राजस्थान की प्रमुख झीलें

राहुल तनेगारिया

राजस्थान में मीठे पानी और खारे पानी की दो प्रकार की झीलें हैं। खारे पानी की झीलों से नमक तैयार किया जाता है। मीठे पानी की झीलों का पानी पीने एंव सिंचाई के काम में आता है।

मीठे पानी की झीले -राजस्थान में मीठे पानी की झीलों में जयसमन्द, राजसमन्द, पिछोला, आनासागर, फाईसागर, पुष्कर, सिलसेढ, नक्की, बालसमन्द, कोलायत, फतहसागर व उदयसागर आदि प्रमुख है।

१) जयसमन्द - यह मीठे पानी की सबसे बड़ी झील है। यह उदयपुर जिले में स्थित है तथा इसका निर्माण राजा जयसिंह ने १६८५-१६९१ ई० में गोमती नदी पर बाँध बनाकर करवाया था। यह बाँध ३७५ मीटर लंबा और ३५ मीटर ऊँचा है। यह झील लगभग १५ किलोमीटर लंबी और ८ किलोमीटर चौड़ी है। यह उदयपुर से ५१ किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इसमें करीब ८ टापू हैं जिसमें भील एंव मीणा जाति के लोग रहते हैं।

इस झील से श्यामपुर तथा भाट नहरे बनाई गई हैं। इन नहरों की लंबाई क्रमश: ३२४ किलोमीटर और १२५ किलोमीटर है।

इस झील में स्थित बड़े टापू का नाम 'बाबा का भागड़ा' और छोटे टापू का नाम 'प्यारी' है। इस झील में ६ कलात्मक छतरियाँ एंव प्रसाद बने हुए हैं जो बहुत ही सुन्दर हैं। झील पहाड़ियों से घिरी है। शांत एंव मनोरम वातावरण में इस झील का प्राकृतिक सौंदर्य मनोहरी है जो पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है।

२) राजसमन्द - यह उदयपुर से ६४ किलोमीटर दूर कांकरौली स्टेशन के पास स्थित है। यह ६.५ किलोमीटर लंबी और ३ किलोमीटर चौड़ी है। इस झील का निर्माण १६६२ ई० में उदयपुर के महाराणा राजसिंह के द्वारा कराया गया। इसका पानी पीने एंव सिचाई के काम आता है। इस झील का उत्तरी भाग नौ चौकी के नाम से विख्यात है जहां संगमरमर की २५ शिला लेखों पर मेंवाड़ का इतिहास संस्कृत भाषा में अंकित है।

३) पिछोला झील - यह उदयपुर की सबसे प्रसिद्ध और सुन्दरतम् झील है। इसके बीच में स्थित दो टापूओं पर जगमंदिर और जगनिवास दो सुन्दर महल बने हैं। इन महलों का प्रतिबिंब झील में पड़ता है। इस झील का निर्माण राणा लाखा के शासन काल में एक बंजारे ने १४वीं शताब्दी के अंत में करवाया था। बाद में
इसे उदय सिंह ने इसे ठीक करवाया। यह झील लगभग ७ किलोमीटर चौड़ी है।

४) आनासागर झील - ११३७ ई० में इस झील का निर्माण अजमेर के जमींदार आना जी के द्वारा कराया गया। यह अजमेर में स्थित है। यह दो पहाड़ियों के बीच में बनाई गई है तथा इसकी परिधि १२ किलोमीटर है। जहाँगीर ने यहाँ एक दौलत बाग बनवाया तथा शाहजहाँ के शासन काल में यहां एक बारादरी का निर्माण हुआ। पूर्णमासी की रात को चांदनी में यह झील एक सुंदर दृश्य उपस्थित करती है।

५) नक्की झील - यह एक प्राकृतिक झील है तथा यह माउंट आबू में स्थित है। यह झील लगभग ३५ मीटर गहरी है। यह झील का कुल क्षेत्रफल ९ वर्ग किलोमीटर है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण पर्यटकों का मुख्य केन्द्र है।

६) फाई सागर - यह भी एक प्राकृतिक झील है और अजमेर में स्थित है। इसका पानी आना सागर में भेज दिया जाता है क्योंकि इसमें वर्ष भर पानी रहता है।

७) पुष्कर झील - यह अजमेर से ११ किलोमीटर दूर पुष्कर में स्थित हैं। इस झील के तीनों ओर पहाड़ियाँ है तथा इसमें सालों भर पानी भरा रहता है। वर्षा ॠतु में यहां का प्राकृतिक सौंदर्य अत्यंत मनोहारी एंव आकर्षक लगता है। झील के चारों ओर स्नान घाट बने है। यहां ब्रह्माजी का मंदिर है। यह हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। यहां हर साल मेला लगता है।

८) सिलीसेढ़ झील - यह एक प्राकृतिक झील है तथा यह झील दिल्ली-जयपुर मार्ग पर अलवर से १२ किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है। यह झील सुंदर है तथा पर्यटन का मुख्य स्थल है।

९) बालसमन्द झील - यह झील जोधपुर के उत्तर में स्थित है तथा इसका पानी पीने के काम में आता है।

१०) कोलायत झील - यह झील कोलायत में स्थित है जो बीकानेर से ४८ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यहां कपिल मुनि का आश्रम है तथा हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन मेला लगता है।

११) फतह सागर - यह पिछोला झील से १.५ किलोमीटर दूर है। इसका निर्माण राणा फतह सिंह ने कराया था। यह पिछोला झील से निकली हुई एक नहर द्वारा मिली है।

१२) उदय सागर - यह उदयपुर से १३ किलोमीटर दूर स्थित है। इस झील का निर्माण उदयसिंह ने कराया था।

खारे पानी की झील

१) साँभर झील - यह राजस्थान की सबसे बड़ी झील है। इसका अपवाह क्षेत्र ५०० वर्ग किलोमीटर में फैला है। यह झील दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर लगभग ३२ किलोमीटर लंबी तथा ३ से १२ किलोमीटर तक चौड़ी है। ग्रीष्मकाल में वाष्पीकरण की तीव्र दर से होने के कारण इसका आकार बहुत कम रह जाता है। इस झील में प्रतिवर्ग किलोमीटर ६०,००० टन नमक होने का अनुमान है। इसका क्षेत्रफल १४५ वर्ग किलोमीटर है। इसके पानी से नमक बनाया जाता है। यहां सोड़ियम सल्फेट संयंत्र स्थापित किया गया है जिससे ५० टन सोड़ियम सल्फेट प्रतिदिन बनाया जाता है। यह झील जयपुर और नागौर जिले की सीमा पर स्थित है तथा यह जयपुर की फुलेरा तहसील में पड़ता है।

२) डीड़वाना झील - यह खारी झील नागौर जिले के डीड़वाना नगर के समीप स्थित है। यह ४ किलोमीटर लंबी है तथा इससे भी नमक तैयार किया जाता है। डीड़वाना नगर से ८ किलोमीटर दूर पर सोड़ियम सल्फेट का यंत्र लगाया गया है। इस झील में उत्पादित नमक का प्रयोग बीकानेर तथा जोधपुर जिलों में किया जाता है।

३) पंचभद्रा झील - बाड़मेर जिले में पंचभद्रा नगर के निकट यह झील स्थित है। यह लगभग २५ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर स्थित है। यह झील वर्षा के जलपर निर्भर नही है बल्कि नियतवाही जल श्रोतों से इसे पर्याप्त खारा जल मिलता रहता है। इसी जल से नमक तैयार किया जाता है जिसमें ९८ प्रतिशत तक सोड़ियम क्लोराइड़ की मात्रा है।

४) लूणकरण सागर - यह बीकानेर जिले के उत्तर-पूर्व में लगभग ८० किलोमीटर दूर स्थित है। इसके पानी में लवणीयता की कमी है अत: बहुत थोड़ी मात्रा में नमक बनाया जाता है। यह झील ६ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है।

जिलानुसार राजस्थान की झीलें
जिला झीलें/बांध
अजमेर - आना सागर, फाई सागर, पुष्कर, नारायण सागर बांध
अलवर - राजसमन्द, सिलीसेढ़
बाँसवाड़ा - बजाज सागर बांध, कहाणा बांध
भरतपुर - शाही बांध, बारेण बांध, बन्ध बरेठा बांध
भीलबाड़ा - सरेपी बांध, उन्मेद सागर, मांड़लीस, बखड़ बांध, खाड़ी बांध, जैतपुर बांध
बीकानेर - गजनेर, अनुप सागर, सूर सागर, कोलायतजी
बूंदी - नवलखाँ झील
चित्तौड़गढ़ - भूपाल सागर, राणा प्रताप सागर
चुरु - छापरताल
धौलपुर - तालाबशाही
डूंगरपुर - गौरव सागर
जयपुर - गलता, रामगढ़ बांध, छापरवाड़ा
जैसलमेर - धारसी सागर, गढ़ीसर, अमर सागर, बुझ झील
जोधपुर - बीसलपुर बांध, बालसमन्द, प्रताप सागर, उम्मेद सागर, कायलाना, तख्त सागर, पिचियाक बांध
कोटा - जवाहर सागर बांध, कोटा बांध
पाली - हेमा बास बांध, जवाई बांध, बांकली, सरदार समन्द
सिरोही - नक्की झील (आबू पर्वत)
उदयपुर - जयसमन्द, राजसमन्द, उदयसागर, फतेह सागर, स्वरुप सागर और पिछोला।

कुमाऊँ मंडल में नैनीताल के अलावा अन्य ताल

भीमताल
भीमताल (१,३७१ मीटर) इस अंचल का बड़ा ताल है। इसकी लम्बाई ४४८ मीटर, चौड़ाई १७५ मीटर गहराई १५ से ५० मीटर तक है। नैनीताल से भी यह बड़ा ताल है। नैनीताल की तरह इसके भी दो कोने हैं जिन्हें तल्ली ताल और मल्ली ताल कहते हैं। यह भी दोनों कोनों सड़कों से जुड़ा हुआ है। नैनीताल से भीमताल की दूरी २२.५ कि. मी. है।

भीमताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सुन्दर घाटी में ओर खिले हुए अंचल में स्थित है। इस ताल के बीच में एक टापू है, नावों से टापू में पहुँचने का प्रबन्ध है। यह टापू पिकनिक स्थल के रुप में प्रयुक्त होता है। अधिकाँश सैलानी नैनीताल से प्रातछ भीमताल चले जाते हैं। टापू में पहुँचकर मनपसन्द क भोजन करते हैं और खुले ताल में बोटिंग करते हैं। इस टापू में अच्छे स्तर के रेस्तरां हैं। उत्तर प्रदेश के मत्सय विभाग की ओर से मछली के शिकार की भी यहाँ अच्छी सुविधा है।

नैनीताल की खोज होने से पहले भीमताल को ही लोग महत्व देते थे। 'भीमकार' होने के कारण शायद इस ताल को भीमताल कहते हैं। परन्तु कुछ विद्वान इस ताल का सम्बन्ध पाण्डु - पुत्र भीम से जोड़ते हैं। कहते हैं कि पाण्डु - पुत्र भीम ने भूमि को खोदकर यहाँ पर विशाल ताल की उत्पति की थी। वैसे यहाँ पर भीमेशवर महादेव का मन्दिर है। यह प्राचीन मन्दिर है - शायद भीम का ही स्थान हो या भीम की स्मृति में बनाया गया हो। परन्तु आज भी यह मन्दिर भीमेशेवर महादेव के मन्दिर के रुप में जाना और पूजा जाता है।

भीमताल उपयोगी झील भी है। इसके कोनों से दो-तीन छोटी - छोटी नहरें निकाली गयीं हैं, जिनसे खेतों में सिंचाई होती है। एक जलधारा निरन्तर बहकर 'गौला' नदी के जल को शक्ति देती है। कुमाऊँ विकास निगम की ओर से यहाँ पर एक टेलिवीजन का कारखाना खोला गया है। फेसिट एशिया के तरफ से भी टाइपराइटर के निर्माण की एक युनिट खोली गयी है। यहाँ पर पर्यटन विभाग की ओर से ३४ शैैयाओं वाला आवास - गृह बनाया गया है। इसके अलावा भी यहाँ पर रहने - खाने की समुचित व्यवस्था है। खुले आसमान और विस्तृत धरती का सही आनन्द लेने वाले पर्यटक अधिकतर भीमताल में ही रहना पसन्द करते हैं।

नौकुचियाताल
भीमताल से ३ कि.मी. की दूरी पर उत्तर-पूर्व की और नौ कोने वाला 'नौकुचियाताल' समुद्र की सतह से १३१९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नैनीताल से इस ताल की दूरी २६.२ कि.मी. है।

इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं। इस अंचल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देखे जा सकते।

इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं। ताल में कमल के फूल खिले रहते हैं। इस ताल में मछलियों का शिकार बड़े अच्छे ढ़ंग से होता है। २०-२५ पौण्ड तक गी मछलियाँ इस ताल में आसानी से मिल जाती है। मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकिनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है। इस ताल के पानी का रंग गहरा नीला है। यह भी आकर्षण का एक मुख्य कारण है। पर्यटकों के लिए यहाँ पर खाने और रहने की सुविधा है। धूप और वर्षा से बचने के लिए भी पर्याप्त व्यवस्ता की गयी है।

सात ताल

'कुमाऊँ' अंचल के सभी तालों में 'सातताल' का जो अनोखा और नैसर्गिक सौन्दर्य है, वह किसी दूसरे ताल का नहीं है। इस ताल तक पहुँचने के लिए भीमताल से ही मुख्य मार्ग है। भीमताल से 'सातताल' की दूरी केवल ४ कि.मी. है। नैनीताल से सातताल २१ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। आजकल यहां के लिए एक दूसरा मार्ग माहरा गाँव से भी जाने लगा है। माहरा गाँव से सातताल केवल ७ कि.मी. दूर है।

सातताल घने वाँस वृक्षों की सघन छाया में समुद्रतल से १३७१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसमें तीन ताल राम, सीता और लक्ष्मण ताल कहे जाते हैं। इसकी लम्बाई १९ मीटर, चौड़ाई ३१५ मीटर और गहराई १५० मीटप तक आंकी गयी है।

इस ताल की विशेषता यह है कि लगातार सात तालों का सिलसिला इससे जुड़ा हुआ है। इसीलिए इसे 'सातताल' कहते है। नैसर्गिक सुन्दरता के लिए यह ताल जहाँ प्रसिद्ध है वहाँ मानव की कला के लिए भी विख्यात है। यही कारण है कि कुमाऊँ क्षेत्र के सभी तालों में यह ताल सर्वोत्तम है।

इस ताल में नौका-विहार करनेवालों को विशेष सुविधायें प्रदान की गयी है। यह ताल पर्यटन विभाग की ओर से प्रमुख सैलानी क्षेत्र घोषित किया गया है। यहाँ १० शैय्याओं वाला एक आवास गृह बनाया गया है। ताल के प्रत्येक कोने पर बैठने के लिए सुन्दर व्यवस्था कर दी गयी है। सारे ताल के आस-पास नाना प्रकार के पूल, लतायें लगायी गयी हैं। बैठने के अलावा सीढियों और सिन्दर - सुन्दर पुलों का निर्माण कर 'सातताल' को स्वर्ग जैसा ताल बनाया गया है। सचमुच यह ताल सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वोपरि है। यहाँ पर नौकुचिया देवी का मन्दिर है। अमेरिका के डा. स्टेनले को भी यह स्थान बहुत प्रिय लगा। वे यहाँ पर अपनी ओर से एक 'वन विहार'का संचालन कर वन के पशि पक्षियों का संरक्षम करते हैं। उनका यहाँ एक आश्रम है, जहाँ बैठकर वे प्रकृति के विभिन्न अंगों का निरीक्षण, परीक्षण और संरक्षण करते हैं।

नल -दमयन्ति ताल की सैर
सात तालों की गिनती में 'नल दमयन्ति' ताल भी आ जाता है। माहरा गाँव से सात ताल जाने वाले मोटर-मार्ग पर यह ताल स्थित है। जहाँ से महरागाँव - सातताल मोटर - मार्ग शुरु होता है, वहाँ से तीन किलोमीटर बायीं तरफ यह ताल है। इस तीन किलोमीटर बायीं तरफ यह ताल है। इस ताल का आकार पंचकोणी है। इसमें कभी-कभी कटी हुई मछलियों के अंग दिखाई देते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन के कठोरतम दिनों में नल दमयन्ती इस ताल के समीप निवास करते थे। जिन मछलियों को उन्होंने काटकर कढ़ाई में डाला था, वे भी उड़ गयी थीं। कहते हैं, उस ताल में वही कटी हुई मछलियाँ दिखाई देती हैं। इस ताल में मछलियों का शिकार करना मना है।

रामगढ़
भुवाली से भीमताल की ओर कुछ दूर चलने पर बायीं तरफ का रास्ता रामगढ़ की ओर मुड़ जाता है। यह मार्ग सुन्दर है। इस भुवाली - मुक्तेश्वर मोटर-मार्ग कहते हैं। कुछ ही देर में २३०० मीटर की ऊँचाई वाले 'गागर' नामक स्थान पर जब यात्रीगण पहुँचते हैं तो उन्हें हिमालय के दिव्य दर्शन होते हैं। 'गागर' नामक पर्वत क्षेत्र में 'गर्गाचार्य' ने तपस्या की थी, इसीलिए इस स्थान का नाम 'गर्गाचार्य' से अपभ्रंश होकर 'गागर' हो गया। 'गागर' की इस चोटी पर गर्गेश्वर महादेव का एक पुराना मन्दिर है। 'शिवरात्रि' के दिन यहाँ पर शिवभक्तों का एक विशाल मेला लगता है।

'गागर' से मल्ला रामगढ़ केवल ३ कि.मी. की दूरी पर समुद्रतल से १७८९ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नैनीताल से केवल २५ कि.मी. की दूरी पर रामगढ़ के फलों का यह अनोखा क्षेत्र बसा हुआ है। कुमाऊँ क्षेत्र में सबसे अधिक फलों का उत्पादन भुवाली - रामगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में होता है। इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के फल पाये जाते हैं। बर्फ पड़ने के बाद सबसे पहले ग्रीन स्वीट सेब और सबसे बाद में पकने वाला हरा पिछौला सेब होता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में डिलिशियस, गोल्डन किंग, फैनी और जोनाथन जाति के श्रेष्ठ वर्ग के सेब भी होते हैं। आडू यहाँ का सर्वोत्तम फल है। तोतापरी, हिल्सअर्ली और गौला कि का आडू यहाँ बहुत पैदा किया जाता है। इसी तरह खुमानियों की भी मोकपार्क व गौला कि बेहतर ढ़ंग से पैदा की जाती है। पुलम तो यहाँ का विशेष फल हो गया है। ग्रीन गोज जाति के पुलम यहाँ बहुत पैदा किया जाते हैं।

