारण्य की सीमा में गुजरात पर्यटन विकास निगम का एक गेस्ट हाउस है जो यहां पर एक रेस्तरां भी चलाता है। यहां पर रुक कर नल के शांत वातावरण का और लुत्फ लिया जा सकता है। एक दिन में यदि आप नल सरोवर के अलावा कुछ और देखना चाहते हों तो सरोवर की सैर के बाद 60 किमी दूर लोथल जा सकते है जहां सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष देखे जा सकते हैं और शाम में अहमदाबाद लौट सकते हैं।

अहमदाबाद एक आधुनिक नगर है जहां हर श्रेणी के पर्यटक के लिए हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध है। अहमदाबाद में रहकर कई स्थान देखे जा सकते हैं। गांधी जी के ऐतिहासिक आश्रम साबरमती के अलावा यहां अक्षरधाम मंदिर भी है। भारत की सबसे बडी साइंस सिटी अहमदाबाद में ही है। अहमदाबाद में कई मुगलकालीन दर्शनीय इमारतें भी हैं। यदि गुजरात की मेहमानवाजी, वहां के भोजन व संस्कृति से रूबरू होने का आपके पास कम समय है तो रात्रि में विशाला जा सकते हैं जहां पर आपको एक परिसर में सब कुछ देखने को मिल जाएगा।

नल सरोवर: सैलानी परिंदों की जन्नत

नल सरोवर भारत में ताजे पानी के बाकी नम भूमि क्षेत्रों से कई मायनों में भिन्न है। सरदियों में उपयुक्त मौसम, भोजन की पर्याप्तता और सुरक्षा ही इन सैलानी पक्षियों को यहां आकर्षित करती है। सरदियों में सैकडों प्रकार के लाखों स्वदेशी पक्षियों का जमावडा रहता है। इतनी बडी तादाद में पक्षियों के डेरा जमाने के बाद नल में उनकी चहचाहट से रौनक बढ जाती है।

नल में इन्हीं उडते सैलानियों की जलक्रीडाएं व स्वर लहरियों को देखने-सुनने के लिए बडी संख्या में पर्यटक यहां प्रतिदिन जुटते हैं। पर्यटकों के अतिरिक्त यहां पक्षी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, शोधार्थी व छात्रों का भी जमावडा लगा रहता है तो कभी-कभार यहां पर लंबे समय से भटकते ऐसे पक्षी प्रेमी भी आते हैं जो किसी खास पक्षी के छायाचित्र भी उतारने की तलाश में रहते हैं।

अनूठा है नल

नम भूमि क्षेत्र नल सरोवर अपने दुर्लभ जीवन चक्र के लिए जाना जाता है जिस कारण यह एक अनूठी जैवविविधता को बचाए हुए है। नल का वातावरण अनेक प्रकार के जीव जन्तुओं के लिए उपयुक्त है और एक भोजन श्रृंखला बनाता है। मूलत: यह वर्षा जल पर आश्रित एक नम क्षेत्र है। गर्मी में जब यह सरोवर सूखने के कगार पर होता है तो मानसूनी वर्षा इस सरोवर को नई जिंदगी देती है। इसके जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा इसे लबालब कर देती है। बरसात की समाप्ति के बाद लगभग मृत प्राय: इस सरोवर में धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर लौटने लगती है। प्रारंभ में पहले इसमें सूक्ष्मजीव पैदा होते हैं उसके बाद छोटे कीट-पतंगे पैदा होते हैं या आस-पास से आकर यहां शरण लेते हैं। वातावरण की अनुकूलता के साथ आस-पास से व जमीन में बचे रह गए अंडों से कई प्रकार का जलीय जीवन तेजी से विकसित होता है। इनमें अनेक प्रकार की मछलियां उत्पन्न होने लगती हैं जिनकी संख्या तेजी से बढने लगती है। मछलियों का लालच पक्षियों को यहां आकर्षित करता है। आरंभ में यहां छोटे पक्षी ही आते हैं किन्तु जब नवंबर में मछलियां बडी हो जाती हैं तो भोजन की प्रचुरता व उचित वातावरण पाकर प्रवासी जल पक्षी भी यहां आने लगते हैं। दिसंबर व जनवरी में इनकी संख्या अधिकतम होती है।

फरवरी के अंत में नल में भोजन व जलस्तर में कमी व गर्मी के बढने के चलते मेहमान पक्षी अपने मूल घरों को लौटने लगते हैं। मार्च में जब क्षेत्र में पारा 40 डिग्री तक पहुंच जाता है तो नल के जल स्तर तेजी से कम होने लगता है। मई का अंत आते सरोवर का क्षेत्रफल पानी के सूखने से काफी कम हो जाता है। इससे उसमें मौजूद जीवन समाप्त प्राय: होने लगता है। गर्मी के बाद प्रकृति बदलती है और एक बार फिर से वही जीवन चक्र शुरू हो जाता है।

नल एक खास प्रकार की जैवविविधता को बचाये है। इस सरोवर में पिछली पक्षी गणनाएं बताती हैं कि नल में पक्षियों की संख्या साल दर साल बढ रही है। वर्ष 2002 में हुई गणना के मुताबिक यह संख्या 1.33 लाख थी। वर्ष 2004 में यह 1.84 लाख रही तो वर्ष 2006 में यह संख्या 2.52 लाख रही। वर्ष 2006 में बत्तख व हंसों की संख्या 1.19 लाख व क्रेक्स, रेहस व कूट की संख्या 82 हजार थी। इस सरोवर में प्रसिद्ध फ्लेमिंगो की संख्या 5820 आंकी गई।