रामगढ़, जहाँ अपने फलों के लिए विख्यात है, वहाँ यह अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमालय का विराट सौन्दर्य यहां से साफ-साफ दिखाई देता है। रामगढ़ की पर्वत चोटी पर जो बंगला है, उसी में एक बार विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर आकर ठहरे थे। उन्होंने यहाँ से जो हिमालय का दृश्य देका तो मुग्ध हो गए और कई दिनों तक हिमालय के दर्शन इृसी स्थान पर बैठकर करते रहे। उनकी याद में बंगला आज भी 'टैगोर टॉप' के नाम से जाना जाता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को भी रामगढ़ बहुत पसन्द था। कहते हैं आचार्य नरेन्द्रदेव ने बी अपने 'बौद्ध दर्शन' नामक विख्यात ग्रन्थ को अन्तिम रुप यहीं आकर दिया था। साहित्यकारों को यह स्थान सदैव अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। स्व. महादेवी वर्मा, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य की मीरा कहलाती हैं, को तो रामगढ़ भाया कि वे सदैव ग्रीष्म ॠतु में यहीं आकर रहती थीं। उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान भी यहाँ बनवा लिया था। आज भी यह भवन रामगढ़-मुक्तेश्वर मोटर मार्ग के बायीं ओर बस स्टेशन के पीछे वाली पहाड़ी पर वृक्षों के बीच देखा जा सकता है। जीवन के अन्तिम दिनों में वे पहाड़ पर नहीं आ सकती थीं। अत: उन्होंने मृत्यु से कुछ पहले इस मकान को बेचा था। परन्तु उनकी आत्मा सदैव इस अंचल में आने के लिए सदैव तत्पर रहती थी। ऐसे ही अनेक ज्ञात और अज्ञात साहित्य - प्रेमी हैं, जिन्हें रामगढ़ प्यारा लगा था और बहुत से ऐसे प्रकृति - प्रेमी हैं जो बिना नाम बताए और बिना अपना परिचय दिए भी इन पहाड़ियों में विचरम करते रहते हैं।

मुक्तेश्वर
रामगढ़ मल्ला से रामगढ़ तल्ला लगभग १० कि.मी. है। रामगढ़ मल्ला से ही मुक्तेश्वर जाने वाली सड़क नीचे घाटी में दिखाई देती है। यह घाटी भी सुन्दर है। नैनीताल से मुक्तेश्वर ५१.५ कि.मी. है।

मुक्तेश्वर कुमाऊँ का बहुत पुराना नगर है। सन् १९०१ ई. में यहाँ पशु-चिकित्सा का एक संस्थान खुला था। यह संस्थान अब काफी बढ़ गया है। कुमाऊँ अंचल में मुक्तेश्वर की घाटी अपने सौन्दर्य के लिए विख्यात है। देश-विदेश के पर्यटक यहाँ गर्मियों में अधिक संख्या में आते हैं। ठण्ड के मौसम में यहाँ बर्फीली हवाएँ चलती हैं। पर्यटकों के लिए यहाँ पर पर्याप्त सुविधा है। देशी-विदेशी पर्यटक भीमताल, नोकुचियाताल, सातताल, रामगढ़ आदि स्थानों को देखने के साथ-साथ मुक्तेश्वर (२२८६ मीटर) के रमणीय अंचल को देखना नहीं भूलते।

नैनीताल से तराइ -भाबर : खुर्पाताल
तराई-भाबर की ओर जैसे ही हम चलते हैं तो हमें कालढूँगी मार्ग पर नैनीताल से ६ कि.मी. की दूरी पर समुद्र की सतह से १६३५ मीटर की ऊँचाई पर खुपंताल मिलता है। इस ताल के तीनों ओर पहाड़ियाँ हैं, इसकी सुन्दरता इसके गहरे रंग के पानी के कारण और भी बढ़ जाती है। इसमें छोटी-छोटी मछलियाँ प्रचुर मात्रा में मिलती है। यदि कोई शौकीन इन मछलियों को पकड़ना चाहे तो अपने रुमाल की मदद से भी पकड़ सकता है।

इस ताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पर्वतों के दृश्य बहुत सुन्दर लगते हैं। यहाँ की प्राकृतिक छटा और सीढ़ीनुमा खेतों का सौन्दर्य सैलानियों के मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

काशीपुर
खुर्पीताल से कालढूँगी मार्ग होते हुए काशीपुर को एक सीधा मार्ग चला जाता है। काशीपुर नैनीताल जिले का एक प्रसिद्ध नगर है, और मुरादाबाद व लालकुआँ से रेल द्वारा जुड़ा है। नैनीताल से यहाँ निरन्तर बसें आती रहती हैं। कुमाऊँ के राजाओं का यह एक मुख्य केन्द्र था। तराई - भाबर में जो भी वसूली होती थी उसका सूबेदार काशीपुर में ही रहता था।

चीनी यात्री हृवेनसांग ने भी इस स्थान का वर्णन किया था। उन्होंने इस स्थान का उल्लेख 'गोविशाण' नाम से किया था प्राचीन समय से ही काशीपुर का अपना भौगोलिक, सांस्कृतिक व धार्मिक महत्व रहा है।

कालाढूँगी/हल्द्वानी से काशीपुर मोटर-मार्ग में काशीपुर शहर से लगभग ६ कि.मी. पहले देवी का एक काफी पुराना मन्दिर है यहाँ पर चैत्र मास में चैती मेला विशेष रुप से लगता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं तथा अपनी मनौतियाँ मनाते और माँगते हैं। देवी के दर्शन करने के लिए यहाँ काफी भीड़ उमड़ पड़ती है।

द्रोणा सागर :
चैती मेला स्थल से काशीपुर की ओर २ किलोमीटर आगे नगर से लगभग जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण ताल द्रोण सागर है। पांडवों से इस ताल का सम्बन्ध बताया जाता है कि गुरु द्रोण ने यहीं रहकर अपने शिष्यों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी। ताल के किनारे एक पक्के टीले पर गुरु द्रोण की एक प्रतिमा है, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से यह विशिष्ट पर्यटन स्थल है।

गिरीताल
काशीपुर शहर से रामनगर की ओर तीन किलोमीटर चलने के बाद दाहिनी ओर एक ताल है, जिसके निकट चामुण्डा का भव्य मन्दिर है। इस ताल को गिरिताल के नाम से जाना जाता है। धार्मिक दृष्टि से इस ताल की विशेष महत्ता है, प्रत्येक पर्व पर यहाँ दूर-दूर से यात्री आते हैं। इस ताल से लगा हुआ शिव मन्दिर तथा संतोषी माता का मन्दिर है जिसकी बहुत मान्यता है। काशीपुर में नागनाथ मन्दिर, मनसा देवी का मन्दिर भी धार्मिक दृष्टि से आए हुए यात्री का दिल मोह लेते हैं।

काशीपुर नगर अब औद्योगिक नगर हो गया है, यहाँ सैकड़ों छोटे-बड़े उद्योग लगे हैं जिससे सारा इलाका समृद्धशाली हो गया है। काशीपुर के इलाके में बड़े-बड़े किसान, जिनके आधुनिक कृषि संयंत्रों से सुसज्जित बड़े-बड़े कृषि फार्म है, खेती की दृष्टि से यह इलाका काफी उपजाऊ है।
पर्यटन की दृष्टि से भी काशीपुर का काफी महत्व है। यहाँ के गिरिताल नामक ताल के किनारे पर्यटन आवास--गृह का निर्माण किया गया है। यहाँ दूर-दूर से देशी-विदेशी पर्यटक आकर रुकते हैं।

नैनीताल : एक परिचय

यहाँपर 'नैनीताल' जो नैनीताल जिले के अन्दर आता है। यहाँ का यह मुख्य आकर्षण केन्द्र है। तीनों ओर से घने-घने वृक्षों की छाया में ऊँचे - ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में नैनीताल समुद्रतल से १९३८ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस ताल की लम्बाई १,३५८ मीटर, चौड़ाई ४५८ मीटर और गाहराई १५ से १५६ मीटर तक आंकी गयी है। नैनीताल के जल की विशेषता यह है कि इस ताल में सम्पूर्ण पर्वतमाला और वृक्षों की छाया स्पष्ट दिखाई देती है। आकाश मण्डल पर छाये हुए बादलों का प्रतिविम्भ इस तालाब में इतना सुन्दर दिखाई देता है कि इस प्रकार के प्रतिबिम्ब को देखने के लिए सैकड़ो किलोमीटर दूर से प्रकृति प्रेमी नैनीताल आते - जाते हैं। जल में विहार करते हुए बत्तखों का झुण्ड, थिरकती हुई तालों पर इठलाती हुई नौकाओं तथा रंगीन बोटों का दृश्य और चाँद - तारों से भरी रात का सौन्दर्य नैनीताल के#े ताल की शोभा बढ़ाने में चार - चाँद लगा देता है। इस ताल के पानी की भी अपनी विसेषता है। गर्मियों में इसका पानी हरा, बरसात में मटमैला और सर्दियों में हल्का नीला हो जाता है।

नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़के हैं। ताल का मल्ला भाग मल्लीताल और नीचला भाग तल्लीताल कहलाता है। मल्लीताल में फ्लैट का खुला मैदान है। मल्लीताल के फ्लैट पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं। यहाँ नित नये खेल - तमाशे होते रहते हैं। संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरी बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है। संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है। इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृतिप्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है।

नैनीताल, पर्यटकों, सैलानियों पदारोहियों और पर्वतारोहियों का चहेता नगर है जिसे देखने प्रतिवर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं जो केवल नैनीताल का "नैनी देवी" के दर्शन करने और उस देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा से आते हैं। यह देवी कोई और न होकर स्वयं 'शिव पत्नी' नंदा (पार्वती) हैं। यह तालाब उन्हीं की स्मृति का द्योतक है। इस सम्बन्ध में पौराणिक कथा कही जाती है।

नैनीदेवी का नैनीताल : पौराणिक कथा के अनिसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमान्त्रण तक नहीं दिय। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपनी निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि 'मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। अपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल - स्वरुप यज्ञ के हवन - कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।' जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी, तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट - भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी - देवता शिव के इस रौद्र - रुप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी - देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध के शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया। परन्तु, सति के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश - भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ - जहाँ पर शरीर के अंग किरे, वहाँ - वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे ; वहीं पर नैनादेवी के रुप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अप्पुधार ने यहाँ पर ताल का रुप ले लिया। तबसे निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रुप में होती है।

यह भी एक विशिष्ट उदाहरण है कि समस्त गढ़वाल - कुमाऊँ की एकमात्र इष्ट देवी 'नन्दा' ही है। इस पर्वतीय अंचल में नन्दा की पूजा और अर्चना जिस ढ़ंग से की जाती है -- वह अन्यत्र देखने में नहीं आती।

नैनीताल ते ताल की बनावट भी देखें तो वह आँख की आकृति का 'ताल' है। इसके पौराणिक महत्व के कारण ही इस ताल की श्रेष्ठता बहुत आँकी जाती है। नैनी (नंदा) देवी की पूजा यहाँ पर पुराण युग से होती रही है।

कुमाऊँ के चन्द राजाओं की इष्ट देवी भी नन्दा ही थी, जिकी वे निरन्तर यहाँ आकर पूजा करते रहते थे। एक जनश्रुति ऐसी भी कही जाती है कि चंदवंशीय राजकुमारी ननद नन्दा थी जिसको एक देवी के रुप में पूजी जाने लगी। परन्तु इस कथा में कोई दम नहीं है, क्योंकी समस्त पर्वतीय अंचल में नन्दा को ही इष्ट देवी के रुप में स्वीकारा गया है।

गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं की भी नन्दा देवी इष्ट रही है। गढ़वाल और कुमाऊँ की जनता के द्वारा प्रतिवर्ष नन्दा अष्टमी के दिन नंदापार्वती की विसेष पूजा होती है। नन्दा के मायके से ससुराल भेजने के लिए भी 'नन्दा जात' का आयोजन गढ़वाल - कुमाऊँ की जनता निरन्तर करती रही है। अतः नन्दापार्वती की पूजा - अर्चना के रुप में इस स्थान का महत्व युग - युगों से आंका गया है। यहाँ के लोग इसी रुप में नन्दा के 'नैनीताल' की परिक्रमा करते आ रहे हैं।

त्रिॠषि सरोवर :
'नैनीताल' के सम्बन्ध में एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। 'स्कन्द पुराण' के मानस खण्ड में एक समय अत्रि, पुस्त्य और पुलह नाम के ॠषि गर्गाचल की ओर जा रहे थे। मार्ग में उन्हे#े#ं यह स्थान मिला। इस स्थान की रमणीयता मे वे मुग्ध हो गये परन्तु पानी के अभाव से उनका वहाँ टिकना (रुकना) और करना कठीन हो गया। परन्तु तीनों ॠथियों ने अपने - अपने त्रिशुलों से मानसरोवर का स्मरण कर धरती को खोदा। उनके इस प्रयास से तीन स्थानों पर जल धरती से फूट पड़ और यहाँ पर 'ताल' का निर्माण हो गया। इसिलिए कुछ विद्वान इस ताल को 'त्रिॠषि सरोवर' के नाम से पुकारा जाना श्रेयस्कर समझते हैं।

कुछ लोगों का मानना हे कि इन तीन ॠषियों ने तीन स्थानों पर अलग - अलग तोलों का निर्माण किया था। नैनीताल, खुरपाताल और चाफी का मालवा ताल ही वे तीन ताल थे जिन्हे 'त्रिॠषि सरोवर' होने का गौरव प्राप्त है।

नैनीताल के ताल की कहानी चाहे जो भी हो, इस अंचल के लोग सदैव यहाँ नैना (नन्दा) देवी की पूजा - अर्चना के लिए आते रहते थे। कुमाऊँ की ऐतिहासिक घटनाएँ ऐसा रुप लेती रहीं कि सैकड़ों क्या हजारों वर्षों तक इस ताल की जानकारी बाहर के लोगों को न हो सकी। इसी बीच यह क्षेत्र घने जंगल के रुप में बढ़ता रहा। किसी का भी ध्यान ताल की सुन्दरता पर न जाकर राजनीतिक गतिविधियों से उलढा रहा। यह अंचल छोटे छोटे थोकदारों के अधीन होता रहा। नैनीताल के इस इलाके में भी थोकदार थे, जिनकी इस इलाके में काफी जमीनें और गाँव थे।

सन् १७९० से १८१५ तक का समय गढ़वाल और कुमाऊँ के लिए अत्यन्त कष्टकारी रहा है। इस समय इस अंचल में गोरखाओं का शासन था। गोरखों ने गढ़वाली तथा कुमाऊँनी लोगों पर काफी अत्याचार किए। उसी समय ब्रिटिश साम्राज्य निरन्तर बढ़ रहा था। सन् १८१५ में ब्रिटिश सेना ने बरेली और पीलीभीत की ओर से गोरखा सेना पर आक्रमण किया। गोरखा सेना पराजित हुई। ब्रिटिश शासन सन् १८१५ ई. के बाद इस अंचल में स्थापित हो गया। २७ अप्रैल, १८१५ के अल्मोड़ा (लालमण्डी किले) पर ब्रिटिश झण्डा फहराया गया। अंग्रेज पर्वत - प्रेमी थे। पहाड़ों की ठण्डी जलवायु उनके लिए स्वास्थयवर्धक थी। इसलिए उन्होंने गढ़वाल - कुमाऊँ पर्वतीय अँचलों में सुन्दर - सुन्दर नगर बसाने शुरु किये। अल्मोड़ा, रानीखेत, मसूरी और लैन्सडाउन आदि नगर अंग्रेजों की ही इच्छा पर बनाए हुए नगर हैं।

सन् १८१५ ई. के बाद अंग्रेजों ने पहाड़ों पर अपना कब्जा करना शुरु कर दिया था। थोकदारों की सहायता से ही वे अपना साम्राज्य पहाड़ों पर सुदृढ़ कर रहे थे। नैनीताल इलाके के थोकदार सन् १८३९ ई. में ठाकुर नूरसिंह (नरसिंह) थे। इनकी जमींदारी इस सारे इलाके में फैली हुई थी। अल्मोड़ा उस समय अंग्रेजों की प्रिय सैरगाह थी। फिर भी अंग्रेज नये - नये स्थानों की खोज में इधर - उधर घूम रहे थे।

नए नैनीताल की खोज :
सन् १८३९ ई. में एक अंग्रेज व्यापारी पी. बैरन था। वह रोजा, जिला शाहजहाँपुर में चीनी का व्यापार करता था। इसी पी. बैरन नाम के अंग्रेज को पर्वतीय अंचल में घूमने का अत्यन्त शौक था। केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा करने के बाद यह उत्साही युवक अंग्रेज कुमाऊँ की मखमली धरती की ओर बढ़ता चला गया। एक बार खैरना नाम के स्थान पर यह अंग्रेज युवक अपने मित्र कैप्टन ठेलर के साथ ठहरा हुआ था। प्राकृतिक दृश्यों को देखने का इन्हें बहुत शौक था। उन्होंने एक स्थानीय व्यक्ति से जब 'शेर का डाण्डा' इलाके की जानकारी प्राप्त की तो उन्हें बताया गया कि सामने जो पर्वत हे, उसको ही 'शेर का डाण्डा' कहते हैं और वहीं पर्वत के पीछे एक सुन्दर ताल भी है। बैरन ने उस व्यक्ति से ताल तक पहुँचने का रास्ता पूछा, परन्तु घनघोर जंगल होने के कारण और जंगली पशुओं के डर से वह व्यक्ति तैयार न हुआ। परन्तु, विकट पर्वतारोही बैरन पीछे हटने वाले व्यक्ति नहीं थे। गाँव के कुछ लोगों की सहायता से पी. बैरन ने 'शेर का डाण्डा' (२३६० मी.) को पार कर नैनीताल की झील तक पहुँचने का सफल प्रयास किया। इस क्षेत्र में पहुँचकर और यहाँ की सुन्दरता देखकर पी. बैरन मन्त्रुमुग्ध हो गये। उन्होंने उसी दिन तय कर ड़ाला कि वे अब रोजा, शाहजहाँपुर की गर्मी को छोड़कर नैनीताल की इन आबादियों को ही आबाद करेंगे।

पी. बैरन 'पिलग्रिम' के नाम से अपने यात्रा - विवरण अनेक अखबारों को भेजते रहते थे। बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा का वर्णन भी उन्होंने बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा था। सन् १८४१ की २४ नवम्बर को, कलकत्ता के 'इंगलिश मैन' नामक अखबार में पहले - पहले नैनीताल के ताल की खोज खबर छपी थी। बाद में आगरा अखबार में भी इस बारे में पूरी जानकारी दी गयी थी। सन् १८४४ में किताब के रुप में इस स्थान का विवरण पहली बार प्रकाश में आया था। बैरन साहब नैनीताल के इस अंचल के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सारे इलाके को खरीदन का निश्चय कर लिया। पी बैरन ने उस लाके के थोकदार से स्वयं बातचीत की कि वे इस सारे इलाके को उन्हें बेच दें।

पहले तो थोकदार नूर सिंह तैयार हो गये थे, परन्तु बाद में उन्होंने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया। बैरन इस अंचल से इतने प्रभावित थे कि वह हर कीमत पर नैनीताल के इस सारे इलाके को अपने कब्ज में कर, एक सुन्दर नगर बसाने की योजना बना चुके थे। जब थोकदार नूरसिंह इस इलाके को बेचने से मना करने लगे तो एक दिन बैरन साहब अपनी किश्ती में बिठाकर नूरसिंह को नैनीताल के ताल में घुमाने के लिए ले गये। और बीच ताल में ले जाकर उन्होंने नूरसिंह से कहा कि तुम इस सारे क्षेत्र को बेचने के लिए जितना रू़पया चाहो, ले लो, परन्तु यदि तुमने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया तो मैं तुमको इसी ताल में डूबो दूँगा। बैरन साहब खुद अपने विवरण में लिखते हैं कि डूबने के भय से नूरसींह ने स्टाम्प पेपर पर दस्तखत कर दिये और बाद में बैरन की कल्पना का नगर नैनीताल बस गया। सन् १८४२ ई. में सबसे पहले मजिस्ट्रेट बेटल से बैरन ने आग्रह किया था कि उन्हें किसी ठेकेदार से परिचय करा दें ताकि वे इसी वर्ष १२ बंगले नैनीताल में#ं बनवा सकें। सन् १८४२ में बैरन ने सबसे पहले पिरग्रिम नाम के कॉटेज को बनवाया था। बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस सारे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। सन् १८४२ ई. के बाद से ही नैनीताल एक ऐसा नगर बना कि सम्पूर्ण देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसकी सुन्दरता की धाक जम गयी। उत्तर प्रदेश के गवर्नर का ग्रीष्मकालीन निवास नैनीताल मेंं ही हुआ करता था। छः मास के लिए उत्तर प्रदेश के सभी सचिवालय नैनीताल जाते थे।

नैनीताल में अनेक ऐसे स्थान हैं जहाँ जाकर सैलानी अपने - आपको भूल जाते हैं। यहाँ अब लोग ग्रीष्म काल में नहीं आते, बल्कि वर्ष भर आते रहते हैं। सर्दियों में बर्फ के गिरने के दृश्य को देखने हजारों पर्यटक यहाँ पहुँचते रहते हैं। रहने के लिए नैनीताल में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है, एक से बढ़कर एक होटल हैं। आधुनिक सुविधाओं की नैनीताल में आज कोई कमी नहीं है। इसलिए सैलानी और पर्यटक यहाँ आना अधिक उपयुक्त समझते हैं।

नैनीताल में अप्रैल से जून और सितम्बर से दिसम्बर तक दो सीजन होते हैं। सम्पूर्ण देश के पूँजीपति, व्यापारी, उद्योगपति, राजा-महाराजा और सैलानी यहाँ आते हैं। इस मौसम में टेनिस, पोलो, हॉकी, फुटबाल, गॉल्फ, मछली मारने और नौका दौड़ाने के खेलों की प्रतियोगिता होती है। इन खेलों के शौकीन देश के विभिन्न नगरों से यहाँ आते हैं। पिकनिक के लिए भी लोगों का ताँता नगा रहता है। इसी मौसम में नाना प्राकर के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। सितम्बर से दिसम्बर का मौसम भी बहुत सुन्दर रहता है। ऐसे समय में आकाश साफ रहता है। प्रायः इस मोसम में होटलों का किराया भी कम हो जाता है। बहुत से प्रकृति प्रेमी इसी मौसम में नैनीताल आते हैं। जनवरी और फरवरी के दो ऐसे महीने होते हैं जब नैनीताल में बर्फ गिरती है। बहुत से नवविवाहित दम्पतियाँ अपनी 'मधु यामिनी' हेतु नैनीताल आते हैं। तात्पर्य यह है कि यह सुखद और शान्ति का जीवन बिताने का मौसम है।

नैनीताल में घूमने के बाद सैलानी पीक देखना भी नहीं भूलते। आजकल नैनीताल के आकर्षण में रज्जुमार्ग (रोपवे) की सवारी भी विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गयी है। सुबह, शाम और दिन में सैलानी नैनीताल के ताल में जहां बोट की सवारी करते हैं, वहाँ घोड़ों पर चढ़कर घुड़सवारी का भी आनन्द लेते हैं। शरद्काल में और ग्रीष्मकाल में यहाँ बड़ी रौनक रहती है। शरदोत्सव के समय पर नौकाचालन, तैराकी, घोड़ो का सवारी और पर्वतारोहम जैसे मनोरंजन और चुनौती भरे सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं।

नैनीताल में बहुत, अच्छे स्कूल भी हैं। योरोपियन मिशनरियों के यहाँ कई स्कूल खुले हैं जिनमें से सेंट जोसेफ कॉलेज, शेरउड कॉलेज, सेन्टमेरी कॉन्वेंट स्कूल और आल सेन्ट स्कूल प्रसिद्ध है। बिरला का बालिका विद्यलय और बिरला पब्लिक स्कूल भी प्रसीद्ध है। नैनीताल में पॉलिटेकनिक है। नैनीताल में कुमाऊँ विश्वविद्यालय भी स्थापित है, जहाँपर हर प्रकार की शिक्षा दी जाती है। कुमाऊँ विश्वविद्यालय में नये - नये विष्य पढ़ाये जाते हैं। जिन्हें पढ़ाने के लिए देख के कोने - कोने से विद्यार्थी यहाँ आते हैं।

यहाँ की सात चोटियों नैनीताल की शोभा बढ़ाने में विशेष, महत्व रखती हैं :

१.) चीनीपीक (नैनापीक)
सात चोटियों में चीनीपीक (नैनापीक) २,६०० मीटर की ऊँचाई वाली पर्वत चोटी है। नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर पर यह चोटी पड़ती है। इस चोटी से ह्मालय की ऊँची -ऊँची चोटियों के दर्शन होते हैं। यहाँ से नैनीताल के दृश्य भी बड़े भव्य दिखाई देते हैं। इस चोटी पर चार कमरे का लकड़ी का एक केबिन है जिसमें एक रेस्तरा भी है।

२.) किलवरी
२५२८ मीटर की ऊँचाई पर दूसरी पर्वत - चोटी है जिसे किलवरी कहते हैं। यह पिकनिक मनाने का सुन्दर स्थान है। यहाँ पर वन विभाग का एक विश्रामगृह भी है। जिसमें पहुत से प्रकृति प्रेमी रात्रि - निवास करते हैं। इसका आरक्षण डी. एफ. ओ. नैनीताल के द्वारा होता है।

३.) लड़ियाकाँटा
२४८१ मीटर की ऊँचाई पर यह पर्वत श्रेणी है जो नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ से नैनीताल के ताल की झाँकी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है।

४ - ५.) देवपाटा और केमल्सबौग
यह दोनों चोटियाँ साथ - साथ हैं। जिनकी ऊँचाई क्रमशः २४३५ मीटर और २३३३ मीटर है। इस चोटी से भी नैनीताल और उसके समीप वाले इलाके के दृश्य अत्यन्त सुन्दर लगते हैं।

६. डेरोथीसीट
वास्तव में यह अयाँरपाटा पहाड़ी है परन्तु एक अंग्रेज केलेट ने अपनी पत्नी डेरोथी, जो हवाई जहाज की यात्रा करती हुई मर गई थी। की याद में इस चोटी पर #ेक कब्र बनाई, उसकी कब्र - 'डारोथीसीट' के नाम - पर इस पर्वत चोटी का नाम पड़ गया। नैनीताल से चार किलोमीटर की दुरी पर २२९० मीटर की ऊँचाई पर यह चोटी है।

७. स्नोव्यू और हनी - बनी
नैनीताल से केवन ढ़ाई किलोमीटर और २२७० मीटर की ऊँचाई पर हवाई पर्वत - चोटी है। 'शेर का डाण्डा' पहाड़ पर यह चोटी स्थित है, जहाँ से हिमालय का भव्य दृश्य साफ - साफ दिखाई देता है। इसी तरह स्नोव्यू से लगी हुई दूसरी चोटी हनी - बनी है, जिसकी ऊँचाई २१७९ मीटर है, यहाँ से भी हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं।

हनुमानगढ़ी :
नैनीताल में हनुमानगढ़ी सैलानी, पर्यटकों और धार्मिक यात्रियों के लिए विशेष, आकर्षण का केन्द्र हैै। यहाँ से पहाड़ की कई चोटियों के और मैदानी क्षेत्रों के सुन्हर दृश्य दिखाई देते हैं। हनुमानगढ़ी के पास ही एक बड़ी वेद्यशाला है। इस वेद्यशाला में नक्षरों का अध्ययन कियी जाता है। राष्ट्र की यह अत्यन्त उपयोगी संस्था है।
नैनीताल की सौन्दर्य - सुषमा अद्वितीय है। नैनीताल नगर भारत के प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है। उत्तर - पूर्व रेलवे स्टेसन काठगौदाम से नैनीताल ३५ कि. मी. की दूरी पर स्थित है। आगरा, लखनऊ और बरेली को काठगोदाम से सीधे रेल जाती है।
हवाई - जहाज का केन्द्र पन्त नगर है। नैनीताल से पन्त नगर की दूरी ६० कि. मीटर है। दिल्ली से यहाँ के लिए हवाई यात्रा होती रहती है।

नैनीताल जिले में कई स्थान ऐसै हैं, जहाँ बसों द्वारा आना - जाना रहता है। हल्द्वानी, काशीपुर, रुद्रपुर, रामनगर, किच्छा और पन्त नगर आदि नैनीताल में ऐसै उभरते हुए नगर हैं, जिनमें बसों के माध्यम से प्रतिदन सम्पर्क बना रहता है।

नैनीताल नगर निरन्तर फैलता ही जा रहा है। आज यह नगर ११ - ७३ वर्ग किलोमीटर में फैला हूआ है। पर्वतारोहण, पदारोहण जैसे आधुनिक आकर्षणों के कारण, यहाँ का फैलाव नित नये ढ़ंग से हो रहा है। 'कुमाऊँ' विश्वविद्यालय के मुख्यालय होने के कारण भी यहाँ नित नयी चहल - पहल होती है। नैनीतान में कई संस्थान हैं। पर्ववतारोहण की संस्था भी यहाँ की एक शान है।

नैनीताल नगर सुन्दर है। परन्तु नैनीताल जिले के अन्तर्गत ही कुछ ऐसे नगर और स्थल हैं जिनकी विशिष्टता नैनीताल से किसी भी प्रकार से कम नहीं है।

क्या – क्या उठापटक होगी नदियों के जोड़ने में

हिमालय नदी विकास
हिमालय नदी विकास में भारत, नेपाल तथा भूटान में गंगा एवं ब्रह्मपुत्र की प्रमुख सहायक नदियों पर भण्डारण जलाशयों का निर्माण करने तथा गंगा की पूर्वी सहायक नदियों के अतिरिक्त प्रवाह को पश्चिम में पथांतरण करने के उद्देश्य से नदियों के अन्तर्योजी तंत्र निर्माण और ब्रह्मपुत्र एवं उसकी सहायक नदियों को गंगा से तथा गंगा को महानदी से जोड़ ने पर जोर दिया गया है ।

प्रायद्वीपीय नदी विकास
प्रायद्वीपीय नदी विकास घटक को चार प्रमुख भागों में बांटा गया हैः

• महानदी-गोदावरी-कृष्णा-कावेरी नदियों को आपस में जोड़ना तथा इन बेसिनों में संभावित स्थानों पर जलाशयों का निर्माण: यह नदी तंत्रों को आपस में जोड़ ने की सबसे बड़ी योजना है जिसमें महानदी तथा गोदावरी के अतिरिक्त जल को कृष्णा तथा कावेरी नदियों के द्वारा दक्षिण में जल आवश्यकता वाले क्षेत्रों को अन्तरित करने का विचार है।

• मुंबई के उत्तर में तथा तापी के दक्षिण में पश्चिमोवर्ती प्रवाही नदियों को आपस में जोड़ना: इस योजना में इन धाराओं पर यथा संभावित संख्या में ईष्टतम जलाशयों के निर्माण तथा उन्हें आपस में जोड़ कर पर्याप्त प्रमात्रा में जल उपलब्ध कराने पर जोर दिया गया है जिससे कि उन क्षेत्रों में जल अन्तरित किया जा सके जहां अतिरिक्त जल की आवश्यकता है। इस योजना में जल आपूर्ति नहर को मुंबई महा नगरीय क्षेत्रों में ले जाने तथा महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों को सिंचाई उपलब्ध करवाने का भी प्रबंध है।

• केन-चंबल नदियों को आपस में जोड़ना: इस योजना में मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के लिए एक जल-ग्रिड तथा अन्तः संयोजी नहर जिसमें यथा संभव संख्या में जलाशय हों, का प्रावधान है।

• अन्य पश्चिमोवर्ती प्रवाही नदियों का पथांतरण: ''पश्चिमी घाटों'' के पश्चिमी ओर भारी मात्रा में वर्षा से असंख्य धाराएं आती हैं जो अरब सागर में गिरती हैं। केरल की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा कुछ जल पूर्व में स्थित सूखा-प्रभावित क्षेत्रों को अंतरण करने हेतु एक अन्तः संयोजी नहर तंत्र के निर्माण की योजना बनाई जा सकती है जिसमें पर्याप्त मात्रा में भण्डारण जलाशय भी हों।

जी हाँ, विदेशी

आज खुश होना चाहिए। अब भारतीय अदालतों में विदेशी वकील पैरवी कर सकेंगे-लंदन के, वाशिंगटन के, बर्लिन के, जगह-जगह के। हमें उत्सव मनाना चाहिए। अब यूरोप और अमेरिका में चार्टर्ड एकाउंटेंट अपनी ओर हमारी कंपनियों का लेखा परीक्षण करेंगे, हमारा स्टैंडर्ड सुधरेगा। लेकिन हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी क्या जब विदेशी बीमा कंपनियाँ हमारी बीमा व्यवस्था सँभालेंगी ? कौन किसकी देखभाल करता है आज के जमाने में। मेरा खयाल है, देश की अपनी बीमा कंपनियाँ पापड़ बेलने का काम करेंगी, यही फायदे का काम होगा।

गौरव की एक बात और है, विदेशी बैंक दनादन अपना जाल फैला रहे हैं। ये तो शेयर घोटाले में भी सबसे बड़े अपराधी पाए गए। उन्हीं के खातो से धन बाहर जाकर, आसनी से लापता होता रहा। इन्हें थोड़ा सा अर्थदंड भुगतना पड़ा। इससे कोई बात नहीं, ये दिल दनदनाने लगे हैं। क्रेडिड कार्ड की असल होड़ विदेशी बैकों में ही है। अब हम आजादी से अगले दो साल की कमाई इस साल ही खर्च कर सकेंगे। इस तरह लाखों मालदार लोगों और बड़ी-बड़ी तनखावालों के पैसे सँभालने की तमीज देशी बैंकों में कहाँ। सो, सौभाग्य से इनका आगमन हुआ है।

हम अपने लिए अच्छी खबर नहीं बना सकते थे। उसका कितना बुरा असर देश पर पड़ रहा था, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते थे। पैसा हो और अच्छी शराब न मिले, नकली स्कॉच हजार-बारह सौ में मिले। देश का पैसा मिट्टी में मिल रहा था। अब हम भारत निर्मित स्कॉच पी सकेंगे। सिर्फ उसका कंसंट्रेट और पानी विदेश से आएगा। हमारी गायों-भैसों को अच्छा गोबर देने की तमीज नहीं। सो गोबर भी विदेश से आएगा। हवाई जहाज और होटल की बुकिंग अब कोई बीस सेकेंड में विदेशी कंपनियाँ कर देंगी। हमारे छोटे-मोटे ट्रेवल एजेंट इतने निकम्मे हैं कि कई बार बुकिंग में आधा घंटा या एक घंटा लगा देते हैं। देर करते हैं तो भुगतें। अब इन निकम्मों का धंधा चौपट हो जाएगा। विदेशी कारों की भरमार है। फिसड्डी फिएट और अंबेसडर अब बाजार में लोकप्रिय नहीं है। यही होना चाहिए। खास बात यह है कि सबकुछ होगा, मगर हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी।

खाने-पीने की पचासों चीजें बाजार में अवतरित हो ही गई हैं। अब हमारे बच्चों का स्तर विश्व के दूसरे देशों के मुकाबले का हो गया है। उनके जूते एक-से-एक विदेशी नस्ल के हैं। जींस और अमेरिकी झंडेवाले छापे का शर्ट भी है। जो बच्चे नहीं खरीद सकते वे कम-से-कम दूसरों की देख तो सकते हैं। पहले तो हम देखने को भी तसरते थे। क्या यह आनंद का विषय नहीं है कि अचानक हमारे टेलीविजन में विश्व भर के कार्यक्रम आने लगे हैं। अब मार-धाड़, नितंबांदोलन देखने के लिए तरसता नहीं। जो कुछ है, खुल्लम-खुल्ला है।

दवा-दारू के मामलों में भी यही है। तीन-चौथाई दवाइयाँ विदेशी कंपनियों की है। सो हमारा स्वास्थ्य भी उनके हवाले है-मिलावट के डर से बिलकुल मुक्त, शानदार पैकिंग में। ऐसी पैकिंग के बिना बीमार हुए इन दवाइयों को खाने का जी करने लगे। अब खेती में भी क्रांति होगी। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि इससे हमारी स्वतंत्रता पर आँच आएगी। बल्कि वह ज्यादा सुरक्षित रहेगी, क्योंकि वह उनके ही हवाले रहेगी, ताकि हम अपनी स्वतंत्रता से खिलवाड़ करके उसे बरबाद न कर दें।

‘कोका जैसे तीन दर्जन साम्राज्यों का नाम ही अमेरिकी साम्राज्य है

जब-जब स्वदेशी अस्मिता के विरुद्ध निर्णय हुए, दीनानाथ जी का बहुचर्चित व्यंग्य स्तंभ-‘आरपार’ जमकर लोहा लेता रहा। इसके अनेक उदाहरण मुझे विगत एक दशक के इन व्यंग्य लेखों में देखने को मिले। उन्हीं का संग्रह ‘घर की मुरगी...’ के नाम से आप पाठकों के सामने प्रस्तुत हुआ है। ये व्यंग्य जनजीवन के सभी पक्षों की रक्षा के लिए विदेशी अर्थतंत्र के जहरीले साँपों पर करारी चोट करते हैं। मेरी दृष्टि में ये स्वदेशी व्यंग्य है। इनकी भूमिका वर्तमान परिस्थितियों में बड़े महत्व की है।