कल का सागर आज का सरोवर

गुजरात के अहमदाबाद व सुंदर नगर जिलों से सटा नल सरोवर अभयारण्य अहमदाबाद से लगभग 65 किमी की दूरी पर है। सरोवर क्षेत्र में छोटे-बडे कुल 300 तक टापू हैं जिनमें से 36 ऐसे बडे टापू है जिनके अपने स्थानीय नाम हैं। नल की संरचना के बारे में भूगर्भवेताओं का मानना है कि जहां पर आज नल सरोवर है वह कभी समुद्र का हिस्सा था जो खंभात की खाडी को कच्छ की खाडी से जोडता था। भूगर्भीय परिवर्तनों से जब समुद्र पीछे चला गया तो यह एक बन्द संरचना में बदल गया। वर्षाकाल में जब यह भर जाता है तो 120 वर्ग किमी क्षेत्रफल की विशाल उथली झील में बदल जाता है। आकार में तब भले ही यह विशाल लगता हो किंतु इस सरोवर की गहराई अपने सर्वाधिक विस्तार के समय भी 2.5 मीटर से अधिक नही होने पाती है। इसका कारण यह है कि इससे अधिक मात्रा में जल इस बेसिन से बाहर बह निकलता है। शीतकाल आते-आते यह स्तर घट कर 1 से 1.5 मीटर तक रह जाता है।

क्या और कैसे देखे

नल सरोवर का परिवेश विशिष्ट प्रकार की वनस्पतियों, जल पक्षियों, मछलियों, कीट पतंगों व जीव-जंतुओं की शरण प्रदान करता है। 1969 में अभयारण्य का दर्जा मिलने के बाद से उठाए गए कदमों से इसमें मेहमान विदेशी व स्वदेशी पक्षियों की संख्या लगातार बढती जा रही है कभी कुछ हजार तक सीमित रहने वाली संख्या आज 2.5 लाख प्रतिवर्ष से ऊपर ही है। सरोवर क्षेत्र में 225 प्रकार के मेहमान पक्षी तक देखे गए हैं जिनमें से सौ प्रकार के प्रवासी जल पक्षी हैं। इसके अतिरिक्त सरोवर क्षेत्र में 19 प्रकार की मछलियां,11 प्रकार के सरीसृप, 13 स्तनपायी जानवर मिलने का पता चला है। इनमें से कुछ को घूमते हुए देखा भी जा सकता है। इन पक्षियों में हंस, सुर्खाब, रंग-बिरंगी बतखें, सारस, स्पूनबिल, राजहंस, किंगफिशर, प्रमुख हैं। इनकी बडी संख्या आपको सरोवर क्षेत्र में विचरित करती मिल जाएगी। कई बार यहां पर ऐसे पक्षी भी देखे गए हैं जिनको दुर्लभ की श्रेणी में रखा गया है।

सरोवर में मौजूद पक्षियों की जिंदगी में मानवीय आवागमन से अधिक हस्तक्षेप न हो इसके लिए एक निश्चित मार्ग से इस सरोवर में घूमने की अनुमति है। यही कारण है कि जैसे ही आप नल सरोवर के करीब पहुंचते है एक गहरी निशब्दता का अहसास होता है। नल के इर्द-गिर्द ऐसी गतिविधियों की इजाजत नहीं है जिनसे पक्षियों के विचरण में खलल पहुंचता हो। शोर न हो इसलिए सरोवर में मोटरबोट पूर्णतया प्रतिबंधित है। सरोवर की सैर के लिए यहां पर बांस के चप्पुओं से खेने वाली नावें सबसे उपयुक्त हैं जो हर वक्त उपलब्ध रहती है। ये नावें अलग-अलग क्षमता वाली होती है। जैसे ही आप सरोवर में आगे बढते है दूर-दूर मेहमान पक्षी नजर आने लगते हैं। पानी के अन्दर झांकने पर तलहटी में मौजूद जलीय जीवन भी आप देख सकते हैं। सरोवर में आपको निकटतम टापू तक ले जाया जाता है जिस तक आने जाने में दो से तीन घंटे तक लग जाते हैं। जाते समय पक्षियों की कलरव और नाव के पानी को चीरने की आवाज कानों को एक सकून सा प्रदान करती है।

सरोवर में नौका से भ्रमण से पहले अच्छा हो कि आप अभयारण्य प्रबन्धन द्वारा पार्क में लगे बोर्ड, अन्य डिस्प्ले माध्यमों से आगन्तुक पक्षियों व अभयारण्य के नक्शे आदि के बारे में जानकारी ले लें। अभयारण्य के प्रकाशनों से भी जानकारी ली जा सकती है। फिर भी अच्छा हो यदि नौका भ्रमण के समय एक गाइड भी साथ ले लें ताकि और जानकारी मिल सके। समीपवर्ती गांव के लोग ही यहां पर गाइड का काम करते हैं और एक विशेषज्ञ की तरह ही आपके प्रश्नों का उत्तर देते हैं।

यदि आप फोटोग्राफी के शौकीन हैं और यहां के पक्षियों की हलचल को कैमरे में कैद करना चाहते हैं तो इसके लिए आवश्यक है कि आपके पास टैलीलेंस युक्त कैमरा होना आवश्यक है। पक्षियों को करीब से देखने के लिए दूरबीन हो तो क्या बात है क्योंकि आगन्तुक पक्षी मनुष्य से कुछ दूरी बना कर रखते हैं। पर्यटक सरोवर के किनारे कुछ दूरी तक घुडसवारी का आनंद भी ले सकते है।

अंतरराष्ट्रीय पहचान दूर नहीं

नमक्षेत्र पशु-पक्षियों व वनस्पतियों के संरक्षण स्थल है जिनकी जैवविविधता को बचाने में अपनी अहम भूमिका होती है। वैश्विक जागरूकता के बाद से भारत में अब तक लगभग 600 नम भूमियों का पता लगाया जा चुका है। इनमें से अभी तक 25 नमभूमि क्षेत्रों को अंतरराष्ट्रीय मान्यता है शीघ्र ही इनमें गुजरात के दो नम भूमि क्षेत्र- नल सरोवर पक्षी अभयारण्य और कच्छ का छोटा रन जो भारतीय जंगली गधे का एकमात्र आवास स्थल है, भी सूची में जुडने जा रहे हैं। नल की मान्यता के बाद इसकी व्यवस्था में कुछ और सुधार होने की संभावना है। इसकी सीमा अधिक सुरक्षित हो सकेगी, झील पर आश्रित लोगों के पुनर्वास की दिशा में अधिक प्रगति होगी। झील के आसपास बसे गांवों की निर्भरता कम होने से पक्षियों को बेहतर वातावरण मिल सकेगा। इसके अतिरिक्त अभयारण्य को ग्रीष्मकाल में सूखने से बचाने की योजना भी है जिसके तहत इसमें नहर से सरदार सरोवर योजना से पानी देने की बात है।

ललित मोहन कोठियाल

नल सरोवर: कैसे पहुंचे

नल सरोवर आने के लिए आपको अहमदाबाद आना होता है जो देश के प्रमुख नगरों से अच्छी हवाई व रेल सेवा से जुडा है। वहां से बस या टैक्सी से नल सरोवर पहुंचा जा सकता है। साठ किमी दूरी को तय करने में डेढ घंटे लग ही जाते हैं। अभयारण्य की सीमा में गुजरात पर्यटन विकास निगम का एक गेस्ट हाउस है जो यहां पर एक रेस्तरां भी चलाता है। यहां पर रुक कर नल के शांत वातावरण का और लुत्फ लिया जा सकता है। एक दिन में यदि आप नल सरोवर के अलावा कुछ और देखना चाहते हों तो सरोवर की सैर के बाद 60 किमी दूर लोथल जा सकते है जहां सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष देखे जा सकते हैं और शाम में अहमदाबाद लौट सकते हैं।

अहमदाबाद एक आधुनिक नगर है जहां हर श्रेणी के पर्यटक के लिए हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध है। अहमदाबाद में रहकर कई स्थान देखे जा सकते हैं। गांधी जी के ऐतिहासिक आश्रम साबरमती के अलावा यहां अक्षरधाम मंदिर भी है। भारत की सबसे बडी साइंस सिटी अहमदाबाद में ही है। अहमदाबाद में कई मुगलकालीन दर्शनीय इमारतें भी हैं। यदि गुजरात की मेहमानवाजी, वहां के भोजन व संस्कृति से रूबरू होने का आपके पास कम समय है तो रात्रि में विशाला जा सकते हैं जहां पर आपको एक परिसर में सब कुछ देखने को मिल जाएगा।

वीराने में वसंत

फरवरी का एक-एक दिन बीतने के साथ बेचैनी बढ़ती जाती थी। बंद कमरे में चुपचाप पढ़ते रहने को दिल नहीं करता था और किसी के घर चले जाना निषिद्ध सा बना हुआ था। कभी हिम्मत करके जाओ तो कहने-सुनने को दोनों तरफ से ही कोई बात नहीं होती थी। चुप्पी की एक चादर बीच में तनी रहती थी। कोई भी बात शुरू करो, पता नहीं कैसे घूम-फिर कर वहीं पहुंच जाती थी जहां कोई भयंकर नस तड़-तड़ तड़क रही होती थी।

एक सुबह तय किया कि आज तो निकल ही जाना है। गणित पढ़ने में वैसे भी कुछ खास झंझट नहीं है। एक पतली किताब में चार-छह सादे पन्ने खोंसो, कलम जेब में डालो और कहीं भी जम जाओ। इतने दिन से शहर के इस इलाके में रह रहा था लेकिन आने-जाने का रास्ता कमोबेश एक ही बना हुआ था। यहां से निकलकर शहर के बीच की दो-चार जगहें, फिर वापस यहीं। सोचा, आज उल्टी तरफ चलते हैं।

थोड़ी दूर चलते ही खेत शुरू हो गए। धूप को अपने रंग में रंगते सरसों के गहबर फूलों और गेहूं की कचर हरियर दुद्धी बालियों से लदे हुए पानी से गदबद खेत। दिल किया, यहीं कहीं रुक जाते हैं। सड़क से किनारे होकर एक ट्यूबवेल की तरफ बढ़ा कि वहां थोड़ी सूखी जमीन मिल जाएगी। कि तभी हल्ला सा मचा और कई लोग छत से कूद-कूद कर बगटुट भागते नजर आए। वहां वे चैन से बैठे जुआ खेल रहे थे और मुझे देखकर डर गए थे। उनके खेल में खलल डालना ठीक नहीं लगा।

वापस सड़क पर आ गया और शहर की उल्टी दिशा में सीधे बढ़ता चला गया। ट्रैफिक नहीं के बराबर था। सड़क अपने आप मुड़ती हुई किधर जा रही है, इसका कोई भान नहीं था। अचानक सामने ढलान दिखी। तीखा मोड़ काटती हुई मंथर बहती नदी आगे राह रोके खड़ी थी।

आजमगढ़ शहर में टौंस नदी ऐसे ही चौंकाती है। सांप जैसी शक्ल में यह शहर को तीन तरफ से घेरे हुए है और इसके हर मोड़ पर कोई न कोई रहस्य छिपा है। यह कोई गहरी नदी नहीं है। फरवरी के महीने में कुछ जगहों से आप इसे बिना अपना अंडरवियर भिगोए पार कर सकते हैं। मुझे लगा कि कोई थ्योरम हल करने की तुलना में यह काम कहीं ज्यादा जरूरी है।

नदी के उस पार बहुत सारे कुत्ते थे- भागादौड़ी का शाश्वत खेल खेलते हुए। उनके पेट भरे हुए थे और अपने बीच दो पैरों से चलने वाला एक जानवर पाकर वे रत्ती भर भी प्रभावित नहीं हुए थे। आसपास राख, हंड़िया और एक-दो चिरे हुए बांस भी दिख रहे थे। शायद इस जगह का इस्तेमाल मुर्दे जलाने में होता हो, जिनके जल चुकने के बाद बची हुई चीजें कुत्तों के काम आती हों।

उधर वाले तट की चढ़ाई कुछ ज्यादा खड़ी थी। ऊबड़-खाबड़ बलुअर जमीन खेती के लिए मुफीद नहीं थी, शायद इसीलिए लालच की चोट भी उसपर कम पड़ी थी। खेत थे, लेकिन दूर-दूर थे। पेड़ और झाड़ियों ने तब तक उनसे हार नहीं मानी थी। चारो तरफ वीरानी थी। लेकिन 'वीरानी सी वीरानी' यह नहीं थी। जिंदगी यहां अलग ही लय में भरपूर धड़क रही थी। यहां के पेड़ों में लंबी पीली दुम वाले तोतों के घर थे। नीले-सफेद फूलों भरी जंगली झाड़ियों में टिड्डे फुदक रहे थे। झींगुरों की झूं-झूं और दूर शहर की घूं-घूं को रगेदती कठफोड़वे की ठक-ठक ही यहां की सबसे ऊंची आवाज थी।