विदेशी कंपनियाँ अपने उत्पादों को बेचने के लिए किस्म-किस्म के तरीके उपयोग करती हैं, जिनसे बेखबर लोग उनके उपभोक्ता बनते जाते हैं। कैसे-कैसे होते हैं ये तरीके ? कैसे इनके आघातों से बदल जाता है जनमानस ? पत्रकारिता की पैनी नजर इसे आसानी से पकड़ लेती है। साहित्य के नए व्यंग्य विषयों का परिचय इन व्यंग्यों से अवश्य मिल सकता है। इनकी बानगी देखिए ‘किसी दिन किसी मेडिकल शोध के जरिए यह साबित किया जाएगा कि जलजीरा पीने से एक्जीमा होता है। लस्सी पीनेवालों को कैंसर होने का खतरा ज्यादा रहता है।..ऐसे दो सौ शोधों से यही पूरी तरह सिद्ध हो जाएगा कि कोका को छोड़कर कोई भी पेय सुरक्षित नहीं है (एकमेव कोला)।’

यूरोप के पारंपरिक त्योहारों में पेप्सी के प्रवेश का उदाहरण देते हुए व्यंग्यकार ने भारतीय जनमानस को जागरूक करने के लिए लिखा है-‘यह भी हो सकता है कि पंडित शादी कराने के बाद वरमाला के नेग पूरे कर नव विवाहित जोडे़ को पेप्सी की बोतलें आदान-प्रदान करने का कोई नया मंत्र पढ़े...या फिर गर्भाधान संस्कार और दाह संस्कार के बीच चौदह अन्य संस्कारों में किसी तरह कोका कोला संस्कार जुड़ जाए (कोका संस्कार)।’ व्यंग्यकार की चिंता है कि हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी क्या, जब विदेशी कंपनियाँ हमारी बीमा व्यवस्था सँभालेगी ?...विदेशी बैंक दनादन अपना जाल फैला रहे हैं। ये तो शेयर घोटाले में भी सबसे बड़े अपराधी पाए गए। इन्हीं के खातों से धन बाहर जाकर आसानी से लापता होता रहा।...मेरा ख्याल है, देश की अपनी बीमा कंपनियाँ पापड़ बेलने का काम करेंगी। यही फायदे का काम बचा रहेगा।’

‘कोका जैसे तीन दर्जन साम्राज्यों का नाम ही अमेरिकी साम्राज्य है। भारत में भी कोला युद्ध आरंभ हो गया।’
लोक-रुचि और सांस्कृतिक पक्षों पर विदेशी कंपनियों के हमले से उत्पन्न दुष्परिणामों को व्यंग्यकार ने इन स्वदेशी व्यंग्य में आड़े हाथों लिया है-‘मनमोहन सिंह की नीतियों का जैक्सन-लाभ और मैडोना-लाभ तो है ही, अब हॉलीवुड की मारधाड़ और हिंसाचार-यौनाचार से भरी फिल्में हिंदी में डब करके दिखाई जाएँगी। अनुबंध हो गया है। सचमुच सारे देश को इस दौर का स्वागत करना चाहिए।’ (आदाब जैक्सन-सलाम मैडोना)। सोए हुए जनमानस और दिग्भ्रिमित सरकारी नीति से घायल हुई स्वदेशी अस्मिता को देख मर्माहत व्यंग्यकार कथ्य उलटकर कहता है-‘इतना तो हम जानते ही हैं कि देशी देशी होती है-वह घटिया होती है, विदेशी की बात और है। कुछ लोग कहते हैं कि यह महज इन कंपनियों की लूट का जरिया होगा। सो, ये कंपनियाँ पानी पर उतर आई हैं। मगर हमारा पानी पहले ही भर चुका है (पानी का आयात)।’

हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को कुचलती फोटो पत्रकारिता के एक हमले को व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्य का विषय बनाया है। उसका शीर्षक है ‘मेजर का जूता।’ मैं इसे पढ़कर उस फोटो की याद में लौट गया था। मुझे याद आया-जॉन मेजर के जूते को खोलते या पहनाते उक्त कर्मचारी के सिर पर गांधी टोपी थी। यह व्यंग्य विषय की मजबूती और नए पन के कारण मुझे रोमांचित कर गया था। पता नहीं, इस विषय पर कितनी प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। पाठक इस व्यंग्य से लेखकीय दायित्व का अनुभव करेंगे और उस चोट का भी, जिसे भारतीय मन को झकझोरने के लिए लिखा गया। इस प्रकार अनेक लेख इस संग्रह में है, जो स्वदेशी मन पर हुए हमलों को निरस्त करते हैं।

इन व्यंग्य लेखों का संचयन इस आत्मविश्वास से किया गया है कि ये स्वदेशी आंदोलन के लिए निश्चय ही घृत-समिधा सिद्ध होंगे।
-प्रमोद कुमार दुबे

एकमेव कोला

अगस्त 1945 में कम्युनिस्ट नेता हो-ची मिन्ह ने जिस बालकनी से अक्तूबर क्रांति की घोषणा की थी, उसके ठीक सामने आज तीस-तीस फीट ऊँची, लाल लेबलवाली कोका कोला की कद्दावर बोतलें लगी हुई हैं। वियतनाम बीस साल तक अमेरिकी फौजों से लड़ता रहा। 1975 में यह लड़ाई खत्म हुई और अब अमेरिकी उपभोक्तावाद का सबसे प्रबल प्रतीक कोका कोला वहाँ उछल-कूद कर रहा है। एक अमेरिकी कार्टूनिस्ट ने टिप्पणी करते हुए एक वियतनामी के मुँह में शब्द डाले हैं कि ‘वह अमेरिकी को तब ज्यादा पसंद करता था जब वह उनका दुश्मन था।’

वियतनाम की प्रति व्यक्ति औसत आय भारत से भी कम है। फिर भी अमेरिकी रक्तपायी उसके शिकार में लगे हुए हैं। कोला एक तरह के अमेरिकी जादू-टोने का नाम है, जिससे ये क्लोरीनयुक्त रंगीन पानी से पीढ़ी-की-पीढ़ी में एक चस्का पैदा कर देते हैं; और धीरे-धीरे उपभोक्ता वर्ग पानी पीना भूल जाता है, पानी के बदले कोला पीता है और समझता है कि वह अमेरिकी शान-ओ-शौकत की जिंदगी जी रहा है। यह चस्का संसार के बेहतरीन विज्ञापन जाल में फँसते जाने से लगता है।
कोला जैसे तीन दर्जन साम्राज्यों का नाम ही अमेरिकी साम्राज्य है। भारत में भी कोला युद्ध प्रारंभ हो गया। प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, कैबिनेट सचिव जैसे आधे दर्जन चोटी के महत्वपूर्ण अफसरों की बैठक में कोला युद्ध के बारे में एक फैसला लिया गया। भारत सरकार कश्मीर और पूर्वोत्तर के विद्रोह के संबंध में भले ही सुस्ती दिखाती रही, मगर कोला युद्ध में जरूर चुस्ती दिखाई। अब तय कर दिया गया है कि महाकोलाओं को ‘आकार’ की छूट है।

इन कोलाओं को पीने के कई लाभ हैं। कोला पर आज तक यह आरोप नहीं लगा कि उसमें शरीर के लिए कोई भी गुणकारी तत्त्व है। लस्सी, छाछ, फलों के रस से देश का पैसा अमेरिका में जमा कराने का फायदा भी नहीं मिलता। कुल जमा पंद्रह-बीस पैसे का क्लोरीनेटेड पानी जब चार-पाँच रुपए तक में बिकता है तब करोड़ों बोतलों का अरबों रुपए का फायदा कहाँ-कहाँ, किस-किसको जाता है और क्या-क्या करता है, यह रोमांचक रहस्य भी देश के लिए एक फायदेमंद तत्त्व हैं।

जिस तरह विश्व भर में कोला साम्राज्य, कोका संस्कृति और कोला दर्शन फैल रहा है, उससे तो यही लगता है कि सर्वेगुणा कोलामाश्रयंते। कोई सोच सकता है कि लस्सी, दूध, छाछ, रस, नारियल पानी अंत में विजयी होंगे। वह कोला से अर्जित राशि का उपयोग करके इन पेयों की बुरी लत को छुड़वा सकते हैं। किसी दिन किसी मेडिकल शोध के जरिए यह साबित किया जा सकेगा कि जलजीरा पीने से एक्जीमा होता है, लस्सी पीनेवालों को कैंसर होने का खतरा ज्यादा रहता है, फलों के रस से मस्तिष्क की कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त होती हैं। ऐसे दो सौ शोधों से यह पूरी तरह साबित हो जाएगा कि कोका को छोड़कर कोई भी पेय सुरक्षित नहीं है।

व्यंग्य : प्यास लगे तो कोला पी - दीनानाथ मिश्र

आपको याद होगा कि समुद्र मंथन के बाद अमृत निकला था, विष भी निकला था-और भी बारह चीजें निकली थीं। पुराणों को लिखनेवाले यह भूल गये कि असल में कोका कोला और पेप्सी कोला भी समुद्र मंथन से ही निकले थे। दोनों अमृत से थोड़े बहुत बेहतर तरल पेय हैं। सिकंदर और नेपोलियन के बाद विश्व विजय की इच्छा से एक सौ अठहत्तर देशों में कोला युद्ध चल रहा है। आप यह भी जानते हैं कि युद्ध और मुहब्बत में हर हथकंडा वाजिब माना जाता है। इन दोनों की विश्व विजय के युद्ध में भी टक्कर इस बात की है कि पृथ्वी पर कोका कोला का राज चलेगा या पेप्सी कोला का ? मैं पहले कह चुका हूँ कि पुराणों के लेखकों ने सर्वोच्च पेय का श्रेय अमृत को देकर कोक और पेप्सी दोनों के साथ अत्याचार किया। आज कहाँ गया अमृत ? वह कहीं नहीं मिलता। अब तो मैदान में दो ही योद्धा बचे हैं-कोक और पेप्सी। एक का नारा है-‘यही है राइट च्वायश बेबी’-अर्थात् तमाम बेबियों के लिए पेप्सी से ज्यादा बेहतर च्वायश हरगिज नहीं हो सकती। अलबत्ता कोक ने अपने पेय को असली चीज कहा है। इसका मतलब है, पेप्सी सहित बाकी सारे पेय नकली हैं।

अभी इस हफ्ते दिल्ली में दो बड़ी घटनाएँ हो रही हैं-एक, कांग्रेस महासमिति का अधिवेशन और दूसरा, कोका कोला का पुनरागमन। विज्ञापन और प्रचार के सैकड़ों तरीकों से जनमानस को होल्ड इन बैनर्स कर लेने की होड़ देख ऐसा लगता है कि कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन के मुकाबले कोक का पुनरागमन कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसकी महिमा ही कुछ ऐसी है। आर्ट पेज पर एक सप्लीमेंट डालकर कोका कोला ने अपने पेय को ग्यारह ढंग से गुणकारी और महत्वपूर्ण बताया है। मैं उन महत्व के मुद्दों को जानता हूँ। मुझे यह भी पता है कि कांग्रेस महाधिवेशन के मुकाबले बच्चे-बच्चे की जबान पर कोका कोला की रट है। अगर मैं किसी दूसरे लोक से आया तो मैंने निश्चय ही इसे पेय के बजाय महानायक ही समझा होता। मेरे हिसाब से इसके और पेप्सी के गुण काफी समान हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि इसके पीने से कोई हानि नहीं होती; जबकि फलों का रस, दूध, छाछ, ठंडाई, शरबत से लेकर जलजीरा तक के पीने से भारी नुकसान होने के संभावना बन जाती है। मैं तो फिर यही कहूँगा कि पेप्सी और कोक दोनों में से कोई भी नुकसानदेह नहीं है; क्योंकि प्रति बोतल आठ रुपए का नुकसान भी कोई नुकसान है। इसकी दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह चमत्कारिक रूप से सस्ता पेय है, जिसे लोग महँगा खरीदेने में मजा लेते हैं। बाकी पेय के उत्पाद मूल्य और विक्रय मूल्य में एक रिश्ता होता है। जैसे लस्सी। डेढ़ रुपए के दही से चीनी-बर्फ मिलाकर पाँच रुपए की लस्सी बनी तो आधा लाभ हुआ। पेप्सी या कोक के साथ यह दकियानूसी तथ्य नहीं है।

विद्वानों में मतभेद है कि इस राइट च्वायश या रीयल थिंग के अंदर पेय ज्यादा कीमती है या बोतल ? बोतल तो वह वापस ले लेते हैं, चाहे उसकी कोई भी कीमत हो। अलबत्ता बोतल के सिरे को होंठों से पकड़ने का स्वर्गिक आनंद जरूर होता है। उस आनंद के लिए आठ रुपल्ली दे देना कौन सी बड़ी बात है। सो, अपनी तो सिफारिश साफ है कि ‘भूख लगे तो टी.वी. देख’ और ‘प्यास लगे तो कोका पी।’ बल्कि भूख को बरदाश्त करके भी गरीब से गरीब आदमी को भी रुपए-दो रुपए बचाते हुए जब भी आठ रुपए हो जाएँ तो एक कोला जरूर पीना चाहिए; क्योंकि यह अमृत से भी श्रेष्ठ है। अमृत को किसने देखा है ? वह तो निराकार है। कोला तो साकार है-हर नुक्कड़ पर उपलब्ध, ईश्वर की तरह सर्वव्यापी। आपका कोला ! पेप्सी कोला या कोका कोला !!

नदियों का नया ठेकेदार-कोका-कोला


कोका-कोला के संचालक नदी और पर्यावरण की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं. उन्होंने भी घोषणा कर दी कि वे अपनी पर्यावरण सोच में भारत को भी शामिल कर रहे हैं. अखबार लिखता है - "कोका-कोला ने देश में कुल 18 परियोजनाओं पर काम शुरू करने की घोषणा की है लेकिन अभी यह खुलासा नहीं किया है कि इस पर कितनी राशि खर्च आयेगी."

कोका-कोला को अगर भारतीय नदियों की चिंता हो जाए तो हमें चिंतित होने की जरूरत है. पानी का सबसे अधिक दुरूपयोग करनेवालों में कोका-कोला अव्वल है. कोक ऐसा पेय है जो बनने में प्रति बाटल 20 लीटर पानी बर्बाद करता है और शरीर में जाने के बाद हजम होने के लिए नौ-गुणा पानी बर्बाद करता है. इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि कि आप आधा लीटर कोक-पेप्सी पीते हैं तो शरीर उसके कारण शरीर में पैदा हुए प्रदूषण को साफ करने के लिए साढ़े चार लीटर पानी खर्च करना पड़ता है. अगर एक सामान्य दिन में आप पांच लीटर पानी पीते हैं तो एक लीटर कोक-पेप्सी पीने के बाद 9 लीटर अतिरिक्त पानी पीना चाहिए. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो वह शरीर में विकार और मोटापे के रूप में इकट्ठा होता है और आगे चलकर आपके शरीर में तरह-तरह के रोग पैदा करता है.
ऐसा "ठंडा पेय" बनाने वाली कंपनी कह रही है कि उसे नदियों की चिंता है. पर्यावरण की चिंता है. पिछले अध्ययनों की चर्चा न करते हुए 3 जून को आयी एक रिपोर्ट के बारे में आपको बताता हूं. अमेरिका में एक भारतीय व्यक्ति कोका-कोला के खिलाफ अभियान चलाते हैं. उनकी संस्था का नाम है- इंडिया रिसोर्स सेंटर. उसका एक दल 3 जून को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में सिन्हाचंवर गया था. सिन्हांचवर में वृंदावन बाटलर्स कोक के लिए बाटलिंग करता है. कोक के इस बाटलिंग प्लांट के कारण इलाके में पानी की समस्या पैदा हो गयी है. गंगा के किनारे होने के बावजूद भू-जल का स्तर गिरा है और हैंडपम्पों में पानी नदारद है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब कोका-कोला के बाटलिंग प्लांट की महिमा है. खेतों में पानी साल-भर लगा रहता है जिसके कारण खेती भी बर्बाद हो रही है.
कोका-कोला, पेप्सी और इनके जैसी बेवरेज कंपनियां पानी की दुश्मन हैं. अगर इनका उत्पादन रोक दिया जाए तो पानी भी बचेगा औऱ पर्यावरण भी. बाकी ये लोग जो कुछ भी करें बहकावे की बात है.
साभार- विस्फोट

कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल से जलाशयों, कुओ, नलकूपों का पानी प्रदूषित होने लगा है

पंजाब का मालवा क्षेत्र, जिसके संदर्भ में कभी मखोन मीठा मालवा (शहद से भी मीठा) शब्द का इस्तेमाल किया जाता था, आज कई पारिस्थितिकीय और स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं की चपेट में है। मालवा क्षेत्र में कृषि उत्पादकता बढ़ाने की बेलगाम होड़ के कारण उर्वरकों और कीटनाशकों का इस कदर इस्तेमाल हुआ कि वहां लोगों की सेहत खतरे में पड़ गयी है।

लोग कैंसर, किडनी की बीमारी और नपुंसकता आदि की चपेट में आते जा रहे हैं वहीं इस इलाके का पारिस्थितिकीय संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है। 70 के दशक में इस इलाके में कृषि क्रांति ने इस कदर जोर पकड़ा कि किसान खेती में हद से ज्यादा कीटनाशकों और उर्वरकों की भूमिका पर अधिक जोर देने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि यहां उपजने वाले अनाज स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गए। आज यहां बच्चों के भी बाल असमय सफेद होने लगे हैं। वहीं जलाशयों, कुओं, नलकूपों का पानी प्रदूषित होने लगा है। खेती विरासत मिशन नामक एक गैर सरकारी संगठन के मुताबिक यहां पानी, खान-पान और वायुमंडल सभी पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का असर देखा जा सकता है।

इसके प्रमुख उमेन्द्र दत्त ने आईएएनएस से बातचीत करते हुए कहा कि पंजाब वाकई खतरे में है। जब आप गांव का दौरा करेंगे तो आपको पारिस्थितिकीय असंतुलन के दुष्परिणाम नजर आएंगे। मालवा क्षेत्र में 9 से 10 वर्ष के लड़के लड़कियों के बाल सफेद हो रहे हैं और कई लोग असमय बूढ़े नजर आने लगे हैं। प्रत्येक गांव में आपको कैंसर के 5 से 10 मरीज मिल जाएंगे। वहीं कई लोग किडनी के मरीज बन गए हैं। उन्होंने बताया कि यहां के जलाशयों में टोटल डिजॉल्ट साल्ट (टीडीएस) की मात्रा काफी बढ़ गयी है। ऐसे में पानी में प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है। उन्होंने कहा कि मालवा क्षेत्र में आने वाले लुधियाना, बरनाला, संगरूर आदि में ऐसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस

दूसरों की प्यास बुझाने वाला हिमाचल खुद प्यासा क्यों?