कुछ ऊंचाइयां और ढलानें और पार करके यहां मैंने हठयोगियों, नाथपंथियों या शायद बौद्धों के काम आने वाली छोटी-छोटी गिरी-पड़ी कोठरियों से भरी, लाहौरी ईंटों से बनी एक बहुत पुरानी इमारत खोज निकाली। एक संदेहास्पद बाबा ने कुछ गोल पत्थर गाड़कर इसे शिवमंदिर बना डाला था। उस साल की शिवरात्रि पर बाबा के ठंढई प्रसाद के असर में की गई गणित की 'मौलिक खोजें' तो नशा उतरते ही साफ हो गईं लेकिन जगह का खुमार जेहन पर आज भी तारी है।

साभार - पहलू
http://pahalu.blogspot.com/2008/02/blog-post_26.html

बाढ़ प्रबंधन का नायाब सूत्र दिया दसवीं के छात्र ने

जहानाबाद/मखदुमपुर । एक तरफ नदियों को जोड़कर कुशल जल प्रबंधन के लिए तमाम सरकारें मगजमारी कर रही है वहीं दूसरी ओर दसवीं कक्षा के छात्र ने अपने बूते एक ऐसा प्रोजेक्ट तैयार किया है अगर उसे अमल में लाया गया तो निश्चित तौर पर एक नयी क्रांति का सूत्रपात हो सकता है। मखदुमपुर प्रखंड अंतर्गत खलकोचक गांव निवासी नंदकिशोर प्रसाद शर्मा का पुत्र वेद निधि ने 'गागर में सागर' की कहावत को चरितार्थ करते हुए छोटी सी उम्र में ही नदियों को जोड़ने का कंसेप्ट दिया है। उससे बाढ़ और सुखाड़ की समस्या का समाधान तो होगा ही उससे छोटे स्तर पर जल विद्युत संयंत्र लगाकर बिजली उत्पादन करने, बड़े बांधों से होने वाले नुकसान से बचाव तथा नदी के पानी को लेकर राज्यों के बीच होने वाले विवाद से भी बचा जा सकेगा। उग्रवादी घटनाओं से त्रस्त मगध की धरती पर फसलें लहलहायेंगी और किसानों की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ होगी। वेद निधि के इस प्रोजेक्ट को सिंचाई विभाग के कार्यपालक अभियंता रामतवकल सिंह ने भी सराहते हुए उसके सकारात्मक सोंच की तारिफ की और कहा कि सरकार भी नदियों को जोड़ कर सिंचाई के साधन को दुरुस्त करने पर विचार कर रही है। कड़ी मेहनत और लगन के पश्चात तैयार की गयी इस प्रोजेक्ट के लिए वेद निधि को 35वीं राज्य स्तरीय जवाहर लाल नेहरु बाल विकास प्रदर्शनी 2007-08 में द्वितीय पुरस्कार मिला। इसके उपरांत 15 से 19 जनवरी तक कलकत्ता में आयोजित पूर्वी भारत विज्ञान मेला 2008 में भी वह भाग लिया। जहां उसके प्रोजेक्ट की सराहना की गयी। काको प्रखंड के बढ़ौना गांव स्थित मामा ब्रजेश कुमार के घर रहकर वहीं उच्च विद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहे वेद निधि ने प्रयोग के तौर पर सर्वप्रथम सोन और फल्गु नदी को जोड़ने के लिए प्रदर्श तैयार किया। उसकी सोंच है कि सोन नदी का अनावश्यक पानी गंगा नदी में जाकर उतर बिहार में बाढ़ का संकट लाती है जिसपर सरकार को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च करनी पड़ती है। अगर सोन के पानी को कैनाल के माध्यम से फल्गु नदी में गिराया जाता है तो इससे बाढ़ की विभिषिका से तो बचा ही जा सकेगा साथ ही मगध की भूमि को सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी भी मिल सकेगा। उससे बिजली का भी उत्पादन हो सकेगा और भूमिगत जल के अत्याधिक क्षय को रोका जा सकेगा। इसके तहत सोन नदी के बिहार में प्रवेश करते ही सासाराम के आसपास से बोध गया के पास फल्गु नदी को कैनाल के माध्यम से जोड़ा जाए। कैनाल के उद्गम स्थल पर सोन नदी में चेक डैम और वाटर इलेक्ट्रीक प्लांट लगाकर जहां एक ओर बिजली उत्पादन की जा सकेगी वहीं पानी के धार को कैनाल की ओर मोड़ा भी जा सकेगा साथ ही सोन में छोटे-छोटे अवरोध खड़े किये जाएं ताकि अत्याधिक जल की अवस्था में सोन के जल को फल्गु की ओर मोड़ा जा सके। इसके बाद नहर एवं जल निकासी के अन्य रास्तों में भी गहरे कुएं बनाये जायें जिसे ताकि अतिरिक्त जल को भूमि के अंदर भेजा जा सके। फल्गु नदी में एक छोटा सा बांध बनाकर उसके जल को मुहाने नदी की ओर मोड़ दिया जाए। सोन में भी पानी की अधिकता को रोकने के लिए जल ग्रहण क्षेत्रों में भूमिगत जल को पुर्नसंधारण के लिए कुंए के निर्माण का कंसेप्ट दिया है।