योजनाओं के प्रदेश में जल आपूर्ति परियोजनाओं की भले ही कमी ना हो परन्तु यह भी कटु सत्य है कि प्रदेश में आज भी पानी की कमी है| एक तरफ जहां तकरीबन 36 ह्जार लीटर पानी मिनरल वाटर ऊद्योग के जरिये निर्यात किया जा रहा है वहीं प्रदेश में दस करोड लीटर पानी की प्रतिदिन कमी आंकी गई है|रैणुका बांध परियोजना की बात करें तो यह दिल्ली वासियों की प्यास बुझाएगी, जो भी हो हिमाचल के दूर दराज का ग्रामीण आज भी मिलों दूर से अपनी प्यास बुझाने को मजबूर है|

पीने के पानी का उपयोग बडे पैमाने पर सिंचाई के लिए भी किया जा रहा है|
-नदी नालों और बांवडी तालाबों के प्रदेश में पानी की कमी आखिर क्यों होने लगी है? चिन्ता का विषय है|
-वनों के लगातार कटान के साथ साथ जल प्रबंधन में दोष का खामियाजा प्रदेश की आबादी का एक बडा हिस्सा झेल रहा है| हर घर में पानी की कमी बताई जा रही है|
-आज दूसरों की प्यास बुझाने वाले प्रदेश को यह भी सोचना होगा कि आखिर वह खुद क्यों प्यासा है|

भविष्य में प्यास से भी होंगी मौतें - संदीप

देश में भू-गर्भीय जल स्तर में गिरावट की खबरें हर कहीं से आ रही हैं। सरकार जल संचयन के कार्यक्रमों को बढ़ावा भी दे रही है। लोग समस्या के प्रति थोड़ा जागरूक हुए हैं किंतु आने वाले दिनों में खतरा बहुत बड़ा है। यदि जल उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1000 घन मीटर से कम हो तो वहां जल का संकट माना जाता है। भारत में फिलहाल प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 1880 घन मीटर जल उपलब्ध है। 1951 में यह उपलब्धता 3450 घन मीटर थी लेकिन 2050 तक यह सिर्फ 780 घन मीटर रह जाएगी। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने जल की कमी से उत्पन्न संकट का निदान निकाला है- जल का निजीकरण। उनका मानना है कि यदि जल को एक उपभोक्ता या व्यावसायिक वस्तु माना जाए तो जल का संचयन हो सकेगा। यह सोच आम इंसान, जिसकी जीविका जमीन से जुड़ी रही है, के भू-गर्भ पर पारंपरिक अधिकार के लिए एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत कर रही है।
आराजीलाइन विकास खंड का एक गांव है मेहदीगंज जहां कोका कोला कंपनी ने अपना एक बॉटलिंग संयंत्र स्थापित किया हुआ है। यहां कोका कोला प्रतिदिन भू-गर्भ से 15 से 25 लाख लीटर तक पानी का दोहन करती है। हालांकि उसका खुद का दावा है कि वह सिर्फ 5 लाख लीटर पानी ही निकालती है। इंजीनियर-वैज्ञानिक वी. चंद्रिका द्वारा 2006 में इस कोका कोला संयंत्र से तीन कि.मी. की दूरी के अंदर स्थित आठ गांवों के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि इनके कुओं का जल स्तर 1996 से 2006 के बीच 18 फीट से नीचे चला गया है जबकि इसके पिछले दशक (1986-1996) में यह गिरावट सिर्फ 1.6 फीट थी। कुछ गांवों में पिछले दशक जल स्तर की गिरावट सिर्फ 2.8 से 3.5 फीट तक की रही। उपर्युक्त आठ गांवों के क्षेत्र में 44 प्रतिशत कुएं या तो सूख चुके हैं अथवा सूखने के क्रम में हैं। 25 प्रतिशत कुएं तो 2000 के बाद सूखे, जब से कोका कोला संयंत्र काम कर रहा है।
जैसे-जैसे कुएं तथा तालाब सूखने लगे हैंडपम्प लगाने की दर में तेजी आई। कोका कोला का कहना है कि जल स्तर में गिरावट उसके क्रियाकलापों की वजह से नहीं बल्कि किसानों द्वारा अधिक नलकूप लगाकर पानी के अत्याधिक दोहन तथा ज्यादा सूखा पड़ने की वजह से हुई है। हकीकत यह है कि 1991 से 2000 के दशक में 1991 से 1993 तक सूखा पड़ा तथा 2000 के बाद से 2002 व 2004 में सूखा पड़ा। वर्ष 1991 से 2000 के बीच 15 नलकूप लगे तथा 2001 से 2006 तक 11 नलकूप लगे हैं। अत: कोका कोला संयंत्र लगने के बाद से पिछले दशक की तुलना में न तो सूखा ज्यादा पड़ा है और न ही नलकूपों को लगाने की दर में कोई तेजी आई है।
वी.चंद्रिका के सर्वेक्षण में 76 प्रतिशत लोगों का मानना था कि क्षेत्र में तेजी से गिरते जल स्तर के लिए कोका कोला ही जिम्मेदार है। पर यदि यह मान भी लें कि इसके लिए कोका कोला जिम्मेदार नहीं है तो भी यह देखते हुए कि आराजीलाइन विकास खंड को ‘डार्क एरिया’ घोषित किया गया है। यहां से पेयजल व सिंचाई को छोड़कर जल के व्यावसायिक दोहन पर रोक लगनी चाहिए। मेहदीगंज का किसान कहता है कि वह कोई कोका कोला पीकर जिंदा नहीं रह सकता। उसके जिंदा रहने के लिए जरूरी है कि उसकी सिंचाई की आवश्यकता को पूरी करने के लिए भू-गर्भ का संचित जल कोष उसके लिए सुरक्षित रहे। कोका कोला द्वारा उसके पानी की जा रही चोरी के खिलाफ मेहदीगंज व आस-पास के गांवों के किसानों ने 2003 से युवा नेता नंदलाल के नेतृत्व में जबरदस्त आंदोलन छेड़ रखा है। इस आंदोलन की गूंज कोका कोला की 19 अप्रैल 2005, 2006 व 2007 को अमेरिका में हुई शेयर धारकों की बैठक में सुनाई पड़ी जहां यह पूछा जा रहा है कि आखिर कोका कोला भारत के किसानों का पानी क्यों चोरी कर रही है?
इस समय भारत में कोका कोला व पेप्सी कोला के 90 संयंत्र अंधाधुंध भू-गर्भ जल संसाधन का दोहन कर रहे हैं। इसमें से मात्र एक-केरल के प्लाचीमाडा में स्थित कोका कोला का संयंत्र जन आंदोलन के दबाव में बंद हो पाया है। शेष जगह बोतलबंद पानी व शीतल पेय उघोग जल के लिए बड़ा खतरा बने हुए हैं। मध्य प्रदेश औघोगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड, रायपुर (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य औघोगिक विकास निगम) ने गैर कानूनी तरीके से राज्य की एक नदी शिवनाथ के 23 किमी. का हिस्सा एक अनुबंध व लीज-डीड के तहत रायपुर की एक निजी कंपनी रेडियस वाटर कंपनी को सौंप दिया था। कंपनी ने नदी को कंटीले तारों से घेरकर वहां एक सूचना लगाकर आम लोगों द्वारा अपनी दैनिक जरूरतों के लिए नदी के पानी का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। शिवनाथ नदी के पानी पर अधिकार एक निजी कंपनी को सौंपे जाने के विरूद्ध राष्ट्रीय स्तर पर एक जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई जिसके बाद छत्तीसगढ़ की सरकार को इस प्रकरण की जांच करानी पड़ी। 16 मार्च 2007 को छत्तीसगढ़ विधानसभा में लोक लेखा समिति 2006-07 द्वारा ‘औघोगिक विकास केंद्र बोरई की जल प्रदाय परियोजना को बूट आधार पर निजी क्षेत्र में सौंपे जाने के प्रकरण की जांच’ प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया। इसमें अनुबंध व लीज डीड को निरस्त करते हुए समस्त परिसम्पत्तियों व जल प्रदाय योजना की अधिपत्य छत्तीसगढ़ राज्य औघोगिक विकास निगम द्वारा वापस ले लिए जाने की सिफारिश की गई है। साथ ही निगम के तत्कालीन प्रबंध संचालकों व मुख्य अभियंता और रेडियस वाटर कंपनी के मुख्य पदाधिकारी के विरूद्ध आपराधिक षड्यंत्र करके शासन को हानि पहुंचाने के मामले में जुर्म दर्ज कराने की संस्तुति भी है। दिल्ली जल बोर्ड द्वारा विश्व बैंक के दबाव में दिल्ली में जल आपूर्ति को निजी क्षेत्र में सौंपे जाने की दिशा में उठाए गए कदम तथा गैर कानूनी तरीके से अमेरिका की कंपनी प्राइस वाटर हाउस कूपर को ठेका दिए जाने की कोशिशों का भंडाफोड़ हो ही चुका है।
यह बात बहुत साफ है कि पानी के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है तथा दुनिया की बड़ी कंपनियों की नजर जल संसाधन पर लगी हुई है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संसाधन सरकारों पर पानी के निजीकरण को तेज करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। यदि पानी का निजीकरण होता है तो सबसे बड़ा खतरा आम गरीब इंसान को है। जैसे-जैसे भू-गर्भ में संचित जल भंडार कम होता जाएगा, ठीक पेट्रोलियम के सीमित होते भंडारों की तरह, पानी की कीमत बढ़ती जाएगी। फिलहाल बोतलबंद पानी की कीमत दूध की कीमत से ज्यादा है। यदि पानी की कीमत भी दिनों-दिन बढ़ती गई तो आम इंसान के लिए पानी नहीं उपलब्ध रहेगा। जिस तरह आज भारतीय खाघ निगम के गोदामों में अनाज रहते हुए भी भूख से मौतें हो जाती हैं, वैसे ही पानी रहते हुए भी लोग प्यास से मरेंगे?

रातों रात बिक गई नदी शिवनाथ

छत्तीसगढ़ सरकार के अधिकारियों ने कबीरदास की उलटबासियों को भी हकीकत का बाना पहना दिया है। कबीरदास ने उलटबासियों के माध्यम से समाज की विडंबनाओं पर प्रहार किया था। उनकी एक प्रसिध्द उलटबासी है एक अचंभा देखा रे भई, नदिया सारी जरी गई, मछली हो गई राख - शायद कबीरदास को यह नहीं मालूम था कि ज्ञान, चरित्र और एकता की बात करने वाली छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के अधिकारी उनकी इस दूर की कौड़ी को भी सच साबित कर दिखाएंगे। एक नदी को बेच दिए जाने के मामले मं छत्तीसगढ़ के प्रखर पत्रकार तपेश जैन की एक खास रिपोर्ट।

समूचे हिन्दुस्तान में यह पहली दुर्भाग्यजनक घटना होगी कि अतिरिक्त कमाई के लिए छत्तीसगढ़ की एक बड़ी सहायक नदी शिवनाथ को ही शासन को अंधेरे में रखकर रेड़ियस वाटर लिमिटेड़ को बेच दिया गया। फर्जी तरीके से अनुबंधित कंपनी को उद्योगों को पानी आपूर्ति के लिए पाँच करोड़ रुपए की लागत से निर्मित इटैंक वैल, ओण्हर हैड़ रैकं और बिछी पाइलाइन सहित 176 एकड़ जमीन, करीब दस करोड़ रुपए की परिसम्पतियाँ मात्र एक रूपए वार्षिक लीज पर 20 साल के लिए दे दी गई ।

भ्रष्ट्राचारियों की भूख इतने पर भी शांत नहीं हुई । आला अफसरों की शह पर फर्जी अनुबंध की कंपनी यानी कि रेडियस वाटर लिमिटेड़ ने नदी के तटवर्ती गाँववालों की करीब 42 हेक्टेयर ज़मीन पर कब्जा भी कर लिया और बोरई 42 हेक्टेयर ज़मीन पर कब्जा कर लिया और बोटई ग्राम के लिसानों के नैसर्गिक अधिकार पानी लेने और मछली मारने पर पूरी तरह रोक लगा दी । बोरई ग्राम के किसानों के नैसर्गिक अधिकार पर आक्रमण करते हुए पानी लेने और मत्स्याखेट पर पूरी तरह रोक लगा दी गई ।

बोरई और आसपास के गाँव वालों ने अखबारों की शिकायत पर मीडिया में जब यह मामला उछला तब छत्तीसगढ़ विधानसभा की लोक लेखा समिति ने संज्ञान लेते हुए इस मामले की जाँच पड़ताल का फैसला किया। नौ फरवरी 2003 को तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने इस मामले में जांच की अनुमति दी और कांग्रेस विधायक श्री रविंद्र चौबे सभापति नियुक्त हुए। वहीं इस समिति में विधायक श्री विजय अग्रवाल, श्री संजय ढ़ीड़ी, श्री सिद्धनाथ पैंकरा, श्री इंदर चोपड़ा, श्री लाल महेन्द्र सिंह टेकाम, डॉ. शक्राजीत नायक, श्री गणेश शंकर बाजपेयी, श्री भूपेश बघेल व विधानसभा सचिवालय के चार सदस्यों के साथ प्राक्कलन समिति के सभापति श्री कमलभान सिहं को रखते हुए विस्तृत जाँच की गई ।

अब जाँच समिति अर्थात् छत्तीसगढ़ विधानसभा लोक लेखा समिति के चौसठवां प्रतिवेदन जो 16 मार्च 2997 को विधानसभा में प्रस्तुत किया, में साफ तौर पर पाया गया है कि यह पूरे हिन्दुस्तान के लिए पहला मामला है जहाँ अधिकारियों ने भ्रष्टाचार की सीमा लाँघते हुए छत्तीसगढ़ की एक बड़ी सहायक नदी शिवनाथ को ही नियम विपरीत बेच दिया। यह कहानी उस समय की है जब छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में ही नहीं आया था और वह मध्यप्रदेश का ही हिस्सा था । यह कारनामा कर दिखाया है - मध्यप्रदेश औद्योगिक केन्द्र विकास निगम रायपुर (एकेबीएन) ने।

प्रकृति को भी नहीं बख्सने वाले सौदागरों की कहानी कुछ इस तरह है - जल संसाधन विभाग से बिना अनुमति लिए एकेबीएन ने औद्यागिक केंद्र बोरई जिला दुर्ग के उद्योगों को पानी अपूर्ति के लिए एनीकट निर्माण की जरूरत बताते हुए 23 मई 1990 को टेण्डर का प्रकाशन किया, जिसमें( boot) बूट यानी बिल्ड ऑरटेट-ऑन-ट्रांसफर आधारित एनीकेट निर्माण हेतु निविदांए आमंत्रित की गई थी । इस टेण्डर के साथ ही भ्रष्टाचार का खेल शूरू हो गया। और सही मायनों में कहा जाए तो पूरी की पूरी प्रक्रिया ही संदेह के दायरे में थी। यह निष्कर्ष किसी शिकायत कर्ता की शिकायत नामा ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ विधानसभा (द्वितीय) की लोकलेखा समिति (2006-2007) की, जिसमें औद्यौगिक विकास केंद्र बोरई को जल प्रदाय परियोजना को बूट आधार पर निजी क्षेत्र में सौपें जाने के प्रकरण में पूर्णतः दोषी पाया गया है ।

330 पृष्ठीय जाँच रिपोर्ट के अनुसार इस प्रकरण की शुरुआत तब हुई जब दुर्ग जिले में स्थापित उद्योग मेसर्स एच. ई. जी. लिमिटेड द्वारा सन 1996 को एकवीएन से 25 लाख लीटर पानी प्रतिदिन प्रदान करने की मांग की गई तब निगम ने बताया कि निगम कंपनी को चाही गई मात्रा में पानी की आपूर्ति कर सकती है लेकिन गर्मी के मौसम में मुश्किल आयेगी । इस पानी आपूर्ति के लिए पर्याप्त पानी का भंडारण करना होगा और इसके लिए एनीकेट का निर्माण करना होगा जिसमें करीब साढ़ सात करोड़ रुपए लागत आयेगी। इस पर एच.ई.जी.लि. ने निगम को बोरई में संयुक्त उपक्रम में एनीकट निर्माण का प्रस्ताव दिया और राशि निवेश की सहमति भी दी ।

होना तो यह चाहिए था कि निगम मेसर्स एच-ई.जी.लि. की मांग आपूर्ति के लिए यह प्रस्ताव स्वीकृत कर लेता क्योंकि उसने करोड़ पांच करोड़ रुपए की लागत से उद्योगों को जल आपूर्ति हेतु राज्य शासन के चार करोड़ 39 लाख रूपए के अनुदान से इंटेकवेल, ओवर हेड़ टैंक और पाइप लाइन सहित आवश्यक अधोसंरचना विकसित कर ली थी और उद्योगों को 3.6 एम.एल.डी. पानी सामान्य मौसम में और 2.5 एम.एल. डी. लीज पीरियड़ में आपूर्ति किया जा रहा था। बाद में इसी अधोसंरचना को एकेवीएन ने मात्र एक रूपए लीज पर रेडियस वाटर को नियम विरूद्ध दे दिया जबकि इसके लिए शासन से अनुमति ली जानी चाहिए थी।

मेसर्स एच.ई.जी. लिमिटेड की जरूरत और सक्रियता को देखते हुए एकेवीएन के अधिकारियों को इसमें भ्रष्टाचार का खेल समय में आ गया और भ्रष्टाचार के इस खेल में वे भी शामिल हो गये । उन्होंने बूट के लिए निविदा आमंत्रित की उसमें भी एच.इ.जी.लि. को शतिराना तरीके से बाहर कर कैलाश इंजीनियरिगं कार्पोरेशन लि. राजनांदगांव की निविदा स्वीकृत की गई लेकिन 24 घंटे के भीतर ही निविदाकार कंपनी के स्थान पर एक पृथक कंपनी रेडियस वाटर लि. परिदृश्य में आ गई। लोक सेवा समिति ने इस अत्यंत आपत्तिजनक मानते हुए प्रक्रियाओं के विपरीत अवांछित लाभ पहुंचाने वाला आपराधिक कृत्य माना है। कैलाश इंजीनियरिगं कार्पोरेशन लिमिटेड़ ने बूट आधार पर एनीकट निर्माण के लिए स्वीकृत निविदा के अनुरूप अनुबंध करने के लिए एस.पी.व्ही. रेडियस वाटर लि. से अनुबंध करने का कोई प्रस्ताव भी नहीं दिया। अतः ऐसे में रेडियस वाटर से मध्यप्रदेश औद्यौगिक केन्द्र विकास निगम लि. ने कैसे अनुबंध किया यह रहस्यमय ही है।इसके लिए समिति ने एम.पी. एकेवीएन के तत्कालीन प्रबंध संचालक व आईएएस अधिकारी गणेश शंकर मिश्रा को शासन को अँधेरे में रखकर आपराधिक कृत्य करने का दोषी करार दिया है ।