निर्मल गंगा

यह निराशाजनक है कि उत्तर प्रदेश में गंगा की साफ-सफाई के लिए एक नई योजना विचाराधीन तो बताई जा रही है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं कि वह किस तरह कार्य करेगी? आपरेशन निर्मल गंगा नामक इस योजना को अमल में लाने के राज्य सरकार के इरादे को देखते हुए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पहले से चल रही गंगा कार्य योजना का क्या होगा? आखिर यह क्यों न मान लिया जाए कि अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा कार्य योजना असफल सिद्ध हो चुकी है? सच्चाई जो भी हो, केवल नाम बदलने भर से किसी योजना की सफलता के प्रति सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। यदि राज्य सरकार वास्तव में आपरेशन निर्मल गंगा योजना को अमल में लाने जा रही है तो उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसे उन खामियों से मुक्त रखा जाए जिनके चलते गंगा कार्य योजना असफल साबित हुई। विगत दिवस विधानसभा में नगर विकास मंत्री गंगा कार्य योजना और विचाराधीन आपरेशन निर्मल गंगा को लेकर जिस तरह विपक्ष का निशाना बने उससे तो यही लगता है कि गंगा की साफ-सफाई राज्य सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। ऐसा संकेत तब मिल रहा है जब पिछले कुछ समय से गंगा नदी अपने प्रदूषण के कारण लगातार चर्चा में है।
बात केवल गंगा नदी की ही नहीं है, यमुना का प्रदूषण भी कम घातक नहीं। सच तो यह है कि गंगा और यमुना के साथ-साथ अन्य नदियां भी बुरी तरह प्रदूषित हैं। उदाहरण के लिए चंबल, गोमती और हिंडन जैसी नदियों में प्रदूषण का स्तर इस कदर बढ़ गया है वे गंदे नाले में तब्दील होती जा रही हैं। बेहतर हो कि राज्य सरकार नदियों की सफाई के लिए नई योजना के फेर में पड़ने के स्थान पर उस राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करे जो नदियों को साफ-सुथरा रखने के लिए जरूरी है। गंगा समेत दूसरी नदियों के प्रदूषण के कारण किसी से छिपे नहीं, लेकिन विडंबना यह है कि उन्हें दूर करने के नाम पर खानापूरी ही अधिक की जा रही है। क्या कारण है कि नदियों के जल को विषाक्त बनाने वाले उद्योगों पर प्रभावशाली तरीके से अंकुश नहीं लगाया जा पा रहा? जब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं होती तब तक नदियों को साफ-सुथरा बनाने की योजनाओं की सफलता संदिग्ध ही रहेगी।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]

जलवायु परिवर्तन के कारण चीन में तेजी से पिघल रहे हैं हिमनद

लांझोउ (चीन), 15 दिसम्बर (आईएएनएस)। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पिछले पांच वर्षों में पश्चिमी चीन के क्षेत्रों में हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस दौरान पश्चिमी चीन में सात से 18 फीसदी हिमनद पिघल चुके हैं।
इस वर्ष मई में चीन के विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय और चीनी एकेडमी ऑफ साइंसेज (सीएएस)की ओर से शुरू किए गए इस सर्वेक्षण में देश के एक तिहाई क्षेत्रफल को शामिल किया गया था। करीब 20 हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे में किए गए इस सर्वेक्षण से पता चला है कि देश के इस इलाके में हिमनदों में से औसतन 7.4 फीसदी हिमनद पिघल चुके हैं। सर्वेक्षण को पूरा होने में पांच वर्षों का समय लगेगा।
सर्वेक्षण से पता चला है कि जुंग्गर बेसिन, उत्तरी ज् िानिजियांग के इली नदी के इलाके में और तिब्बत में यारलुंग जैंगबो नदी के समीप हिमनद सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। इन क्षेत्रों में 18 फीसदी से भी अधिक हिमनद पिघल चुके हैं।
सीएएस के शोध फेलो डिंग योंगजियान ने कहा, ''हिमनदों का पिघलना जलवायु परिवर्तन का परिणाम है।'' जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले कुछ दशकों में पश्चिमी चीन में तापमान में बढ़ोतरी हुई है। इस वजह से हिमनद पिघल रहे हैं।
गौरतलब है कि चीन में करीब 46 हजार हिमनद हैं जो 60 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। पृथ्वी पर मध्य और निम् अंक्षाशों में पाए जाने वाले हिमनदों का 50 फीसदी चीन में ही पाया जाता है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

नैनो तकनीक से मिलेगा स्वच्छ पानी!

न्यूयार्क, 21 फरवरी (आईएएनएस)। आधुनिक जीवन की सुविधाओं को बेहतर और सरल बनाने वाली 'नैनोटेक्नोलोजी' अब बेहद कम कीमत पर साफ और स्वच्छ पानी भी उपलब्ध करवाएगी। यह संभव होगा नैनो तकनीक पर आधारित फिल्टर के द्वारा।

विकास के क्षेत्र में काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था 'युनेस्को' की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन 6000 से ज्यादा लोग पानी से होने वाली हैजे जैसी बीमारियों के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। विकासशील देशों में पीने का पानी एक सामाजिक-आर्थिक समस्या बन गया है।

इस स्थिति के मद्देनजर दक्षिण आस्ट्रेलिया के 'वार्क अनुसंधान संस्थान' के अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार 'नैनो तकनीक' इस मायने में सरल, किफायती और बेहतर विकल्प उपलब्ध करवा सकती है।

'इंटरनेशनल जर्नल आफ नैनोटेक्नोलोजी' में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार स्वच्छता के लिए काम आने वाले सिलिका धातु के छोटे कणों को इस तकनीक से लैस कर बेहतर ढंग से हानिकारक कीटाणुओं को हटाया जा सकता है।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

पानी का निजीकरण और सरकारी रवैया

संदीप पांडे
आलेख. जल जैसे प्राकृतिक संसाधन, जो पूरे समाज के उपयोग के लिए उपलब्ध हैं तथा जिन पर समाज का सामूहिक स्वामित्व है, के प्रति सरकारों के नजरिए में परिवर्तन आ गया है। अब इसको एक ऐसे संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है जिसका व्यावसायिक मुनाफे के लिए दोहन किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में क्षेत्रीय भू-गर्भ जल स्तर में न सिर्फ गिरावट आ रही है, बल्कि उसके जहरीले होने के मामले भी सामने आ रहे हैं।
पिछले वर्ष अक्टूबर माह में उत्तरप्रदेश के बलिया जिले में स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र के बाहर स्थानीय ग्रामीणों ने धरना दिया हुआ था। वे जानना चाहते थे कि यह कारखाना अपने खतरनाक कचरे का निपटारा कैसे करता है?
ज्ञात हो कि 2005 में केरल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पलक्कड़ जिले में स्थित प्लाचीमाडा गांव के कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र को बंद करने का आदेश दिया था क्योंकि इस कारखाने से निकलने वाले कचरे में कैडमियम, क्रोमियम व लैड जैसे तत्व पाए गए थे जिनसे भू गर्भ जल के जहरीले होने का खतरा था।
ऐसे में बलिया के किसानों के लिए यह जानना जरूरी था कि उनके गांव में स्थित कोकाकोला संयंत्र कहीं रासायनिक कचरा भूगर्भ में तो नहीं दफना रही है? वहां ग्रामीणों को पुलिस अधीक्षक के स्तर पर निरीक्षण की अनुमति तो दी गई, लेकिन ऊपरी दबाव के आगे फिर रद्द कर दी गई।
कोकाकोला व पेप्सी कंपनियों के भारत में 90 के ऊपर बॉटलिंग संयंत्र हैं, जो प्रत्येक जगह से रोजाना 15 से 20 लाख लीटर पानी का दोहन करते हैं। इन कंपनियों द्वारा एक लीटर शीतल पेय बनाने के लिए छह से दस लीटर पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
लगातार इतने पानी के दोहन की वजह से उन इलाकों में जहां ये बॉटलिंग संयंत्र स्थित हैं, भूगर्भ जल स्तर में तेजी से गिरावट आई है। प्लाचीमाडा में तो संयंत्र के आसपास के गांवों में कोकाकोला टैंकरों से पीने के पानी की आपूर्ति करती है। भूगर्भ जल पीने, नहाने, खाना बनाने अथवा कपड़े धोने लायक भी नहीं रह गया है।
मेहदीगंज, वाराणसी स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र से तीन किमी के दायरे में स्थित प्रत्येक जलस्रोत का सर्वेक्षण करने पर यह मालूम हुआ कि 1996-2006 के दौरान भूगर्भ जलस्तर में 18 फीट की गिरावट आई है जबकि 1986-96 के दौरान यह गिरावट मात्र 1.6 फीट थी। कुओं व तालाबों के सूख जाने पर बड़ी संख्या में हैंडपंप लगाए गए हैं।
1996 में यहां सिर्फ 45 हैंडपंप थे, जबकि 2006 में इनकी संख्या बढ़कर 220 तक पहुंच गई। स्पष्ट है कि जल की उपलब्धता का संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है। दर्जन भर गांवों में राजकीय व निजी नलकूपों से पानी निकलना बंद हो चुका है तथा एक चौथाई हैंडपंप भी जवाब दे चुके हैं।
ऐसा प्रस्ताव था कि बिना अनुमति के इस इलाके में हैंडपंप या नलकूप लगाने पर रोक लगाई जाए। कृषि या पेयजल की जरूरत को पूरा करने के लिए तो ऐसी अनुमति देने पर विचार किया जा सकता है, किंतु कोकाकोला कंपनी द्वारा व्यावसायिक उद्देश्य से जल दोहन पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।
यही नहीं पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, देहरादून द्वारा मेहदीगंज, वाराणसी स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र के आसपास के भूगर्भ जल, सतही जल व मिट्टी के नमूनों की जांच करने पर यह पाया गया कि जल के ज्यादातर नमूनों में कैडमियम व क्रोमियम आपत्तिजनक मात्रा में विद्यमान हैं।
ऐसी आशंका है कि कोकाकोला अपना विषैला कचरा भूगर्भ जल में ही दफना रहा है जिसकी वजह से आसपास के ग्रामीणों के लिए पेयजल के विषाक्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। मिट्टी में भी लैड, कैडमियम व क्रोमियम पाए गए।
जल के निजीकरण का सबसे हास्यास्पद किंतु गंभीर मामला रायपुर से है जहां मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड ने एक स्थानीय निजी कंपनी रेडियस वॉटर लिमिटेड को 20 वर्षो की अवधि के लिए व्यावसायिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से राज्य का एक प्रमुख जलस्रोत व नैसर्गिक साधन शिवनाथ नदी पूर्णरूपेण हस्तांतरित कर दिया।
राज्य शासन की अनुमति के बिना रुपए 500 लाख से अधिक की जल प्रदाय योजना की परिसंपत्तियां निजी कंपनी को लीज पर मात्र एक रुपए के प्रतीकात्मक मूल्य पर सौंप दी गई थीं यानी प्रकृति से निशुल्क जल प्राप्त कर उसे बोतल में बंद कर बेच देना अब एक वैध व्यावसायिक गतिविधि है।
कोकाकोला व पेप्सी खुद किनले व एक्वीफिना नाम से बोतलबंद पानी का व्यापार करती हैं। इसलिए इनके कारखानों के खिलाफ तमाम शिकायतें होते हुए भी इन कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करवाना बहुत मुश्किल हो गया है।
इन देशी-विदेशी निजी कंपनियों ने हमारी शासन-प्रशासन व्यवस्था में जबदस्त घुसपैठ की है तथा हमारे राजनेताओं व अधिकारियों की सोच बदली है, यह प्रक्रिया अत्यंत खतरनाक है। एक प्राकृतिक संसाधन व आम जनता का उस पर पारंपरिक अधिकार कुछ मुनाफा कमाने की सोच से प्रेरित निहित स्वार्थ वाला वर्ग छीनना चाहता है। यदि जनता जागरूक न रही तो उसके जीवन का एक प्रमुख आधार देखते ही देखते उसके हाथों से निकल जाएगा।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
साभार - भाष्कर