जाँच रिपोर्ट में कहा गया है कि भ्रष्ट अधिकारियों ने रेडियस वाटर से माँग से ज्यादा न्यूनतम चार एम.एल. डी. पानी 12 रुपए 60 पैसे क्यूविक मीटर से खरीदने का अनुबंध सीधे-सीधे रेडियस वाटर को लाभ पहुँचाने के लिए किया गया है । इस प्रकाऱ अनुबंध तिथि को लगभग दस करोड़ रुपए की परिसम्पतियां रेडियस वाटर को नाम मात्र एक रुपए में 20 वर्ष के लिए प्रदान करके ये अधिकारी भ्रष्टाचार की नदी प्रवाहित करने लगे थे । इतना ही आसपास जाँच समिति को गांव वालों की 42 हेक्टेयर ज़मीन की अधिग्रहित कर रेडियस वाटर को सौंपे जाने का पत्राचार भी दृष्टव्य हुआ लेकिन एकेवीएन ने यह जमीन अधिग्रहित कर रेडियस वाटर को उपलब्ध करवाई या नहीं या जांच का विषय है, जिस पर समिति पूरी तरह से मौन है।

ज्ञातव्य हो कि छत्तीसगढ विधानसभा की लोक लेखा समिति यानी राज्य की सर्वोच्च जाँच समिति द्वारा पवित्र और लाखों किसानों की जीवन रेखा शिवनाथ नदी के सौदागर यानी श्री मिश्रा के खिलाफ़ अविलंब पुलिस कार्यवाही का आदेश भी छत्तीसगढ शासन को 3 माह पूर्व ही दिया जा चुका है । जिस पर अब तक कोई कार्यवाही करना तो दूर की बात है उल्टा उसे लगातार एक जिले से दूसरे जिले में कलेक्टर बनाकर हौसला आफ़जाई की जा रही है । राज्य शासन का यह चरित्र तो तब और भी प्रमाणित हो गया जब कुछ माह पहले उन्हें सबसे मलाईदार जिले अर्थात् बस्तर का कलेक्टर बनाया गया है।

कहीं तीसरे विश्व युद्ध का कारण न बन जाए पानी

नई दिल्ली। आठ अगस्त को दक्षिण दिल्ली के एक रिहायशी इलाके में 24 घंटे से पेयजल आपूर्ति बाधित रहने के कारण हाहाकार मचा हुआ था। यह तो सिर्फ एक दिन की बात थी, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं यह दस्तक है आने वाले कल की, जब पानी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बनेगा।
इस इलाके के ठीक पीछे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पानी की समस्या का हल प्रो. सौमित्र चटर्जी ने सुदूर संवेदन तकनीक के जरिए निकाला है।

विशेषज्ञों ने इस तकनीक के बारे में बताया कि किसी वस्तु या परिवर्तन का बिना उसके संपर्क में आए उपग्रह के माध्यम से अध्ययन किया जाता है। उपग्रह से मिले चित्र खुलासा कर देते हैं कि किस इलाके में जमीन कैसी है और उसकी अंदरूनी संरचना कैसी है। कहां पानी बचाया जा सकता है और किस हिस्से में पानी रह सकता है। इसके बाद चैकडेम बनाए जाते हैं।

नई दिल्ली और राजस्थान में इस तकनीक का प्रयोग हो चुका है। जल योद्धा हरदेव सिंह जडेजा के अनुसार यह तकनीक जल संरक्षण में काफी उपयोग में लाई जा रही है। राजस्थान, गुजरात का सौराष्ट्र, आंध्र का रायल सीमा, महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड और कर्नाटक के कुर्ग जैसे क्षेत्रों के लिए यह तकनीक बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। यह वे इलाके हैं जहां तीन साल में एक बार अल्प वर्षा और चार साल में एक बार अति वर्षा होती है फिर भी यह इलाके पेयजल की किल्लत झेलते हैं।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ आधिकारिक तौर पर पहला राज्य है जहां प्रमुख नदी शिवनाथ का 23.5 किमी का हिस्सा बीस साल के लिए रेडियस वाटर लिमिटेड के हवाले कर दिया गया। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष एवं पूर्व विधायक जनक लाल ठाकुर के अनुसार यह तो वैश्वीकरण की हद हो गई। पानी के निजीकरण के मुद्दे पर वह कहते हैं, यह महज पानी का नहीं, बल्कि सरकार की नीयत में खोट आने का मामला है। अब लोगों को जागरूक होना होगा। पुराने बांध जहां खेती के लिए होते थे वहीं नए बांध महज औद्योगिक विकास के काम आ रहे हैं।

राजस्थान के अलवर में जल-क्रांति लाने में लगे तरुण भारत संघ के राजेंद्र सिंह यानी वाटरमैन जागरूकता लाने के प्रयासों में लगे हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सिंह अपनी सफलता का श्रेय उस देशज ज्ञान और पारंपरिक समझ को देते हैं जो समय की कसौटी पर खरी साबित हुई। आज उनके बनाए जोहड़ों ने रेगिस्तान में तब्दील हो रहे अलवर को हराभरा कर दिया।

सरकार नौकरशाही और वैज्ञानिकों का एक बड़ा हिस्सा भले ही इस पारंपरिक ज्ञान को अव्यवहारिक मानता है, लेकिन प्रेमजी भाई पटेल, श्याम जी भाई, पूना भाई जैसे जल दूत विभिन्न इलाकों में मौन क्रांति लाने में लगे हुए हैं।

श्याम जी भाई अंटाला पिछले दो दशकों में तीन लाख से ज्यादा कुएं रिचार्ज (पुनर्भरण) कर चुके हैं। वह कहते हैं कि सौराष्ट्र में 1964, 1972, 1985, 1986 एवं 1987 में सूखा पड़ा, लेकिन 1988 में भारी बारिश हुई और लोगों ने सोचा कि कुएं में पानी भर लेना चाहिए।

वह मानते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। इससे बचना है तो बुजुर्गों के उन अनुभवों का लाभ उठाना चाहिए जो चैकडेम, पोखर, तालाब और कुएं के जरिए जलापूर्ति में काम आ रहे थे।

हम शायद यह भूल गए कि इस देश में कुएं पूजन की परंपरा है और हमने कुएं और जल स्रोतों को खराब करना शुरू कर दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि एक घर के ऊपर जितना पानी गिरता है। वह उस परिवार की वार्षिक जरूरत से पांच गुना तक अधिक होता है। छत के पानी को बटोर कर आसानी से साल भर के पेयजल की व्यवस्था हो सकती है।

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पेय जलापूर्ति से निपटने और बढ़ती आबादी के बीच संतुलन बिठाने के लिए विकसित राष्ट्रों की तर्ज पर पेयजल के संबंधित विभागों को सर्वोच्च प्राथमिकता देने पर विचार करते हुए संवैधानिक शक्तियां प्रदान करनी होगी। साथ ही राज्यों में पेयजल के वितरण और प्रबंधन के लिए सरकारी योजनाओं में जन भागीदारी को प्राथमिकता देनी होगी।

छत्तीसगढ़ की नदियाँ और तालाब


छत्तीसगढ़ में अनेक नदियाँ हैं। प्रमुख नदियाँ हैं - महानदी, शिवनाथ, खारुन, पैरी।
महानदी -
महानदी सिहावा पर्वत से निकलती है। महानदी उत्तर पूर्व की ओर बहती हुई धमतरी और राजिम होती हुई बलौदा बाजार की उत्तरी सीमा तक पहुँचती है। इसके बाद महानदी अपने धुन में बहती-बहती पूर्व की ओर मुड़कर रायपुर को बिलासपुर जिले से अलग कर देती है।

गर्मियों में महानदी सूख जाती है। पर बारिश होने के बाद उसका रुप बदल जाता है। जुलाई से फरवरी में उसमें नावें भी चलती हैं। पहले तो महानदी और उसकी सहायक नदियों के माध्यम से छत्तीसगढ़ में पैदा होने वाली वस्तुओं को समुद्र के निकट स्थित बाजारों तक भेजा जाता था। महानदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हैं - हसदो, जोंक व शिवनाथ।

शिवनाथ -
यह नदी महानदी की प्रमुख सहायक नदी है। दुर्ग जिले को दक्षिण-पश्चिम सीमा से निकलती है शिवनाथ और फिर उत्तर की ओर बहती हुई रायपुर जिले के बलौदा बाजार तहसील के उत्तरी भाग में जाकर महानदी में मिल जाती है। महानदी और शिवनाथ जहाँ मिलती हैं, वह जगह जैसर गाँव के नजदीक है। शिवनाथ नदी के कुछ भागों में सिर्फ वर्षा के समय ही नावें चलती हैं। और कहीं-कहीं कुछ भागों में जुलाई से फरवरी तक नावें चलती हैं।

खारुन -
शिवनाथ अगर महानदी की प्रमुख सहायक नदी है तो खारुन है शिवनाथ की प्रमुख सहायक नदी। खारुन नदी निकलती है दुर्ग जिले के संजारी से और फिर रायपुर तहसील की सीमा से बहती हुई सोमनाथ के पास शिवनाथ नदी में मिल जाती है। इसी जगह पर यह बेमेनय और बलौदाबाजार तहसील को अलग करती है। बलौदाबाजार के उत्तर में अरपा नदी, जो बिलासपुर जिले से निकलती है, शिवनाथ से आ मिलती है। हावड़ा नागपुर रेल लाइन इस खारुन नदी के ऊपर से गुजरती है। खारुन में एक शान्ति है जो देखने वालों को अपनी ओर खींचती हैं।

पैरी -
पैरी भी महानदी की सहायक नदी है। पैरी निकलती है वृन्दानकगढ़ जमींदारी से। उसके बाद उत्तर-पूर्व दिशा की ओर करीब ९६ कि.मी. बहती हुई राजिम क्षेत्र में महानदी से मिलती है। पैरी नदी धमतरी और राजिम को विभाजित करती है। पैरी नदी के तट पर स्थित है राजीवलोचन का मंदिर। राजिम में है पैरी, महानदी और सोंढू नदियों का त्रिवेणी संगम-स्थल।

तालाब और छत्तीसगढ़ -
छत्तीसगढ़ में तालाबों की संख्या बहुत ज्यादा है। ये तालाब वर्षा के पानी से भरते हैं। शहरों में तालाब भर कर मकान बनाये जा रहे हैं जो भविष्य में पानी की समस्या के रुप में प्रकट होगा। रायपुर, छत्तीसगढ़ की राजधानी में बीस साल पहले ढेर सारे तालाब हुआ करते थे। आज जगहों के नाम से पता चलता है कि वहाँ पहले तालाब हुआ करता था। वहाँ के बहुत सारे जगहों का नाम तालाब के साथ जुड़ा हुआ है - जैसे कटोरा तालाब, बूढ़ा तालाब आदि। गाँव में भी तालाबों की संख्या दूसरे क्षेत्र से कई गुना अधिक है।

बूँद बूँद कर बना सरोवर

बूंद-बूंद से सागर कैसे भरता है इसकी मिसाल बिहार के माणिकपुर गांव में देखी जा सकती है। पटना से करीब सौ किलोमीटर दूर इस गांव के कमलेश्वरी सिंह ने सात साल तक अकेले ही खुरपी और बाल्टी की मदद से 60 फीट लंबा-चौड़ा और 25 फीट गहरा तालाब खोद डाला। आज जब दक्षिण बिहार के ज्यादातर गांवों के तालाब और कुएं पानी का संकट झेल रहे हैं, कमलेश्वरी के पसीने की बूंदों से तैयार ये तालाब लबालब भरा है।
माणिकपुर भी बिहार के कई उन गांवों की तरह ही है जहां बीते दो दशक में कुछ नहीं बदला। 2000 की आबादी वाले इस गांव में बिजली और सिंचाई के साधन पहले की तरह आज भी नदारद हैं। लेकिन 63 साल के कमलेश्वरी की उपलब्धि ने गांव को अचानक सुर्खियों में ला दिया है। उनकी तुलना दशरथ मांझी से होने लगी है जिन्होंने अकेले ही पहाड़ काटकर सड़क बनाने का असाधारण कारनामा कर दिखाया था। साल भर पानी से भरे रहने वाले तालाब का पानी गांववालों की प्यास बुझाने के साथ-साथ सिंचाई के काम भी आ रहा है।

कमलेश्वरी की उपलब्धि कई मायनों में असाधारण है। एक छोटी सी खुरपी लेकर सात साल तक खुदाई करने के लिए हौसला हर तेज धूप में पसीने से तरबतर एक इंसान को छोटी सी खुरपी के साथ खुदाई करते देखकर पूरा गांव हंसता था। लेकिन मिट्टी खोद रहे कमलेश्वरी खुद भी किसी अलग ही मिट्टी के बने थे।

किसी के पास नहीं होता। 15 साल पहले उनके पास 12 बीघा जमीन हुआ करती थी। लेकिन गैंगवार में उनकेबड़े बेटे की हत्या कर दी गई और उसके बाद कमलेश्वरी कानूनी लड़ाई के जाल में कुछ ऐसा उलझे कि इसका खर्च उठाने के लिए उन्हें सात बीघा जमीन बेचनी पड़ी। अदालतों के चक्कर से उकताए कमलेश्वरी ने एक दिन अचानक फैसला किया कि केस रफादफा कर किसी रचनात्मक चीज पर ध्यान लगाया जाए। क्या करना है ये सोचने में देर नहीं लगी और 1996 की गर्मियों में कमलेश्वरी ने घर के पास अपने खेत में तालाब के लिए खुदाई कर दी
तेज धूप में पसीने से तरबतर एक इंसान को छोटी सी खुरपी के साथ खुदाई करते देखकर पूरा गांव हंसता था। लोग उन्हें तालाबी बाबा कहकर चिढ़ाते थे। परिवार ने भी उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन मिट्टी खोद रहे कमलेश्वरी खुद भी किसी अलग ही मिट्टी के बने थे। खुदाई के लिए उन्होंने खुरपी इसलिए चुनी क्योंकि फावड़ा भारी होने के कारण उससे काम करना मुश्किल था। खुरपी से मिट्टी खोदी जाती और बाल्टी में भरकर उसे फेंका जाता। सुबह छह बजे से शाम के सात बजे तक काम चलता रहता था।

सात साल की मेहनत के बाद आखिरकार तालाब तैयार हो ही गया। आज गर्मियों में भी तालाब में इतना पानी रहता है कि गांव को नहाने, कपड़े धोने और जानवरों के लिए पानी का इंतजाम करने की चिंता नहीं होती। चिंता पहले थी जब कुल जमा पांच हैंडपंप गांव की अलग-अलग जातियों की तरह ही आपस में बंटे हुए थे। लेकिन तालाब भेदभाव से आजाद है। ये बिना जाति पूछे हर किसी की प्यास बुझाता है और गांव के खेतों को पानी देता है। तालाब के किनारे कमलेश्वरी के लगाए हुए आम और जामुन जैसे दर्जनों फलदार पेड़ लहलहा रहे हैं। कभी कमलेश्वरी पर हंसने वाले गांववाले अब उन्हें कमलेश्वरी बाबा कहकर बुलाते हैं।

गांववालों की जिंदगी तालाब से भले ही कुछ सरल हो गई हो, कमलेश्वरी की जिंदगी की मुश्किलें जस की तस हैं। तीन बेटियों की शादी और बेटे के कत्ल के बाद कानूनी लड़ाई में उनके सारे संसाधन चुक गए। छोटा बेटा बेरोजगार है और परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी आसान नहीं। कमलेश्वरी और उनके तालाब का किस्सा भले ही पटना में बैठे बड़े लोगों की जुबान पर हो पर स्थानीय नेताओं और अधिकारियों यहां तक कि गांव के सरपंच और मुखिया ने भी कभी इस तालाब तक आने की जरूरत नहीं समझी। गांव के विकास का मुद्दा उठाने के लिए कमलेश्वरी जल्द ही मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के जनता दरबार में हाजिरी लगाना चाहते हैं। तालाब पर आज भी काम जारी है और कमलेश्वरी की खुरपी अब उसके रखरखाव में जुटी है।

अनंत एसटी दास
साभार- http://www.tehelkahindi.com/UjlaaBharat/BharatKiUjleeTasveer/48.html

नदी दोहन की मार झेलते छत्तीसगढ के गांव

:: छत्तीसगढ से तेजेन्द्र ताम्रकर ::
कुछ वर्ष पहले शिवनाथ नदी उस समय चर्चा में आ गई जब सरकार ने एक प्राइवेट कंस्ट्रक्शन कंपनी को यह नदी लीज पर दी. नदी के २३.६ कि.मी का क्षेत्र इस कंपनी को अगले २२ वर्षों के लिये लीज पर दिया गया था पर असली मामला तब शुरू हुआ जब नदी के पानी के उपयोग को लेकर कम्पनी के कर्मचारियों और बांध के किनारे बसे मोहलाई गांव के लोगों के बीच झडप होने लगी.

गांव वालो के मुताबिक पहले तो इस कम्पनी की ओर से पानी का उपयोग नहीं करने के लिए नोटिस मिला और बाद में कंपनी के कर्मचारी नदी से लगे पम्प को निकालने गांव पहुंचे. नदी के २३.६ कि.मी. के क्षेत्र में २२ वर्ष के लिये मछुआरों के जाल भी काटे जाने लगे. ग्रामीणों के आक्रोशित होने और बाद में स्थानीय संगठन के सहयोग और हस्तक्षेप के बाद यह मसला पूरी तरह शंात हो गया . वर्तमान में बंाध के ऊपर की ओर बसे गांव महमरा और मोहलई के लोग नदी के पानी का भरपूर उपयोग कर रहे है. लेकिन हालात कल बदल सकते हैं. इसका डर गांव वालां को हमेशा सताता है.

छत्तीसगढ अपने परम्परागत जल स्रोतों जैसे छोटे-तालाब, डबरी, कुआं आदि के माध्यम से जल संग्रह के लिए जाना जाता है. यहां के गांवों म बहुत से छोटे-बडे तालाब देखे जा सकते है यहां तक कि कई गंाव में तो १०से १५ तालाब भी है. जिसका उपयोग खेती , पशु पालन , नहाने धोने और मछली पालन के लिये किया जाता ह. लकिन शिवनाथ नदी के किनारे बसे इन गांव की हालात ऐसी नहीं है. गांव वाले पानी के लिये पूरी तरह से नदी पर निर्भर करते हैं. नदी के पानी से ये लोग छोटे पैमाने पर तरबूज, खरबूज, पपीता, साग-भाजी आदि पैदा करने में सक्षम हो रहे हैं. पर यह स्थिति नीचे के गांव की नहीं है. मलौद और बेलौदी जैसे गांव में पानी के लिये हाहाकार मचा हुआ है. कुछ वर्ष पूर्व तक यहंा बडी मात्रा में अमरूद के बगीचे थे. पानी की कमी के कारण ये सब धीरे- धीरे सुखते जा रहे हैं. इस बारे में बेलौदी के सरपंच पति बताते हैं कि अमरूद गांव वालो के लिये आय का एक बहुत बडा स्त्रोत था. यहां के अमरूद आस पास के राज्य में भी जाते थे. पर अब इससे आय नहीं होती.