नया राज्य और नदी के नए जागीरदार - नदिया बिक गई पानी के मोल-३

आलोक प्रकाश पुतुल जी का “नदिया बिक गई पानी के मोल” आलेख श्रृंखला पानी के अर्थशास्त्र और राजनीति पर एक गंभीर प्रकाश डालता है। आलोक जी को बहुत-बहुत धन्यवाद.- मीनाक्षी
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आलोक प्रकाश पुतुल
तीसरी किस्त । पहले की दो किस्तें यहाँ पढ़ें
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अब शिवनाथ पर एनिकट बनाने और पानी आपूर्ति का जिम्मा रेडियस वाटर लिमिटेड पर था. इस पूरी प्रक्रिया के संपन्न होने तक शिवनाथ नदी मध्य प्रदेश के बजाय नए राज्य छत्तीसगढ़ का हिस्सा बन चुकी थी और अब शिवनाथ पर रेडियस वाटर लिमिटेड का कब्जा था. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर अब छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी) में तब्दील हो चुका था.
रेडियस ने देखते ही देखते शिवनाथ नदी के 22.7 किलोमीटर हिस्से पर घेराबंदी शुरु कर दी. नदी किनारे की 176 एकड़ जमीन के अलावा हजारो वर्गफीट जमीन पर रेडियस वाटर लिमिटेड ने अपना साम्राज्य जमा लिया था.
औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के बोरई स्थित सारे संसाधनों पर एक रुपए में कब्जा जमा कर उसी संसाधन से रेडियस वाटर लिमिटेड ने पहले महीने से ही औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर यानी
छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी) से 4 एमएलडी पानी की कीमत 15 लाख 12 हजार रुपए वसुलना शुरु किया. यानी बिना एक रुपए की पूंजी लगाए रेडियस ने राज्य सरकार से पहले ही साल एक करोड़ 81 लाख 44 हजार रुपए का भुगतान प्राप्त कर लिया.
बाद के सालों में जब अनुबंध के अनुसार रेडियस ने प्रति हजार लिटर पानी के लिए 15.02 रुपए छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी) से वसुलना शुरु किया तो इस अनुबंध के भ्रष्टाचार खुल कर सामने आने लगे. बोरई में केवल दो उद्योग थे और उन्हें 2.4 एमएलडी से अधिक पानी की आवश्यकता कभी होनी ही नहीं थी, जबकि छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन को 4 एमएलडी पानी का भुगतान अनिवार्य था. इसके अलावा छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन जिन उद्योगों को पानी की आपूर्ति कर रहा था, उनसे प्रति हजार लिटर पानी के लिए केवल 12 रुपए ही लेने का अनुबंध था. यानी रेडियस से पानी लेने और उद्योगों को पानी देने में प्रति हजार लीटर पानी में 3.02 रुपए का घाटा छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन को भुगतना अनिवार्य था.
शिवनाथ के आसपास बसे अधिकांश गांवों के लिए पानी का मुख्य स्रोत नदी ही रही है. लेकिन इस नदी पर रेडियस वाटर लिमिटेड के कब्जे के बाद शिवनाथ के किनारे बसे गांवों को नदी के इस्तेमाल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया. जिस नदी का अब तक कोई भी निःशुल्क इस्तेमाल कर सकता था, उसमें नहाने या उसके पानी से सिंचाई करने पर रोक लगा दी गई. कई पीढ़ियों से इस नदी में मछली मारने वाले सैकड़ों मछुवारों को इस इलाके से भगा दिया गया. पालतु पशुओं के लिए पानी का संकट पैदा हो गया. यहां तक कि नदी किनारे की चारागाह के रुप में इस्तेमाल होने वाली जमीन भी एनिकट के लिए पानी रोके जाने के कारण डूब क्षेत्र में आ गई. गांव के लोगों को रेत भी दूसरे इलाकों से मंगाने की नौबत आ गई. नदी किनारे बोर्ड लगा दिया गया- “ नदी में नहाना और मछली पकड़ना सख्त मना है. इससे जान को खतरा हो सकता है.”
गांव के हजारों किसान हतप्रभ रह गए. कल तक जो नदी सबकी थी, अब उस पर एक निजी कंपनी के अधिकार ने चौंका दिया. नदी किनारे बसे मोहलाई के सरपंच बठवांराम टंडन आक्रोश के साथ कहते हैं-“ यह कैसा पंचायती राज्य है, जहां गांव वालों से पूछे बिना नदियां तक बेच दी गईं. कल को ये सरकारें सूरज की रोशनी और हवा भी बेच देंगी तो हमें अचरज नहीं होगा.”
नदी और पानी को बेचने की इस साजिश के खिलाफ इस इलाके में लगातार सक्रिय नदी घाटी मोर्चा के संयोजक गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं- “ रेडियस ने गांवों में हैंडपंप का इस्तेमाल करने और नए कुएं खोदे जाने पर भी पाबंदी लगा दी. कंपनी के कारिंदे गांव में घुम-घुम कर गांव वालों को डराने लगे. सिंचाई करने वाले किसानों के पंप रेडियस ने जप्त कर लिए.”
मोहलाई, खपरी, रसमरा, सिलोदा, महमरा जैसे गांवों का एक जैसा हाल हुआ. लेकिन इससे भी बुरा हाल उन गांवों का था, जो बोरई एनिकट के नीचे वाले हिस्से में बसे थे. चिरबली, नगपुरा, मालूद, झेरनी, पीपरछेड़ी, बेलोदी के किसानों का संकट ये था कि बांध के कारण सारा पानी ऊपर ही रुक जा रहा था और शिवनाथ के नीचे का पूरा हिस्सा सूख गया.
गरमी के दिनों में जब हाहाकार मचा तो गांव के लोग संगठित होने लगे. नदी घाटी मोर्चा ने दुर्ग से रायपुर और दिल्ली तक आंदोलन शुरु किया. धरना, जुलूस, सड़क जाम, प्रदर्शन और घेराव की रणनीति बनाई गई।
जारी