वैसे तो इंजीनियरों को कहना है कि शिवनाथ नदी के पानी को बांधने से फायदा गांव वालों को ही हुआ है. उनके अनुसार पहले पानी आगे की ओर बह जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. पर उनका यह भी कहना है कि ऐसा करने से पानी का पूरा दोहने खास जगहों पर ही होता है. जिससे नीचे के गांवो को पानी की दिक्कत का सामना करना पडता है.

साथ ही रसमडा मे उद्योगपतियों द्वारा नदी के आस पास का पूरा इलाका सरकार एवं किसानों से खरीद लिया गया है. इससे रसमडा के लोगो का नदी के पानी का उपयोग करना तो दूर,, नदी तक पहुंचना भी मुश्किल है. पूरे जगह को घेरे दिया गया है. रसमडा के ेग्रामीण खत के बिक जाने से खेती भी नही कर पा रहे है, पर्याप्त उद्योग नही लगने से रोजगार भी नहीं मिल रहा है. इन गांव मे केवट, निषाट ,ढीमर आदि मछुआरे जाति के लोग भी बहुत है और कुछ परिवार तो पूरी तरह से आजिवीका के लिए नदी पर ही निर्भर है. लेकिन अब धीरे -धीरे नदी के पानी मे कमी आने और पर्याप्त मछली नहीं मिलने के कारण अब ये लोग मेहनत मजदूरी के लिये गांव से पलायन कर रहे है.

स्थिति आज शायद गम्भीर नहीं है लेकिन अगर यह लगातार चलता रहा तो आने वाले समय में जरूर पानी की बहुत बडी समस्या उत्पन्न हो जायेगी. आश्र्च्य की बात है कि शिवनाथ नदी जैसा हाल छत्तीसगढ के बहुत सी नदियों का है लेकिन उस पर चिंता करने वाला कोई नहीं है.

(संवाद मंथन)
साभार- http://newswing.com/?p=645

आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-1

राकेश दीवान

छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख शहर है राजनांदगांव, जो देश की शुरुआती कपड़ा मिलों में से एक 'बंगाल-नागपुर काटन मिल्स' (बीएनसी मिल्स) और उसी जमाने के संघर्षशील मजदूर यूनियन के कारण जाना जाता है। लेकिन वहां के चिमटा बजाकर भजन गाने वाले बैरागी राजाओं द्वारा बनवाया गया विशाल रानीसागर तालाब और शिवनाथ नदी से भाप के इंजन लगाकर लाए गए पानी और उसके वितरण के लिए बना इलाके का पहला 'वाटर वर्क्स' उतने प्रसिद्ध नहीं हैं।

इसी राजनांदगांव में वर्षों पहले बनी इलाके की पहली नगर पालिका ने ऐसे तीन फैसले लिए थे जिनका संबंध पानी या पानी के स्त्रोतों से था। 22 दिसंबर 1889 को हुई पहली, 2 फरवरी 1890 को हुई दूसरी और 2 जुलाई 1892 को हुई अपनी तीसरी बैठक के दौरान बनी एक समिति ने एक तो गंज के कुएं पर 153 रुपए आठ आने, अस्पताल के कुएं पर 405 रुपए और बाजार के कुएं पर 293 रुपए छह आने यानी कुल 851 रुपए 14 आने खर्च की रकम मंजूर की थी। दूसरे फैसले में गंज के तालाब में नहाने धोने की पाबंदी को हटा दिया गया था ताकि लोगों को इससे होने वाली परेशानियों से बचाया जाए। तीसरे फैसले में पुलिस महकमें को हर घर के सामने पानी से भरे दो घड़े रखवाने का आदेश दिया गया था ताकि आग लगने पर बुझाया जा सके। उन दिनों फायर ब्रिगेड जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी।

स्थानीय निकाय की इस जनहित की कार्यवाही के 64 साल बाद समाज ने भी पानी के प्रति ऐसा ही एक और सरोकार दिखाया था। 1954-55 में शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी बजरंग महाराज ने भरकापारा के तालाब की गंदगी से दुखी होकर आमरण अनशन की घोषणा की थी। सरकार या किसी स्थानीय निकाय की बजाय समाज को चेताने के लिए किया गया यह अनशन कुल तीन दिन चला था कि समाज ने तालाब की सफञई का काम उठा लिया।

पत्रकार और तब के युवा रमेश याज्ञिक बताते हैं कि पूरे शहर के गरीब-अमीर, जातियों के बंधन तोड़कर दो-दो घंटे तालाब पर स्वेच्छा से काम करते थे। कुछ ही दिनों में आज के बस स्टैंड के पास मौजूद भरकापारा तालाब अपने निर्माण के सौ सवा सौ साल बाद साफ कर दिया गया। पानी या प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सरोकार के ऐसे उदाहरणा दरअसल संपन्न समाजों के लक्षण हैं और संपन्नता सिर्फ पैसे धेले से नहीं नापी जाती।

इतिहास पर धूल को जरा सा झाड़कर देखें तो छत्तीसगढ़ में 'पर्वतदान' सरीखी परंपराएं आसानी से देखी जा सकती हैं। पर्वतदान यानी अच्छी फसल पकने पर धान के बड़े-बड़े पहाड़नुमा ढेर बनाकर उसके बीच सोना, चांदी पैसा आदि गुप्त रूप से रखकर दान करने की परंपराएं अभी कुछ साल पहले तक कई गांवों में आम बात थी। गतौरी, रतनपुरा, खैरा-
डगनिया, मुंगेली, ब्रम्हदा, मल्हार आदि कई गांवों में 'पर्वतदान' होते थे।

रतनपुर में तो अभी 1950-51 के साल तक 'पर्वतदान' किए गए थे। आज के कृपण मन को यह जानकारी चौंका सकता है। पर्वतदान करने वाले गांव आज भी विपन्न तो नहीं कहे जा सकते।

छत्तीस गढ़ों वाले छत्तीसगढ़ की इस संपन्नता का कारण जाहिर है घने, हरे भरे जंगल और धान पैदा कर पाने के लिए उत्तम जलवायु वाली धरती। असल में छत्तीसगढ़ भौगोलिक रूप से एक कटोरे के आकार का इलाका है। आसपास के पहाड़ों से घिरी और बीच में मैदान की तलहटी एक कटोरे का आकार बनाती है। छत्तीसगढ़ को, उत्तर में सतपुड़ा की ऊंची-नीची जमीनों के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियों का 80 से 100 मील लंबा मैदान और दक्षिण में बस्तर का पठार, इन तीनों भागों में बांटा जा सकता है। मैकल, रायगढ़ और सिहावा पहाडियों से घिरे तथा महानदी और उसकी सहायक शिवनाथ, मांड़, खारून, जोंक, हसदो आदि नदियों से सिंचित इस इलाके में औसतन साठ इंच वर्षा होती है। लगभग 51888 वर्गमील में फैला और दो करोड़ से अधिक आबादी वाला छत्तीसगढ़, रायगढ़, कोरबा, कवर्धा, जांजगीर, जशपुर, कोरिया, बिलासपुर, सरगुजा, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव, धमतरी, महासमुंद, कांकेर, दंतेवाड़ा और बस्तर जिले में समाया है। पानी की व्यवस्था भी भूगोल की इसी बनावट के आधार पर हुई है।

पहाड़ों और उनके घने जंगलों के कारण बारहमासी नदियां-सोते भरे पड़े हैं। वहीं मैदानी क्षेत्रों में असंख्य तालाबों, डबरों का ताना-बाना रचा गया है। पहाड़ी इलाकों में हर कहीं पानी की इफरात है और लोग भी कम रहते हैं इसलिए आमतौर पर कोई पक्का ढांचा बनाकर उसे साल भर रखने का पुख्ता इंतजाम नहीं किया गया है। लेकिन मैदानी क्षेत्रों को बरसात का पानी पूरे साल वापरना होता है और कभी-कभी मौसम की नाराजगी से ना गिरने वाले पानी की भरपाई भी करनी होती है। इसलिए यहां छोटे-बड़े कई तरह के तालाबों, डबरियों, बंधिया-बंधानों आदि की कारगर व्यवस्था की गई है।

क्रमश:
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आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-2

राकेश दीवान
जँगल, पहाड़ों के इलाके में नई-पुरानी हर बसाहट छोटी-छोटी नदियों, नालों के आसपास हुई है। इनके बारे में साल के कुछ महीने पानी होने की प्रचलित आम समझ के उलट घने जंगलों के कारण इनमें बारहों महीने पानी बना रहता है। रोज के निस्तार और थोड़ी बहुत सिंचाई के लिए तो इनसे सीधे ही पानी ले लिया जाता है, लेकिन पीने के पानी में थोड़ी सावधानी बरती जाती है। नदी, नालों के किनारे की रेत को थोड़ा-सा खोदकर बनाए गए गङ्ढे से मिलने वाला छना हुआ साफ पानी पीने के काम आता है। पानी इनमें धीरे-धीरे झिरकर इकट्ठा होता है इसलिए इनहें झिरिया या झरिया कहा जाता है। कभी-कभी इनहें 2-3 हाथ खोदकर गहरा कर देते हैं और तब इनहें नाम दिया जाता है- 'झिरिया कुआं।' कुछ बस्तियां पहाड़ों से निकले सोते के पानी को पीने के काम में लाती हैं। इन स्रोतो को 'तुर्रा' कहा जाता है। पहाड़ों की तलहटी में बसे कई गांवों को जंगलों के कारण रुका हुआ पानी धीरे-धीरे
मिलता है। बीच खेत में 3 से 4 हाथ तक खोदकर पानी लेने के तरीके को 'ओगरा' कहते हैं। दरअसल पानी से जुड़ी पध्दतियां सिर्फ संज्ञा ही नहीं क्रियाएं और प्रक्रियाएं भी होती हैं। मसलन झिरिया सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं बल्कि कहीं भी इस तरह से मिलने वाले पानी की प्रक्रिया को कहते हैं। ये झिरियाएं छोटी-मोटी नदी का स्रोत होती हैं। रायपुर के पास से बहने वाली खारुन नदी पर 20-22 कि.मी. पीछे जाएं तो ऐसी 8- 10 झिरियाएं नदी में पानी डालती देखी जा सकती हैं। एक अनुमान के अनुसार महानदी के इलाके में करीब सौ जगहों पर ऐसी सततवाही झिरियाएं मिल सकती हैं। इसी तरह 'ओगरा' आगोर यानी 'जलग्रहण क्षेत्र से मिले पानी के कारण निर्मित स्रोत को कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में पेयजल का एक बारहमासी स्रोत होता है जिसे रायगढ़, सरगुजा के इलाके में ढोढ़ी, डाढ़ी या तूसा कहते हैं और बस्तर, सिहावा के इलाके में तूम। उरांव भाषा में पेड़ों के खोखले तने को ढोढ़ कहते हैं और शयद मारिया भाषा में तूम का भी यही अर्थ होता है। यह पहाड़ों की तराई में खेतों के बीच आपरूप फूटा पानी का सोता होता है। 3-4 हाथ गहरे इन स्रोतों को पानी में सदियों टिकी रह पाने वाली जामुन या सरई की लकड़ी के खोखले तने से पाट दिया जाता है। कभी-कभी ये स्रोत चौड़े हो जाते हैं और तब इन्हे जामुन या सरई की लकड़ी की ही चौकोन पाटी बनाकर पाटा जाता है। जामुन, सरई, सागौन और सिघँदर जिसे उरांव भाषा में खोखड़ो कहते हैं पानी में टिकी रह सकने वाली लकड़ी होती है। एक कहावत है कि सरई
के पेड़ 'सौ साल खड़े, सौ साल अड़े सौ साल पड़े तभो ले नइ सरे (सड़े)'। 'तूम' या 'ढोढ़ी' में पानी की आवक एक तो जंगल के पेड़ों में रुके पानी के धीरे-धीरे झिरने से होती है और दूसरे पूरे खेत के आगोर से भी इन्हे पानी मिलता है। बाजारों में मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले पानी से कई गुना साफ और निर्मल पानी देने वाली ढोढ़ियां या तूम छतीसगढ़ के लगभग हर पहाड़ी गांव को पानी पिलाती हैं। रायगढ़ जिले के कस्बे पथलगांव के सूखे कठिन
समय में पानी देने का काम करने वाली प्रेमनगर और ढोढ़ीटिकरा मोहल्ले की दो ढोढ़ियां अब भी लोगों की याद में बसी हैं। जशपुर नगर में हर कभी नगरपालिका का टेंकर तालाब के किनारे बनी पक्की डाढ़ी से पानी लेकर शहर में बांटता देखा जा सकता है। लोगों का कहना है कि महीने में बीस-बाइस दिन तो बिजली फेल हो जाने, पंप बिगड़ जाने या पाइप लाइन फट जाने से लावा नदी से लाई जाने वाली नगरपालिका की जलवितरण व्यवस्था ठप पड़ी रहती है। ऐसे में सदियों पहले बनी और सन 35-36 में पक्की की गई यह पक्की डाढ़ी पूरे कस्बे की पेयजल की जरूरतें पूरी करती है। पहाड़ी इलाकों के निचाई के कई खेतों को पझरा खेत इसलिए कहा जाता है क्योँकि इनमें आसपास से पानी पझरता या रिसता रहता है। इन खेतों में 6-7 हाथ के गङ्ढे बनाकर ऊपर लकड़ी रखकर पानी निकाला जाता है। इस तरह उथले कुंओं, ढोढ़ियों और नदी-नालों से पानी निकालने के लिए टेढ़ा उपयोग किया जाता है। टेढ़ा यानी एक लंबी मजबूत लकड़ी के पीछे पत्थर का वजन और आगे के सिरे पर रस्सी से एक बर्तन बांधकर बीच के खूंटे पर टिकाया जाता है। बच्चो के खेल की तरह की इस पध्दति में पानी उलीचने के अलावा कमर-पीठ की कसरत भी होती है और लोगों का कहना है कि टेढ़ा से पानी निकालने के कारण वे पीठ दर्द, कमर दर्द आदि की झंझटों से मुक्त रहते हैं।
टेढ़ा से निकले पानी को बांस या फिर सरई की लकड़ी के पाइप यानी 'डोंगा' के जरिए बाड़ी में पहुंचाया जाता है। असल में टेढ़ा का पानी आमतौर पर घर के पिछवाड़े साग-भाजी के लिए रखी गई बाड़ी में ही पहुंचाया जाता है। पझरा खेतों में कहीं-कहीं छोटे-मोटे तालाब भी बन जाते हैं और इन्हे तरई, डबरी, खुदरी, खुदरा या खोदरा भी कहा जाता है। बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में भी पानी तो झिरिया, नदी, नालों से ही लेते हैं लेकिन इनके किनारे बनाए जाने वाले 'चुहरा' या 'तूम' को बांस की चटाई से पाट दिया जाता है। कहीं-कहीं नए लोगों ने पीपा के टीन को भी पाटने के काम में लगाया है। बरसों से सरकारी अनुमति लेकर ही प्रवेश कर पाने वाले इस इलाके में पानी के लिए पहाड़ों से बारहमासी सोते होते हैं, छोटी-छोटी नदियां नाले हैं और जगह-जगह तूम हैं। पहाड़ों से गिरने वाले पानी से बांस का पाइप लगाकर यहां भी नल का मजा ले लिया जाता है। आमतौर पर तरई करीब एक एकड़ की छोटी तलैया होती है और तलैया करीब आधा एकड़ की। ये तरई, तलैया पानी के आसपास के पहाड़ों से रिसने या झिरपने के कारणा बन जाती है और इनका पानी पीने लायक भी होता है। इन तरई, तलैयों में कई तरह की वनस्पति, फूल पैदा किए जाते हैं जिनसे पानी साफ बना रहता है। इनमें बोडेंदा फूल ऐसी वनस्पति है जिससे पानी तो साफ रहता ही है लेकिन गर्भवती महिलाओं को खिलाने से भी फायदा होता है। शयद इस फूल में लोहत्तव की मात्रा रहती है। इसी तरह जलकनी, कस्सा घाँस आदि भी पानी की सफाई के उपयोग में लाई जाती है। तूम या ढोढ़ी के अलावा पेयजल, निस्तार और सिंचाई का एक और सर्वव्यापी साधन कुंआ या चुंआ होता है। जंगलों, पहाड़ों से रिसने वाले पानी और व्यापक रूप से तालाबों की मौजूदगी में छत्तीसगढ़ में कुंओं को खोदना आसान होता है। भूजल स्तर काफी उथला होता है और इनमें लगातार पानी की आवक भी होती रहती है। कुंआ खोदने का काम तो हालांकि गांव समाज के सामान्य ज्ञान के आधार पर कोई भी कर लेता है लेकिन इनकी ठीक जगह
जहां से निर्बाध पानी मिलता रहे, बताने वाले विशेषज्ञ कुछ ही होते हैं।
ये विशेषज्ञ अपनी-अपनी तरकीबों से पानी की उपलब्धता मात्रा , चट्टानें गहराई आदि का ठीक-ठाक हिसाब लगाकर बता देते हैं। आधुनिक जल विशेषज्ञो के पास इस ज्ञान का अब तक कोई तर्क या विज्ञान नहीं बन पाया है लेकिन कमाल है कि ग्रामीण विशेषज्ञो की बताई जगहों पर कुआं खोदने पर इक्का दुक्का अनुभवों को छोड़ दें तो सौ टंच सही पानी मिल ही जाता है। (जारी)

आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-3

राकेश दीवान

बिलासपुर जिले के डभरा गांव के पास एक जोसी है जिनके बारे में कहते हैं कि उन्हे जमीन में पानी की आवाज सुनाई देती है। वे सिर्फ धरती माता पर कान लगाकर बता देते हैं कि कितने हाथ पर कैसा कितना पानी और बीच में कितने हाथ पर रेत और पत्थर मिलेंगे। ये जोसी सबरिया जाति के
हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये चूंकि आंध्रप्रदेश से बरसों पहले सब्बल लेकन मिट्टी का काम करने के लिए यहां आए थे इसलिए उन्हे सब्बलिया या सबरिया कहा जाता है। एक नाता रामायणा की प्रसिध्द शबरी से भी बैठाया जाता है। जिसने साक्षात भगवान को ही जूठे बेर इसलिए खिलाए थे ताकि उन्हे खट्टे या जहरीले फल न मिलें। सबरिया इसी शबरी भील के वंशज बताए जाते हैं। इसी तरह बस्तर के कोंडागांव में पूर्व कृषि अधिकारी श्री उइके हैं जो कमर में जामुन की डगान बांध कर कुआं खोदने के प्रस्तावित क्षेत्र में घुम जाते हैं। यह करते हुए उनकी जामुन की मामूली डगान उन्हे बता देती हैं कि कहां पर कुआं खोदना सबसे उपयुक्त होगा । श्री उइके का कहना है कि आज तक सिर्फ दो जगहों पर वे कुछ कारणो से फेल हुए हैं हालांकि उन्हे दूर दराज के इलाकों से बुलाकर कुआं खोदने की जगहों की पहचान करवाई जाती है। ऐसे ही एक गुनिया हैं जो बैठे बैठे जमीन की गरमी ठंडाई का अंदाजा लगाकर पानी होने न होने की बात बता देते हैं। वे मानते हैं कि जहां जमीन ठंडी होगी वहां जरूर पानी होगा। चांपा के पास एक बाबा थे जिन्हे रसातल की आवाज सुनाई देती थी। वे इसे सुनकर पानी की पक्की जानकारी दे देते थे। एक और तरीका नदी नाले सरीखे जलस्रोत से एक पत्थर लाकर उसे धागे में बांधकर जमीन पर फिराने का है। जहां यह पत्थर घुमना शुरू कर दे वहां पानी माना जाता है और यह जितनी बार .घुमे उतने हाथ पानी होगा। इस तरीके से चट्टानों और उनकी मोटाई का पता भी चल जाता है। हालांकि यह बहुत कम लोगों के बस की बात है। लेकिन इस तरह बने कई कुंज आज भी मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे इलाकों में थोड़ी विनम्रता से देखें तो कई ऐसे विशेषज्ञ मिल जाएंगे जो निन्यानबे प्रतिशत तक सही साबित होते हैं। इतनी ग्यारंटी तो हमारे बाकायदा पढ़े लिखे विशेषज्ञ भी नहीं दे पाते।

सही जगह मिल जाने पर कुआं खोदने का काम होता है। पूस, मास या अधिक से अधिक चैत तक कुआं खोदने का काम शुरू हो जाता है। ताकि बैशाख-जेठ तक काम पूरा हो जाए। भर गर्मी के इन महीनों में पानी निकलने का मतलब होता है बारहों महीने पानी की आपूर्ति।

खुदाई के साथ साथ कुओं की चिनाई का काम भी चलता है। बांस तरी होने के कारणा पहचाने जाने वाले बस्तर में बांस की चटाई से कुएं पाटे जाते हैं। कई जगहों पर सरई या जामुन की लकड़ी के चाक बनाकर उन्हे कुओं में उतारा जाता है। ये चाक लकड़ी के चौकोन या वर्गाकार फ्रेम होते हैं जो कुएं में एक एक करके खुदाई के साथ ही उतारे जाते हैं। आज के उपयुक्त तकनीक के हल्ले में नई ईजाद कहकर बनाए जाने वाले मिट्टी के सस्ते रिंग और इसके लिए खड़ी की जाने वाली धनी संस्थाओं के बहुत पहले से इन आदिवासी कहे जाने वाले इलाकों में ये रिंग कुएं पाटने की जिम्मेदारी निभाते आ रहे हैं।भाठा जमीनों में जहां कुएं और तालाब नहीं खोदे जाते, को छोड़कर छतीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रो में भी कुएं खूब हैं। रायपुर के पास के आरंग शहर में करीब 40 कुएं हैं और पूरे ब्लाक में कुओं की संख्या 3057 बताई गई है। दुर्ग में यूं तो पानी आम तौर पर खारा है लेकिन पूरे शहर को पेयजल देने वाले दो कुएं आज भी प्रसिध्द हैं जिनमें छीतरमल धर्मशाला का कुआं एक है। बस्तर के गांव फुक्का गिरोला में बना कुआं लकड़ी के रिंग या चौखट से पाटा गया है। इसमें इतना पानी है कि ऊपर से बहता रहता है।
इसके अलावा सिर्फ पत्थर से पाटकर बनाए गए चार कुएं भी इसी गांव में हैं जिनमें खूब पानी रहता है। (जारी)

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आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-4

राकेश दीवान
छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो में आबादी का घनत्व कम रहा है और उसकी पेट पूजा के लिए जंगल तैनात रहे हैं। नतीजे में अन्न की पैदावार को मैदानों की तरह का महत्व नहीं दिया गया। जंगल में पैदा होने वाली कई प्रकार की वनस्पतियां, फल, कंद, मूल भोजन का मुख्य आधार रहे हैं। अबूझमाड़ में आज भी नरम, कोमल बांस बांस्ता का पेय 'जावा' या माड़ियां पेज बहुत स्वाद से पिया जाता है और उसकी साग भी खाई जाती है। जंगल की सौगातों के अलावा पेंदा यानि झूम खेती करके उड़द, कोस्ता (कुटकी), बाजरा, माड़िया, झुणगा (बरबटी) और ककड़ी की फसलों से लोग मजे में जीते हैं। पानी के इंतजाम का तानाबाना भी खेती की इस पध्दति के अनुसार ही बनाया गया है।
करीब सौ-डेढ़ सौ सालों में सरकारी कायदे-कानूनों की आड़ लेकर लगातार जंगलों के छिनते जाने और नए जमाने के साथ एक जगह टिककर बस जाने के उत्साह में खेती पर भी जोर दिया जाने लगा और नतीजे में पानी के बड़े और स्थाई भँडार बनाने की जरूरत भी पैदा हुई। रायपुर-जगदलपुर मार्ग पर स्थित राज्य की पुरानी राजधानी बस्तर गांव में कहा जाता है कि 'सात आगर सात कोरी' यानि 147 तालाब होते थे। कोरी कम मतलब है बीस और इसके सात अतिरिक्त। गौंड सरदार जगतू के इलाके जगतमुडा को जब राजा दलपतदेव ने सन् 1772 के आसपास अपनी राजधानी बनाकर जगदलपुर नाम दिया तो वहां पहले से मौजूद झारतरई, गोंडन तरई और शिवना तरई को मिलाकर दलपतसागर तालाब भी बनाया। यह तालाब चार मील यानि करीब सवा तीन सौ एकड़ में फैला था और इसे समुंद यानि समुद्र कहा जाता था। इसके पहले नागवंशी राजाओं की राजधानी बारसूर में 1070 ई. से 1111 ई. के बीच चंद्रादित्य समुंद्र नामक तालाब बनाया गया था और इसके बीच में चंद्रदित्येश्वर मंदिर का निर्माण भी करवाया गया था। कहा जाता है कि राजा चंद्रादित्य बस्तर के नागवंशी राजा सोमेश्वर देव के ससुर थे और मंदिर तथा तालाब निर्माण करने के लिए उन्होने अपने
दामाद से पूरा गांव ही खरीद लिया था। छतीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्रो के कई कस्बों, शहरों और राजधानियों में तालाब बनाए जाते रहे हैं। कहते हैं कि आज का तीन चौथाई रायगढ़ शहर तालाबों पर बसा है। शहर की सब्जी मंडी, कॉलेज, बाजार, बस स्टै.ड कई तरह के रहवासी और दुकानों के काम्पलेक्स और समाज भवन इन्ही पुराने तालाबों पर बने हैं या बनाए जा रहे हैं। स्टेडियम के लिए तालाब पर निर्माण करने का तो शहर में जमकर विरोध किया गया था। इसी तरह जशपुर, अंबिकापुर, प.थलगांव, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, नारायणपुर आदि कस्बों-शहरों में तालाबों का तानाबाना बनाया गया था। ये तालाब मुख्यत: पेयजल, निस्तार और कहीं-कहीं सिंचाई के काम के होते थे।
रायगढ़ के आसपास लोगों ने सिंचाई से ज्यादा अहमियत जमीनों को खेती योग्य बनाने को दी। इसके लिए अपेक्षाकृत नई पद्धति विकसित की गई जिसमें ऊंचाई से आने वाले नालों को बंधान या मूड़ा बांधकर रोका जाता है। इस तरह से मिट्टी का कटाव-बहाव रूकता है और कुछ दिनों में पूरा बंधान भर जाता है। इस नए खेत के बाजू से एक नहर, जिसे पैड़ी या पाइन कहते हैं, के जरिए पानी निकाला जाता है। धीरे-धीरे सीढ़ीनुमा खेत और उन्हे पानी देने के लिए बाजू से निकलने वाली एक छोटी नहर तैयार हो जाती है। इस तरह से बनी जमीनों को 'गड्डी खल' यानि गाद से बनी जमीनें कहा जाता है। गाद भर जाने को उराव भाषा में 'पट्टी केरा' कहते हैं। इस तरह बनी पाइन आगे के खेतों को भी पानी पहुंचाती है। रायगढ़ के ग्रामीण इलाकों में इस तरह से बनाए गए कई खेत दिखाई देते हैं। अभी कुछ साल पहले 'छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा' के कुछ लोग 'नर्मदा बचाओ आँदोलन' के निमाड़-मालवा के संपन्न क्षेत्रो में गये थे और वहां तालाबों की कमी को पानी की गरीबी मानकर भौचक्के थे। वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि कोई गांव बिना तालाब के भी रह सकता है। छतीसगढ़ और खासकर वहां के मैदानी क्षेत्रो के लगभग हरेक गांव कभी-कभी एक, दो और अक्सर कई तालाबों से भरे-पूरे रहते हैं। कई गांवों में कहा जाता है कि 'छै आगर, छैर कोरी' यानि की 126 तालाब होते हैं।
भूगोल के हिसाब से देखें तो इसकी वजह यहां की गिट्टी की बनावट दिखाई देती है। मोटे-तौर पर छतीसगढ़ की मिट्टी को चार प्रकारों में बांटा जा सकता है। पहला होता है-भाठा। यह कड़ी और थोड़ी ऊंचाई पर होती है इसलिए इसमें बसाहट तो हो सकती है लेकिन उत्पादन नहीं होता। कई-कई किलोमीटर में फैली ऐसी भाठा के कारण तालाब भी बन जाते हैं। लेकिन इनमें पानी नहीं ठहरता। अलबत्ता ऐसी अनुत्पादक मिट्टी में भी आम और सागौन के विशाल बगीचे मिल जाते हैं। भाठा के बाद की दूसरी मिट्टी को मटासी कहा जाता है। इस मिट्टी में तालाब और कुएं बनाए जाते हैं क्योँकि इसमें जलस्तर करीब 25 फुट पर रहता है। मटासी के बाद तीसरी तरह की मिट्टी दुरसा या ढोर्सा कही जाती है। इसमें भी कुएं और तालाब बनाए जाते हैं, जिनमें बारहों महीने पानी रहता है। चौथी मिट्टी को कन्हार या कछार कहा जाता है। यह सबसे नीचे और नदी, नालों की सतह के बराबर होती है। सबसे बेहतरीन मानी जाने वाली इस मिट्टी में रेत भी रहती है। इसमें छोटे-कुएं या झिरिया तो बनाई जाती है लेकिन तालाब नहीं बनते। इसमें पानी का स्तर आमतौर पर 15 फुट के आसपास रहता है। कहा जाता है कि मानव बसाहट और संस्कृतियां जल-स्रोतों, नदियों, समुद्रों के किनारे बनी फली, फूली है लेकिन छ्त्तीसगढ़ में मानव बसाहट के साथ-साथ जल-स्रोत या तालाबों का निर्माण भी किया जाता रहा है। जमीनों की पहचान करके गांव बसाए जाते रहे हैं और उसी के साथ-साथ तालाबों की खुदाई भी होती रही है। आज के समाज में तो तालाब या कुंआ खोदना सभी को आता है लेकिन शुरूआत में संभवत: आंध्रप्रदेश और उड़ीसा से आने वाले मिट्टी खोदने के विशेषज्ञ यह किया करते होंगे। छ्त्तीसगढ़ में सबरिया जाति इसीलिए सब्बलिया या सबरिया कहलाने लगी है क्योँकि वे सब्बल से मिट्टी खोदने का काम कहते थे। उड़ीसा की प्रसिध्द जसमत ओढ़िन का किस्सा छ्त्तीसगढ़ ही नहीं पूर्वी भारत के उड़ीसा से लेकर मालवा-निमाड़ होता हुआ पश्चिम के गुजरात, राजस्थान तक फैला है। दुर्ग में एक लोकगीत है-
“ पहिले के रहिगे धार नगर , अबके दुरूग कहाय
धार नगर के च्म्पक भाँठा, डेरा बने नौ लाख”
आज के दुर्ग शहर में इंदिरा मार्केट से स्टेशन के रास्ते पर बना हरिनाबांधा चम्पक भाठा में नौलाख डेरे बनाकर रहने वाले इन्ही उड़िया लोगों ने राजा महानदेव के कहने पर खोदा था
“ नौ लाख ओढ़्निन , नौ लाख ओढ़िया,
नौ लाख परत हे कुदाल “
कहा जाता है कि तालाब खोदने का काम पुरूष करते थे और मिट्टी फेंकने का काम औरतें। इन औरतों के टोकनी झाड़ने से शिवनाथ नदी के पास 'टोकनी झिरनी' नाम की पहाड़िया बन गई थी।

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आज भी पानीदार है – छत्तीसगढ़ : भाग-5

छत्तीसगढ़ में ही एक ही जाति है-रमरमिहा। कहा जाता है कि मिट्टी के काम में ये लोग भी विशेष हुआ करते थे। हालांकि आज वे इसे नहीं मानते। उनका कहना है कि वे उसी तरह तालाब या कुआं खोदते हैं जैसे समाज के बाकी लोग। रमरमिहा दरअसल सतनामी जाति का ही एक अंग है। कहते हैं कि सन् 1776 में चारपारा गांव के एक मालगुजार परशुराम जी की नींद में किसी ने हाथ और माथे पर राम नाम गोद दिया और तबसे शुरू हुआ रमरमिहा संप्रदाय। परशुराम जी पहले गुरु हुए और महानदी के किनारे के पीरदा गांव में सन् 1911 में रमरमिहा संप्रदाय का पहला सम्मेलन या समुंद हुआ। चारपार गांव में पांच-छह एकड़ का मूड़ाबांधा तालाब, रामडबरी आदि इन्हीँ लोगों ने बनाए थे।

छत्तीसगढ़ के कई तालाबों को बंजारों ने भी बनाया था। ये बंजारे पालतू जानवर, नमक, रन, कपड़ा और मसाले का व्यापार करने के लिए गुजरात, राजस्थान से उड़ीसा तक आते थे और छत्तीसगढ़ उनके रास्ते में पड़ता था। बार-बार आने-जाने के कारण उन्होँने कई जगहों पर अपने अड्डे ही बना लिए थे और अपने जानवरों और खुद की जरूरत के पानी का स्थायी प्रबंध यानी तालाब, कुएं खोद लिए थे। आज के बालौद, बलौदा, बलौदा बाजार, बलदाकछार आदि जगहों पर एक जमाने में बैलों- का बाजार भरता था। तुलसी-बाराडेरा भी जानवरों का बाजार हुआ करता था। यहां आज भी एक बंजारा आम के पेड़ों की नीलामी के लिए आता है। मोतीपुर गांव में हीरा-मोती का व्यापार होता था। इसी तरह बंजारिन माता और बंजारी घाट भी कई जगह मिलते हैं। इन बंजारों ने मराठा और मुसलमान आक्रामकों को रसद पहुंचाने का काम भी किया था और इसीलिए मराठों ने उन्हे 'नायक' की पदवी दी थी। इन जगहों पर और बंजारों के नाम से दर्जनों तालाब, उनके किनारे छायादार पेड़ या अमराई और मंदिर मिलते हैं। इनके अलावा छत्तीसगढ़ की ही एक देवार जाति भी तालाबों को खोदने की विशेषज्ञ मानी जाती है। अघरिया जाति के लोग खेती
के लिए प्रसिध्द है और बहुत मेहनती होते हैं। किसी अघारिया की 20-25 एकड़ जमीन भी हो तो एक एकड़ में तालाब जरूर बनवाते हैं। ये तालाब जिन्हे डबरी कहा जाता है नहाने-धोने और जानवरों को पानी पिलाने के अलावा खेत में नमी बनाए रखने का काम करते हैं।


छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में खासकर बिलासपुर जिले के डभरा, मालखरौदा, किरारी जैसे गांव में ऐसी कई डबरियां देखी जा सकती हैं। शुरुआत में तालाबों के ये विशेषज्ञ यहीं बसते गए और धीरे-धीरे पूरे समाज ने इनके कौशल से सीखा। इस तरह आज भी भाषा में कहें तो 'ट्रांसफर ऑफ टेक्नालाँजी' यानी 'तकनीक का हस्तांतरण होता गया। जो काम एक जमाने में विशेषज्ञाता के दर्जे का था वह आजकल 'फुड फॉर वर्क' या 'काम के बदले अनाज' सरीखी सरकारी योजनाओं के चलते मामूली मजदूरी का काम हो गया है।

तालाबों को बांधने में सबसे पहले 'ओगरा', 'आगोर' या जिसे आजकल 'जलग्रहण क्षेत्र कहा जाता है देखा जाता है। आगोर अगोरना से बना है जिसका मतलब होता है समेटना। पानी की इस आमद को जानने के लिए किसी महंगे इंजीनियर या यंत्र की बजाए बरसों का अभ्यास और अनुभव ही काम आता है। आगोर से सिमटकर पानी तालाब की मुंही यानी मुंह के रास्ते पैठू में जाता है। पैठू एक तरह का छोटा तालाब या कुंड होता है जिसमें रुकने से पानी का कूड़ा-करकट, रेत और मिट्टी तलहटी में बैठ जाती है। अब यह साफ और निथरा पानी मुख्य तालाब में जाता है। लबालब भर जाने के बाद पानी तालाब के 'छलका' से पुलिया या पुल के रास्ते निकलकर अगले तालाब के पैठू या खेत में या फिर किसी नदी, नाले से मिलकर आगे बढ़ जाता है। 'छलका' तालाब के छलकने पर पानी की निकासी के लिए बनाया गया अंग होता है।

तालाबों का आकार चम्मच की तरह पैठू की तरफ उथला और छलका की तरफ गहरा होता है। बरसात में लबालब भर जाने के बाद उपयोग करने और भाप बनकर उड़ जाने के कारण पानी धीरे-धीरे कम होता जाता है। यह प्रक्रिया खुली और चौड़ी सतह से ज्यादा तेजी से होती है क्योँकि सूर्य की किरणेँ ज्यादा हिस्से पर अपना प्रभाव जमा पाती हैं। लेकिन कम होते जाने के कारण पानी छलका की तरफ के गहरे हिस्से में ही बचता है और वहां सूर्य की किरणेँ को ज्यादा सतह नहीं मिलती। नतीजे में भाप बनने की प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है। चम्मच के आकार की बनावट तालाब के पानी को वाष्पीकरण से बचाने के लिए की जाती है।


आमतौर पर तालाबों के किनारे अमराई और मंदिर रहते हैं जिनसे इस पूरे क्षेत्र में छाया और पवित्रता बनी रहती है। कहावत भी है कि 'कहां देखओ अइसन तरिया जहां आमा के छांव'। छत्तीसगढ़ में कई प्रसिध्द और ऐतिहासिक मंदिर तालाबों के किनारे ही पाए जाते हैं। पाली, जांजगीर, शिवरीनारायण मंदिर हसौद, रायपुर, रतनपुर, सिरपुर आदि के ऐतिहासिक तालाबों और मंदिरों का निर्माण साथ-साथ ही हुआ था।

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