वर्तमान में जल संरक्षण आवश्यक : डीएम

गाजियाबाद, जिलाधिकारी अजय कुमार शुक्ला ने कहा कि मानव जाति के बने रहने के लिए जल आवश्यक है। उन्होंने कहा कि एक तरफ तेजी से बढ़ रहे औद्योगिकीकरण से जल प्रदूषित हो रहा है वहीं दूसरी तरफ वातावरण गर्म होने के कारण बरसात भी कम हो रही है। यदि आज ही शहर से लेकर गांव तक जल संरक्षण अभियान नहीं चलाया गया तो भविष्य अंधकारमय हो सकता है। श्री शुक्ला भूगर्भ जल दिवस पर आयोजित गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गाजियाबाद जिला गंगा-जमुना के मध्य में होने, नहरों के बावजूद जमीरी पानी का स्तर लगातार गिर रहा है। इससे स्थिति गंभीर हो रही है। जिले की सामान्य वर्षा 648.65 मिमी तथा बगैर मानसून की वर्षा 105.20 मिमी वार्षिक है। जिले में कुल 98154.45 हे.मी भूगर्भ जल उपलब्ध है जिसमें से 71903.36 हे.मी. भूजल का सिंचाई के लिए दोहन होता है। जिलाधिकारी ने कहा कि घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए 25 वर्ष बाद 50128.68 हे.मी. भूजल की आवश्यकता होगी जबकि वर्तमान आवश्यकता 30808.29 हे.मी. है। 25 वर्ष बाद कुल 26251.09 हे.मी. जल सिंचाई के लिए मिल पाएगा। उन्होंने बताया कि जिले के आठ ब्लाकों में से लोनी व हापुड़ अभी सेमीक्रिटिकल स्थिति में हैं, जबकि शेष छह सुरक्षित स्थिति में हैं। उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि लोनी व रजापुर में प्रति वर्ष 10 से 20 सेमी भूजल में गिरावट आ रही है। अजय कुमार शुक्ला ने कहा कि जिले में सभी हैंडपंपों के सोख्ते बनाए जाएं, नहरों के आसपास के तालाबों को भरा जाए, सरकारी और गैर सरकारी 200 वर्ग मीटर वाले भवनों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाये जाएं। इसका उल्लंघन करने वालों को दंडित किया जाए। उन्होंने जीडीए व नगर निगम को इस संबंध में अपने दायित्वों का निर्वहन करने को कहा। जिला विकास अधिकारी वाई.एन. उपाध्याय ने कहा कि जिले के सभी 1428 तालाबों का संरक्षण व पुनरुद्धार किया जा रहा है। जिला पंचायत राज अधिकारी वी.बी. सिंह ने बताया कि प्रधानों की तीन दिवसीय गोष्ठी में जल संरक्षण का प्रशिक्षण दिया जाएगा। गोष्ठी में क्षेत्रीय प्रदूषण अधिकारी के साथ ही जल निगम, लोनिवि, विद्युत विभाग के अधिकारी भी उपस्थित थे।
साभार - http://a2zghaziabad.blogspot.com/

हरियाणा के 45 खण्डों में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है

करनाल, केन्द्रीय भूजल बोर्ड की उतरी पश्चिमी क्षेत्र के क्षेत्रीय निदेशक सुशील गुप्ता ने आज कहा कि हरियाणा के 45 खण्डों में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है ओर केन्द्र ने इन खण्डों को अतिशोषित क्षेत्र घोषित किया है। इनमें करनाल जिले के सभी छ: विकास खण्ड भी शामिल हैं। भविष्य में इन क्षेत्रों में पानी की भारी किल्लत हो सकती है। श्री गुप्ता आज यहां लघु सचिवालय में भूजल सूचना पुस्तिका के विमोचन अवसर पर अधिकारियों को सम्बोधित कर रहे थे। केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा प्रकाशित इस पुस्तिका का विमोचन जिलाधीश बी.एस.मलिक ने किया। पुस्तिका में करनाल जिले में भूजल स्तर की स्थिति और इसके नीचे जाने के खतरे से निपटने के उपायों पर चर्चा की गई। घटते भूजल स्तर पर चिन्ता व्यक्त करते हुए क्षेत्रीय निदेशक श्री गुप्ता ने कहा कि करनाल खण्ड को 2003 में भूजल के मामले में पहले ही डार्क एरिया अधिसूचित किया जा चुका है तथा शीघ्र ही 5 अन्य खण्डों को भी डार्क एरिया अधिसूचित कर दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि ऐसे क्षेत्रों में केन्द्रीय सरकारी एथारिटी की आज्ञा के बिना नए टयूववैल नही लगाए जा सकते। उन्होंने जिला प्रशासन को सुझाव दिया कि जिले में लगे सभी टयूववैलों का सर्वे करवाकर उन्हे रजिस्टर किया जाना चाहिए ताकि भूजल के प्रयोग की पूरी जानकारी बोर्ड को मिल सके। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि करनाल जिला यमुना नदी के किनारे है, इसलिए यहां यमुना के वर्षो के दिनों में आए अतिरिक्त पानी का प्रयोग किया जाना चाहिए और इस पानी को संरक्षित भी किया जा सकता है। जिलाधीश बी.एस.मलिक ने पानी की बचत पर बल देते हुए कहा कि भूजल के रीचार्ज के लिए जिले में हर सम्भव उपाय किए जायेगे। उन्होंने कहा कि सभी सरकारी भवनो, व्यवसायिक परिसरों में पानी के रीचार्ज के लिए प्लांट लगाए जायेंगे तथा 500 गज या इससे अधिक प्लाट धारकों को भी घर में रीचार्ज प्लांट लगाने को आवश्यक बनाया जाएगा। गांवों में भूजल को रीचार्ज करने के लिए जोहडों को गहरा किया जाएगा। उन्होंने पंचायत अधिकारियों को निर्देश दिए कि जोहडों को साफ करवाया जाए और उनमें पडा पोलिथीन निकलवाया जाए, क्योकिं पोलिथीन की वजह से पानी जमीन में नही समा सकता। उन्होंने जिले के किसानों से भी कहा कि वे फसल विविधिकरण को अपनाएं क्योंकि इनमें पानी का कम खर्च होता है। उन्होंने किसानों से कहा कि साठी धान ना लगाए ,इसमें पानी का खर्च बहुत अधिक होता है। श्री मलिक ने लोगों को आगाह किया कि भूजलस्तर इतना घट चुका है कि यह समस्या गम्भीर रूप धारण कर चुकी है। उन्होंने कृषि विभाग के उप निदेशक को जिले के टयूववैलों का सर्वे करने को कहा और इस कार्य के लिए उन्हे नोडल अधिकारी बनाया। उन्होंने राजस्व विभाग, पंचायत विभाग ,सिंचाई विभाग तथा नगरपालिका के अधिकारियों को निर्देश दिए कि इस कार्य में कृषि विभाग का सहयोग करें। उन्होंने अधिकारियों को यह भी निर्देश दिए कि वे अपने स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में गिरते भूजल स्तर के प्रति लोगों को सचेत करें और इससे निपटने के तरीके बनाएं। उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति को इस कार्य में योगदान देना होगा ताकि आने वाली पीढियां पानी से वचिंत न रहे।

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